जिस समय धर्म, नीति और तन्त्र पर राज्य की बुनियाद (The foundations of the state on religion, policy and machinery) रखी गई, उस वक्त ये कतई उम्मीद थी कि लोकतंत्र का ढांचा (Frame of democracy) तैयार करने वाली सत्ता विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतंत्र को खोखला करने का काम करेंगे. इस सत्तातंत्र में काबिज़ ताकतवर और हकहकूक की खातिर नीतियाँ बनाने वाले लोग खुद इस बुनियाद में नई संभावनाएं भरते-भरते तमाम तरह के लोकतांत्रिक खतरे पैदा करेंगे. केवल ‘लोक’ और ‘जन’ में बंटा तंत्र इसके दायरे में आएगा.

न्यायाधीश न्याय के मंदिर में एक किताब है जिस पर न ‘लोक’ है न ‘जन’

संविधान की सूरत में लिपटा हुआ है ‘धर्म’

हर रोज प्रार्थना में उठे हाथ जो अध्याय दोहराते हैं

सत्य का पटाक्षेप वहीं से शुरू होता है.

गवाह, सुबूत, अपराधी और फरियादी

सभी शामिल होते हैं.

फैसला लिया जाता है-

“जो कोई धर्म, नीति, तन्त्र के विरुद्ध है उसे मृत्युदंड दिया जाता है”

हम इसी जम्हूरियत और आवाम का हिस्सा हैं. जिसे राज्यतन्त्र की हकीकत को समझना होगा.

सत्तातंत्र और लोकप्रिय शख्सियत सलमान खान के पूरे केस को एक पल में समझना थोड़ी जल्दबाजी होगी. इसे समझने के लिए केवल अदालती कार्रवाई या मीडिया ट्रायल काफी नहीं हैं. इस केस के आलोक में हमें पूरे दो दशक के बदलावों को गहराई से देखना बेहद जरूरी है, जिससे यह समझा जा सके कि सेशन कोर्ट से पाँच साल की सज़ा मिलने के बावजूद मात्र तीस हजार मुचलके और जमानत की इजाजत देते हुए उच्च न्यायालय की पीठ में किन स्तरों पर एकराय कायम की और ऐसे हालात पैदा हुए कि गुरबत में दिन काटते फुटपाथ पर सोने का खामियाजा रईसजादे की गाड़ी से कुचलकर मौत के मुहाने तक ले जा सकता है, जिसे न्यायपालिका और समाज ने जायज नहीं ठहराया मगर अपराधी को उसकी लोकप्रियता और धनबल के दबाव में अवश्य देखा गया.

क्या इन्साफ की लड़ाई लड़ते हुए जनसाधारण को भी न्यायिक जांच में पूरी सहूलियत और हर तरह अदालती पेचोखम से निजात दी सकती है? जबकि सलमान खान पर आर्म्स ऐक्ट केस (काले हिरन के शिकार) का मुकद्दमा 1998 से चल रहा है.

एक सेलिब्रिटी पर दो इल्जाम थे और दोनों पर कड़ी धाराएं लगीं बावजूद इसके पेशे के मद्देनजर उन्हें उच्च न्यायालय ने जमानत दे दी. चूंकि अदालत 10 मई 2015 के बाद एक माह के अवकाश पर जाने को थी. सेशन कोर्ट के फैसले पर सजायाफ्ता मुजरिम सलमान को एक महीना जेल में गुजारना पड़ता. क्या यही वजह काफी नहीं सलमान को आननफानन में उच्च न्यायालय से तत्काल राहत देने की मांग हुई? जिसे 6 मई 2015 की शाम उच्च न्यायालय में बचाव पक्ष ने यह दलील दी दे डाली कि सलमान को पेशे के मुताबिक़ देश से बाहर जाने के लिए बार-बार कोर्ट से इजाजत लेने में समय की अडचन और पेशे का नुक्सान होगा. अतः केवल बचावपक्ष के वकील कोर्ट को इत्तला करेंगे सलमान को इस दिक्कतों में न डाला जाय. जिरह अगर कहीं हुई होगी तो क्या ये मुमकिन होता कि किसी हत्या आरोपी को ये सारी सहूलियेतें मिलतीं. मानो अदालत ने बचाव पक्ष की बात पहले से ही सुनने और फैसला देने का अभिनय कुशलतापूर्वक पूरा कर लिया था.

