जो भाजपा के साथ रहे, वे ‘आप’ के साथ भी थे और जो सीधे ‘आप’ के साथ थे, वे भाजपा के साथ भी हैं
कारपोरेट कपट का बढ़ता कारोबार-1
प्रेम सिंह
वर्ग-स्वार्थ की प्रबलता
नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के बीस साल होने पर हमने कहा था कि इस दौरान उसके खिलाफ जो संघर्ष चला उसमें बाजी नवउदारवाद समर्थकों के हाथ रही है। पांच साल बाद भी वही स्थिति है। पिछले पांच सालों में वामपंथी और सामाजिक न्याय की पक्षधर समेत मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों, बुद्धिजीवियों, नागरिक समाज और मुख्यधारा मीडिया में नवउदारवादी व्यवस्था का समर्थन और स्वीकृति बढ़ी है।
यह ध्यान देने और समझने की जरूरत है कि इस अरसे में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की परिघटना ने एक बड़ा फर्क डाला है। वह यह कि अब नवउदारवाद विरोध का पक्ष, जो अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग मुद्दों को लेकर अलग-अलग संगठनों/व्यक्तियों द्वारा संचालित जनांदोलनों के रूप में उभरा था और ज्यादातर नागरिक समाज व मुख्यधारा मीडिया की उपेक्षा के बावजूद लगातार अपनी ताकत बना रहा था, नवउदारवाद समर्थकों ने काफी पीछे धकेल दिया है। इसके साथ ही पिछले करीब दो दशकों में उभर कर आई वैकल्पिक राजनीति की विचारधारा और उस पर आधारित संघर्ष को मिटाने का काम भी तेज हुआ है। नवउदारवाद को मजबूत बनाने और गति प्रदान करने वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के पुरोधाओं ने राजनीतिक पार्टी बना कर पूंजीवाद के किसी भी विकल्प को पूरी तरह समाप्त करने का गहरा दांव चल दिया है।
संविधान की विचारधारा पहले ही नवउदारवाद की एजेंट मुख्यधारा राजनीति द्वारा लगभग ध्वस्त की जा चुकी है। अब सीधे नवउदारवाद विरोधी संघर्ष की कोख से पैदा विकल्प की राजनीति को, सीधे नवउदारवाद की कोख से पैदा राजनीति ने धूमिल कर दिया है।
आजादी के संघर्ष की सीख से हम जानते हैं पूंजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष के दौर में उतार-चढ़ाव आते हैं। अब हम यह भी जान गए हैं कि 1947 में हासिल की गई जीत निर्णायक नहीं थी। आजादी को अधूरी माना भी गया था और उसे पूरा करने के कई दावेदार प्रयास हुए थे। उस विस्तार में जाने का यह मौका नहीं है। हकीकत यह है कि समस्त दावेदारों और प्रयासों के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में ‘दूसरी आजादी’, ‘तीसरी आजादी’ ‘दूसरी क्रांति’, ‘तीसरी क्रांति’ का शोर करते हुए पूंजीवादी साम्राज्यवाद शायद पहले से ज्यादा मजबूती के साथ देश में स्थापित हो गया है। वैश्विक परिस्थितिजन्य कई जटिल कारण इसके लिए जिम्मेदार हैं। उपनिवेशवादी दौर में जो साम्राज्यवादी बीज पड़ा था, वह नवउदारवाद के प्रभावस्वरूप फल-फूल उठा। उसने देश की राजनीति पर कब्जा जमा लिया। वह कमोबेश कारपोरेट की