ढेरों मेहरबानियाँ और भी हैं जिन्हें जो अदालत ने सलमान को इसलिए दीं चूंकि वे उनके चाहने वाले लाखों की संख्या में हैं. जमानत की खबर से ही मीडिया के मुताबिक़ सिने दर्शक सलमान के घर के बाहर इन्तजार में खड़े थे. जमानत की खबर मिलते ही लोगों ने उत्सव मनाया. किसी भी फैन का ध्यान दूसरे पक्ष की ओर नहीं गया. पीड़ित पक्ष के चेहरे पर मायूसी, घर में मातम छाया रहा. एक निराशा, एक उदासी, एक हताशा साफ़ देखी जा सकती थी. पीड़ित पक्ष की तकलीफ कम होने की बजाय बढती हुई नजर आ रही थीं. परिवार के लोग परेशानी महसूस कर रहे थे. मुश्किलों ने जैसे उनके दयार में हमेशा के लिए डेरा डाल लिया. बचाव पक्ष और मीडिया ट्रायल में भी मुआवजे या किसी तरह की आर्थिक मदद की बात किसी ने नहीं की. इसके उलट ये हुआ कि इंडस्ट्री के जाने माने गायक अभिजीत ने फुटपाथ पर सोये हुए लोगों को कुत्ता कहकर संबोधित किया. मीडिया इस बात को भी खबरिया मनोरंजन में शामिल करते हुए बहस आयोजित करने में लगा था. एक लोकतांत्रिक मुल्क में जिस अपराध पर सीधे कारवाई होनी चाहिए उस पर राष्ट्रीय चैनलों में कोरी बहसें चलाई जा रही थीं. हर तरह से बड़े कारोबारियों का जत्था एक सजायाफ्ता मुजरिम को बचाने की कोशिश में शामिल था. एक तरफ फैसला आने के पूर्व ही हर संभावना और सवाल पर करोड़ों की सट्टेबाजी जारी थी तो दूसरी तरफ सजायाफ्ता के पक्ष में खुली बहसें चरम पर थीं. एक अदाकार के शुरूआती संघर्ष और मकबूल होने तक के किस्से सुना रहा था. मीडिया दरबार मजबूती से खड़ा हुआ केवल तमाशबीनों को मजमा लगाने के लिए उकसा रहा था.

जहां तक अदालतों के महत्वपूर्ण फैसलों का सवाल है मुन्सिफों ने हमेशा सियासी और रिहाइशी तबके की हिमायत की है. रिहाइश में जीने वाला तबका अपने रुतबे और लोकप्रियता के चलते समाज में दबदबा कायम किये है.

न्यायालय जब किसी संभ्रांत के पक्ष में सजायाफ्ता पर मेहरबान होता है तब बड़ी से बड़ी हलचलें अकस्मात ठंडी बयार सी नये बदलाव की तरह आती हैं. इस मेहरबानी के मानी क्या हैं? किसी ने कोर्ट से नहीं पूछा.

और भी कई सवाल हैं जिन्हें बहस में लाने की पूरी गुंजाइश फिलहाल बची हुई है. एक तरफ गैर-इरादतन हत्या के मामले में सलमान के पास वकीलों का जत्था है दूसरी तरफ फुटपाथ में मरे और घायल हुए परिवार के पास एकमात्र सरकारी वकील है. इन्साफ ऐसे में खुद ही सवालिया कटघरे में खड़ा हुआ है. न्याय की ये कवायद बताती है कि इन्साफ गरीबों के पक्ष में कभी नहीं हो सकता.

दो दशक पहले की बदली फितरत और फिजाँ नब्बे के दशक में नवउदारवाद आने के साथ ही एक नया तबका पैदा हुआ जो नई आर्थिक नीति का सबसे बड़ा वाहक और उसे मजबूती देने वाला कारगर तन्त्र साबित हुआ. इस नये आभिजात्य वर्ग ने लोकतंत्र के मजबूत तीनों स्तंभों को नई खुराक दी. उसकी परवरिश में जरा भी कसर नहीं रखी. बदलाव की इस आक्रान्त सोच ने तमाम सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक बदलाव किए. लोगों के सोचने समझने का नजरिया बदला, इच्छाशक्ति बदली. नये बाज़ार और उसकी चकाचौंध ने बदली हुई फिजा को और खूबसूरती, शक्ति-सामर्थ्य के साथ प्रस्तुत किया. जनसाधारण में ताकतवर होने के अहसास भरे, नये-नये अवसर पैदा किये गये. राज्य के पुराने ढाँचे में अंदरूनी बदलाव हुए. संवैधानिक और रचनात्मक स्तर पर आधारगत मूलभूत परिवर्तन किये गये.

इस तरह ये संस्था लोकतंत्र की हिमायत करते-करते कब रसूखदारों की कातिलाना सम्मोहन में तरबतर नई राजनीतिक-आर्थिक के साथ बदली हुई सामाजिक संरचना में दाखिल हुई. इस दौर में आई तब्दीलियों ने लोकतंत्र की मजबूत बुनियाद में बेसब्री और चिंताएं भर दिन. बने-बनाए सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचे की बाहरी भीतरी संरचना में आमूलचूल बदलवों ने चुनौतियों के दरवाजे खोल दिए. ऐसे में लोकतंत्र के मौजूदा ढाँचे में एक चौथे स्तम्भ की जरूरत महसूस की जाने लगी. जिसे सूचना क्रान्ति कहा गया. वास्तविकता का डिजिटलीकरण किया गया. इसके आने की धमक से हर तरफ उत्सुकता और आकर्षण बढ़ा. उसने चौथे स्तम्भ के रूप में आते ही सभी के दिलों में ख़ास जगह बनाई. जिसे हम मीडिया हाउस कह सकते हैं.

इस मीडिया हाउस ने लोकतंत्र की तीन मजबूत इकाइयों को सिरे से प्रभावित किया. अदालत, सत्तातंत्र और लोकप्रिय सख्सियतों के रिश्तों को इस तरह सींचा कि वे एक दूसरे के साथ घुलमिल सकें. और अलग-अलग तबके, हैसियत के विभेद को खत्म करके आपस में मधुर और सहज रिश्ते बना सकें.

यही वो दौर है जो खलनायक के लिए किसी अलग अदाकार की मांग नहीं करता.

इस दौर में एक चॉकलेटी नायक का उभार तेजी से हुआ वो थे शाहरुख खान जिन्होंने कुशल निर्देशक यश चोपड़ा के साथ नायक रहते हुए खलनायक के चरित्र को अपने भीतर जिया. अब इस नायक को देखकर यह कोई नहीं कह सकता था कि नायक के लिए एक और भूमिका निभाने में कोई मुश्किल बाकी है. इस दौर के शाहरुख खान जैसे नायक ने यह साबित कर दिया कि नायक और खलनायक के बीच केवल हरकतें बदलने से किरदार बदल जाता है. केवल किरदार के बदलने से एक ही शख्स दो भूमिकाएं बखूबी निभा सकता है. यह खलनायक की अलग पहचान बनाए हुए किरदारों के ढलान का भी समय था. जब पूरे 40 साल बाद पुराने खलनायक अपने किरदारों में इतने मांझ चुके थे कि दर्शक भी अब उनके आने से न ही बहुत प्रभावित होते थे और यहाँ तक कि उनके पुराने संवाद भी अब बोझिल हो चले थे. अब खलनायक की धार पुरानी पड़ चुकी थी.

एक तरफ इसी के पैरेलल दूसरी छवि नायक की उभरी वो भी नायक संजय दत्त जरिये, जहां एक तरफ वो रूमानियत और इश्कमिजाजी से भरा अदाकार होने की भूमिकाएं निभा रहे थे वहीं दूसरी तरफ ये सच दुनिया के सामने रखा जब यह कहा ..”नायक नहीं खलनायक हूँ मैं, जुल्मी बड़ा दुखदायक हूँ मैं.”

इस गीत में आये संवाद जितने लचीले और सामान्य दिखते हैं, उतने ही खतरनाक और घातक हैं. एक ही किरदार दो भूमिकाएं अदा करता है. यह नये दौर का सिनेमा और नायक की चुनौती भरी सम्वाद्प्रियता है. ये गाने के बोल और नायक के बदले हुए तेवर व संवाद तीसरे देशोx की दुनिया में यूं ही नहीं आये. ये किरदार केवल फिल्मों तक ही नहीं सीमित नहीं रहे बल्कि असल जिन्दगी में भी इस किरदार ने नये और बदले समय की नब्ज़ में जिस तरह रवानगी भरी वह हाशिये के तबके में जीती हुई आबादी के लिए मानो किसी बड़े निरंकुश बदलाव के साथ नई चुनौतियाँ लेकर आई. जोकि आवाम के लिए घातक साबित हुआ. जबकि सत्तातंत्र को यह किरदार निभाने में लुत्फ़ आ रहा था.