एजेंट बना दी गई। उसी का नतीजा है कि बहुत-से सच्चे जनांदोलनों और लोगों के संघर्ष के बावजूद नवउदारवाद की जीत उत्तरोत्तर पक्की होती गई है। वह आगे भी पक्की रहे; उसके विरोध की मुख्यधारा राजनीति में निहित कतिपय संभावनाएं भी निरस्त हो जाएं, इसके लिए नवउदारवाद ने अपनी राजनीति तैयार कर ली है। आम आदमी पार्टी (आप) के नाम से इस राजनीति के तहत गांधी के आखरी आदमी को पीछे धकेल कर करोड़पति ‘आम आदमी’ को राजनीति के केंद्र में स्थापित करने की मुहिम चलाई जा रही है।
उम्मीद करनी चाहिए कि 1947 में मिली अधूरी आजादी को पूरा करने के दावेदार इस परिघटना पर गंभीरता से सोचने का काम करेंगे; नवउदारवाद के लाभार्थियों की नहीं, वंचितों के पक्ष की राजनीति स्थापित करने का उद्यम करेंगे। तभी नवउदारवाद की जीत और वैकल्पिक राजनीति की पराजय की इस परिघटना को उलटने आशा की जा सकती है।
लेकिन इसमें रोड़े बहुत हैं। चिंता का विषय कारपोरेट राजनीति के नए उभार का होना नहीं है। सरकारों का एनजीओकरण होगा तो एक दिन राजनीति का भी होगा, यह हम पहले से जानते थे। यह गुब्बारा अपने अंतविर्रोधों के चलते जल्दी ही फूट भी सकता है। बल्कि उसके फूटने की आशा में मुख्यधारा राजनीतिक दल और आशंका में खुद नई पार्टी के नेता परेशान रहते हैं। लेकिन यह उनका घरेलू मामला है। गुबारा फूटने पर भी विकल्प की राजनीति के लिए कुछ रास्ता नहीं बनने जा रहा है। नवउदारवादी पेटे में ऐसे ज्वार आगे भी आते रहेंगे।
चिंता का विषय यह है कि अपने को वाम, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष बताने वाले लोग इस राजनीति की न केवल प्रशंसा कर रहे हैं, उससे सीख लेने का पाठ पढ़ और पढ़ा रहे हैं। राहुल गांधी से लेकर करमरेड करात तक ने इस नई राजनीति से सबक सीखने की बात की है। हमें राहुल गांधी से कुछ नहीं कहना है। कामरेड करात कहीं इसका असली सबक न सीख लें, यह चिंता होती है। वह सबक है - नवउदारवाद विरोध की राजनीति नहीं चलनी है, लिहाजा, वह करनी भी नहीं चाहिए।
दिल्ली के चुनाव में ‘आप’ नेताओं के धन के लेन-देन संबंधी स्टिंग ऑपरेशन की सच्चाई शक के दायरे में हो सकती है, लेकिन वाम, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मानी जाने वाली समझ का ‘स्टिंग ऑपरेशन’ शक के परे है। यह थोड़ा अजीब है कि सीपीआई और सीपीएम के मुकाबले सीपीआई (एमएल) के सदस्य/समर्थक ‘आप’ की प्रशंसा और जीत के जश्न में ज्यादा बढ़-चढ़ कर बोल रहे हैं। उनमें से एक साथी ने हमसे कहा कि ‘आप’ को उम्मीदवार मिलने में कठिनाई हो रही थी। वामपंथी पार्टियों को अपने उम्मीदवार ‘आप’ के उम्मीदवार बनाने चाहिए थे। हम उनकी बात सुन कर स्तब्ध रह गए। आगे यह नहीं पूछा कि वाम पार्टियों के उम्मीदवारों को सीधे ‘आप’ के टिकट पर चुनाव लड़ना चाहिए था या गठबंधन बना कर? और, क्या ‘आप’ की तरफ से वैसा कोई प्रस्ताव उनके पास आया था?