ये तबका बेहद मजेदार और रोमांच से भरा महसूस कर रहा था. अब यह पहचानना आसान नहीं रहा कि नायक कौन है और खलनायक कौन है? सत्ता के शीर्ष पर बैठे नायकों ने अपने किरदार में इस बदलाव के चलते आवाम को सताने के नये नये तरीके ईजाद किये. ये असल जिन्दगी के खलनायक की भूमिका में कहीं अधिक तल्ख तेवरों और डरावने संवादों के साथ उतरे.

इस किरदार के भावभंगिमा और चेहरे में खासी लुभावनी दमक साफ़ दिखाई देती थी. असल जिन्दगी में यह दौर छोटे-छोटे गिरोह, हत्यारों, और डकैतों के खात्में का दौर था. जब पुलिस के नये-नए स्पेशल टास्क फ़ोर्स बने. जिन्हें स्थानीय गुंडा तत्वों को खत्म करने का काम सौंपा गया. ताकि इस पूंजी के आवागमन के रास्ते सुरक्षित हो सकें. इजारेदार हिस्सेदारों की हिफाजत हो सके. क्रोनी कैपिटलिस्ट में एक भरोसा कायम हो सके.

इस दौर में कई डकैतों ने आत्मसमर्पण किये. कई गिरोह पुलिस मुठभेड़ में मारे गये. कई गिरोह नई पूंजी की हिफाजत में नए उभरते माफियाओं के साथ उनकी सेवा और सुरक्षा में चले गये. क्यूंकि एक बड़ी पूंजी के निवेश के रास्ते खोले जाने की शर्त पर हस्ताक्षर किये जा चुके थे. ऐसे में इस मुल्क में बड़ी पूंजी के आने के पहले ही उसकी हिफाजत करना सरकार और तन्त्र की बड़ी जिम्मेदारी बन चुकी थी.

अदालतों के फरमान और चुनौतियाँ अदालतों के फैसले जनसाधारण को चुनौती दे रहे हैं साथ ही ताकतवर को और अधिक निरंकुश, क्रूर, जनसंहारक बनाने में अपने अधिकार और प्रतिष्ठा का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं. एक तरफ आर्थिक तौर पर कमज़ोर अल्पसंख्यक, आदिवासी, औरतें, किसान और दलित तबका हैं. कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा दलित किसी न किसी जुर्म में बेगुनाह होकर भी कैद में जिन्दगी काट रहा है. वनप्रदेश में रहने वाले आदिवासियों की 80 फीसदी आबादी या तो नक्सलाईट या माओवादी घोषित की जा चुकी है. आदिवासी इलाकों में रहने वाली जनजातियाँ कैदियों की जिन्दगी बिता रही हैं. इन तबकों की महिलायें यानी आधी आबादी अपनी कुल तादाद का 70 फीसदी हिस्सा हिंसा, बलात्कार, शारीरिक शोषण झेलती हुई किसी गुनाहगार की तरह सजा काट रही हैं. राजसत्ता के द्वारा सताई जा रही हैं. किसानों को रोज़मर्रा की जिन्दगी में या तो खुदकुशी करनी पद रही है या फिर वे भुखमरी या बदहाली, और कर्ज में डूबक्र मारे जा रहे हैं. इनकी हालत इतनी बदतर है. किसान बदतर हालातों में हर आधे घंटे में ख़ुदकुशी करने को मजबूर हैं. वे या तो विस्थापित होकर मजदूर बनने का दंड भुगत रहे हैं.

हाशिये का दुःख झेलती ये बड़ी आबादी राज्यसत्ता, बड़े कारोबारियों की खातिर सबसे लजीज और जायकेदार खुराक है. अल्पसंख्यकों को हिन्दू राष्ट्र के सिपहसालार और धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली ताकतें अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की खातिर आतंकी बताकर सीधे कानूनी हत्या कर रहे हैं.