सामान्य नागरिक समाज कारपोरेट पूंजीवाद के डिजाइन को नहीं समझ पाता और उसके पक्ष में स्ट्रेटेजी बनाने वालों की मंशा को भी। दिन-रात दो जून की रोटी और बच्चों की शिक्षा नौकरी के लिए हलकान आबादी तो भला क्या समझ पाएगी। नागरिक समाज में जो सीधे कारपोरेट पूंजीवाद के समर्थक हैं उनका कारपोरेट राजनीति के साथ होना स्वाभाविक है। लेकिन अपने को राजनीतिक समझ से लैस मानने वाले परिवर्तन की राजनीति के पक्षधर बुद्धिजीवी और राजनीतिक-सामाजिक नेता-कार्यकर्ता भी ‘आप’ को विकल्प मान रहे हैं। हमने कहा था कि दिल्ली में कांग्रेस या बीजेपी की सरकार बनेगी। इस चुनावी नतीजे से हम अपनी गलतफहमी दूर करते हैं। हमने ऐसा केवल इसलिए नहीं कहा था कि दिल्ली में ये दोनों दावेदार पार्टियां हैं, बल्कि यह सोच कर कहा था कि कारपोरेट कपट के जाल को दिल्ली में बैठे समाजवादी तथा धर्मनिरपेक्ष सोच और पृष्ठभूमि के लोग कारपोरेट कपट के जाल को जरूर काट देंगे। उसका फायदा समाजवाद की पक्षधर पार्टियों और कथनी में पूंजीवाद का विरोध करने वाली बसपा-सपा जैसी सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों को मिल सकेगा। जाहिर है, फिर भी सरकार कांग्रेस या भाजपा की ही बनती, लेकिन नवउदारवाद विरोध की राजनीति की जगह भी बढ़ती।
‘आप’ के रणनीतिकार खुश हो सकते हैं कि उन्होंने राजनीति और संस्कृति का केंद्र मानी जाने वाली दिल्ली में वहां के प्रबुद्ध नागरिक समाज को पूरी तरह अपने पक्ष में लामबंद करके विजय हासिल की है। हम आगे देखेंगे कि जो भाजपा के साथ रहे, वे ‘आप’ के साथ भी थे और जो सीधे ‘आप’ के साथ थे, वे भाजपा के साथ भी हैं। ‘बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास/किराए के विचारों का उद्भास’ और ‘रक्तपायी वर्ग के साथ नाभिनाल-बद्ध से सब लोग’ - मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ के काव्यनायक की इन पंक्तियों को दिल्ली के विद्वत व सुसंस्कृत समाज ने निर्णायक रूप से चरितार्थ किया है। उसने दिखा दिखा दिया है कि समाजवाद में उसका विश्वास दिखावे का और सामान्य मध्यवर्ग के साथ जुड़ा स्वार्थ असली है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान ही उसने अपना वर्गस्वार्थी चरित्र प्रकट कर दिया था। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की हमने सतत समानांतर समीक्षा की है। उसमें हमने यह बताया कि भारत के नागरिक समाज ने अपने वर्ग-स्वार्थ से परिचालित होकर उसे और मजबूत करने के लिए यह आंदोलन खड़ा किया। साथ ही नवउदारवादी नीतियों के दुष्परिणाम स्वरूप तबाही का शिकार होने वाली मेहनतकश जनता को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की स्ट्रेटेजी के तहत आम आदमी पार्टी बनाई गई। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में उसकी स्ट्रेटी को काफी हद तक सफलता मिली है। दिल्ली में उसकी जीत का जश्न दरअसल भारत के ‘महान’ मध्यवर्ग के वर्ग-स्वार्थ की जीत का जश्न है। यह स्वार्थ केवल आर्थिक और सामाजिक मजबूती का ही नहीं है, अपने को ईमानदार और नैतिक जताने का भी है। उसे ‘शुचिता’, ‘ईमानदारी’, और ‘नैतिकता’ का ऐसा ‘फील गुड’ हुआ है कि ‘आप’ सुप्रीमो केजरीवाल और उसने जो भानुमति का कुनबा जोड़ा है, उसके बारे में जरा भी आलोचना सुनने को तैयार नहीं है।
आगे भी जारी....
समाजवादी चिंतक डॉ. प्रेम सिंह सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।