आतंकवाद का कसीदा पढ़ने वाली राजनीतिक शक्तियां निजी फायदे के लिए राष्ट्रद्रोही कहकर जनसाधारण से जीने का हक़ छीन रहे हैं. ये जमात असहाय और बेकुसूर होकर भी व्यवस्था और अदालत की नजर में गुनहगार बनी हुई है. ये जो धनकुबेरों का सबसे हिंसक और ताकतवर समूह है. अदालतें इस ताकतवर समूह की निगरानी और हिफाजत में हर लम्हा लगी हुई हैं.

आवाम के लिए इन्साफ को दरकिनार किए अपने रुतबे और हैसियत और सामाजिक दबदबे में लगातार इजाफा कर रही है. अब जबकि सुप्रीम कोर्ट के सूचनापट पर न्यायाधीशों की संपत्ति का पूरा ब्यौरा टंगा है. जिसे देखकर जनसाधारण यही समझेगा कि ये मुंसिफ आम नागरिक के बराबर हैसियत रखते हैं. काश कि यही सच होता. मगर सच्चाई कागजों के बाहर हकीकत में कुछ और है. जहां सरकारी तनख्वाह से ज्यादा कीमत देने वाले अपराधी समूह न्यायाधीशों के साथ गुनाह का कारोबार करने में शरीक हैं.

ये सवाल न्यायाधीशों से कौन पूछेगा कि गंभीर केसों में लिप्त अपराधियों की बेल, जमानत, और केस की हरेक सुनवाई में पक्षपातपूर्ण तरीके से जो गैरकानूनी कमाई की जाती है. वो किन तिजोरियों में जमा हैं?

न्यायाधीशों की वास्तविक संपत्ति की जांच करने वाली संस्थाएं आखिर किस तरह का हस्तक्षेप नहीं कर सकती है. अगर यकीन नहीं है तो सरकारें इन न्यायाधीशों की सम्पूर्ण संपत्ति का निष्पक्ष ऑडिट करवाएं. जिस तरह फुटपाथ पर मरने वाले के पक्ष में फैसले की उम्मीद को वर्षों तक अधर में लटकाकर मार दिया जाता है. और पर्सनल चार्टर प्लेन से चलने वाले वकील के जरिये गुनहगार को बाइज्जत बचा लिया जाता है. ये चार्टर प्लेन और फुटपाथ पर मार दिए गये व्यक्ति के खिलाफ जीतने का हौसला कहाँ से पैदा होता है? तेरह साल तक चले केस को अचानक सेशन कोर्ट के जजमेंट से जहां इन्साफ की आस दिखाई जाती है वहीं पल भे में ही निचली अदालत के आदेश को रोककर उच्च न्यायालय गुनहगार को बेल देने के लिए राजी हो जाता है. चंद मिनट में ही सजायाफ्ता को मुचलके के तौर पर तीस हजार की रकम जमा करने और कैद से मुक्त रखने का फैसला सुनाया जाता है. यह व्यवस्था और न्यायपालिका के द्वारा फुटपाथ पर सोये हुए गरीब तबके का मजाक उड़ाने के सिवा और क्या है?

समाचार चैनल लगातार अपराधी के चाहने वालों की भीड़ पर अंत तक कैमरा जमाये रहते हैं. मानो सारी बहसें मुजरिम के गुनाह पर केन्द्रित न होकर उसके लोकप्रियता का गुणगान करने की कवायद में लगी हुई है. अपराध और सजा को लेकर मानो कभी कोई बहस तो थी ही नहीं. बहस इस बात पर थी कि एक लोकप्रिय अदाकार को छोड़ने में अदालत ने इतनी देर क्यों लगाई ? गनीमत इतनी ही थी कि फुटपाथ पर सोयी भीड़ इकट्ठा होकर अदालत नहीं पहुंची. वरना केस का रुख और चार्टर प्लेन की दिशा के साथ न्यायाधीश का फैसला कुछ और ही मोड़ लेता.

इस केस में एक बात और कहना जरूरी है फैसला आनन फानन में इसलिए भी हुआ क्योंकि 8 मई के बाद कोर्ट पूरे एक महीने के लिए बाद रहती और अगली सुनवाई तक रसूखदार अपराधी को जेल में बिताने पड़ते. उस पर भी तुर्रा यह कि इन महंगे अदाकार पर इस वक्त 2500 करोड़ फिल्मी दुनिया के निर्माताओं ने लगा रखा था.

एक सजायाफ्ता मुजरिम की फ़िल्में असल में हीरो के पूरे चरित्र को बदलकर रख देती हैं. जो नजर का चश्मा प्रशंसकों ने पहना था. उसे उतरने में चंद घंटे लगते. इस बात का अंदेशा और डर भी कहीं न कहीं दौलत के पुजारियों को था. बरक्स इसके हाशिये का समाज जो अदालतों पर सरकारी वकील की जिरह पर भरोसा किये वर्षों से इन्साफ के इन्तजार में कतारबद्ध है. उसे घरी निराशा झेलनी पड़ी. मानो उसे न्यायविदों ने ठग लिया.

संविधान में हर आदमी की हिफाजत और इन्साफ की खातिर अदालतें बनी हैं. मगर जनसाधारण को यह मालूम नहीं है इन्साफ का कारोबार, गवाहों-सुबूतों के साथ अपराधी की हैसियत से आँका जाता है.

तेरह साल बाद 8 मई 2015 बॉलीवुड की दुनिया में लोकप्रिय अभिनेता सलमान खान की जिन्दगी का सबसे खुशगवार लम्हा, ८ मई २०१५ को हिट एंड रन केस की सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय ने कानूनी लड़ाई में सेसन कोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए तीस हजार मुचलका भरने का आदेश दिया. आरोपी सलमान को जमानत पर रिहा किया.

जी हाँ ये वही समय है जब दंगे के आरोपी बाबू बजरंगी और गुलाब सिंह को भी बरी किया गया

इन तमाम फैसलों के बीच मोदी सरकार के एक बरस पूरे होने का बेसब्री से इंतजार हो रहा था. 16 मई 2015 का दिन हर खासोआम के लिए उत्सुकता और उम्मीद से भरा था. अदालतों में बैठे मुंसिफ जब किसी फैसले पर मुहर लगाते हैं तो ऐसा कम ही होता है कि उनका हर फैसला नजीर बने. मगर ऐसा अक्सर होता है ताकतवर और लोकप्रिय व्यक्ति के पक्ष में जब फैसला आता है तो अपराधी को नये सिरे से नायक बनाने का एक नया सिलसिला शुरू होता है.

इस फैसले के बाद जयललिता केस की सुनवाई थी, फैसला पूरी तरह पक्ष में रहा. 1996 में दर्ज आय से अधिक सम्पत्ति मामले की आखिरी सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 12 मई 2015 को सुबूतों के अभाव में बरी कर दिया.

न्यायापालिका मेरुदंड मानी जाती रही है. जहां बैठे न्यायायाधीश सियासत की जी हुजूरी करते हुए महत्वपूर्ण ओहदे हासिल करते हैं. जुडीशियरी की तालीम और प्रैक्टिस में सिद्धांत और व्यवहार का आमूलचूल अंतर साफ़तौर पर देखा जा सकता है. इसके पहले 16 मई 2014 से अब तक तमाम जघन्य अपराधों में लिप्त सज़ायाफ्ता मुजरिम सज़ा से बरी किया जा चुका है.

तुलसी प्रजापति और सोहराबुद्दीन इनकाउंटर केस के आरोपी अमित शाह को अदालत ने दिसम्बर 2014 को बाइज्जत बरी किया गया. मुरार काण्ड 20/2005 के आरोपी सुबूतों के अभाव में मई 2015 में रिहा किये गये. 2002 गोधरा काण्ड के 68 आरोपी रिहा. 1987 हाशिमपुरा दंगे के आरोपी केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल के 16 आरोपी मार्च 2015 में रिहा. इस नरसंहार में 42 मुसलमान मारे गये थे. 24 अक्टूबर 1989 से 15 जनवरी 1990 तक हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगे हुए. आंकड़ों के अनुसार तकरीबन 2000 लोगों की जान गई. 2007 में 14 लोगों को दोषी पाया गया. लौंगाय में 116 मुसलमानों को मारकर जमींदोज कर दिया गया और उस ज़मीन को गोभी के खेतों में तब्दील कर दिया गया. 27 अक्टूबर 1989 में चंदेरी में मुसलमानों को इकट्ठा करके गोली मार दी गई. 22 आरोपियों में 16 लोगों को उम्रकैद की सजा दी गई. चुनमुन यादव पर 12 मुसलामानों की हत्या करने के बावजूद लालू यादव ने आरोपी को पार्टी से चुनाव लडाया. साक्ष्य जुटाने में असफल रही पुलिस टीम के कारण सैकड़ों अपराधियों को बरी किया गया. जिनकी संख्या 500 से ज्यादा है. नरोदा पाटिया दंगा 2002 के अपराधियों में बजरंग दल के नेता बाबू बजरंगी और कोडनानी को सजा सुनाने के बावजूद बरी किया गया. इस मामले में 97 लोग मारे गये थे. मुख्य अभियुक्तों को इस इन्साफ की कड़ी में ज्यादातर अस्थाई जमानत दी गई. कमजोर और निचले तबके से जुड़े लोगों को इन केसों में उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा गया.

ये अदालतों का चरित्र है. जिसे हमें निरपेक्ष होकर देखना होगा.

नरेंद्र दामोदर दास मोदी को भी अदालत ने मुकद्दमे से उस वक्त बरी किया जब चुनाव 2014 में मोदी के पक्ष में मीडिया, देश के बड़े कारोबारी और अपने शेयर बाज़ार में बड़ी रकम लगाने वाली कंपनियों के मालिक समेत देश की नामीगिरामी बालीवुड हस्तियों समेत ढेरों पोपुल्ट और संभ्रांत हस्तियाँ गुनाहों पर पर्दा डालने के लिए एक दंगे के आरोपी को मुल्क का प्रधानमंत्री बनाने के लिए एकजुट हो चुकी थी. और गुजरात दंगों के आरोपी नरेंद्र दामोदर दास मोदी के प्रचारतंत्र का सबसे ताकतवर हिस्सा साबित हुई.

यहाँ एक और बात कहना जरूरी है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक फैसला दिया कि अगर कोई आरोपी किसी विभाग में कर्मचारी है, तो उसे कोर्ट से बरी होने के बाद भी विभागीय जाँच के दायरे में रखा जा सकता है. विभाग इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह आरोपी के खिलाफ सख्त कार्रवाही कर सकता है. इसमें कोर्ट दखल नहीं दे सकता. मगर 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे मोदी पर किसी तरह की कार्रवाई सीएमओ ऑफिस के प्रशासनिक अमले और मंत्रीमंडल ने नहीं की. इसे किस तरह से देखा जाना चाहिए? न ही अमित शाह को पार्टी का नेतृत्व सौंपे जाने पर किसी तरह की दण्डात्मक कार्रवाई हुई. क्या जयललिता का मंत्रिमंडल कोई कार्रवाई जांच के दायरे में करेगा?

अगर आम नागरिक के लिए सरकारी दफ्तर में कोर्ट की यह बात लागू होती है तो फिर राज्य और केंद्र के बनाए हुए मंत्रिमंडल समेत प्रधानमंत्री कार्यालय, मुख्यमंत्री कार्यालय में यह बात लागू क्यों नहीं होती? जबकि सरकार के वेतनभोगी सांसद भी हैं और सरकारी दफ्तर के कर्मचारी भी इस दायरे में आते हैं.

कोर्ट ने साफतौर पर कहा है “आपराधिक एवं विभागीय कार्यवाही दो अलग प्रक्रियाएं हैं। यदि आपराधिक मुकदमा दर्ज होने के ही कारण बर्खास्तगी नहीं की गई तो मुकदमे में बरी होने का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। कर्मचारी भले ही आपराधिक मामले में बरी हो गया हो, यदि विभागीय जांच में वह दोषी साबित हुआ है तो विभागीय कार्यवाही को इस कारण अवैध नहीं कह सकते कि उसे न्यायालय ने इसी मामले में बरी कर दिया है।”

इस आदेश को मानें तो क्या कभी मंत्रालय में शामिल आरोपी (अदालत से आरोपमुक्त या आरोपी) मंत्रियों के खिलाफ अब तक विभाग की ओर से न्यायिक जांच हुई? क्या पीएमओ कार्यालय और सीएमओ कार्यालय में दोषी पाए गये या आरोपी मंत्रियों के विरुद्ध किसी तरह की जांच कमिटी बनाई गई है? जिससे जनसाधारण को यह मालूम हो सके कि आपराधिक मामले में अदालत से बरी होने के बाद भी मंत्री पर कोई विभागीय कार्रवाई या निष्पक्ष जांच चल रही है. अगर ऐसा नहीं है तो विभाग में काम करने वाले सीसीएस नियमावली में आने वाले कर्मचारियों पर किसी भी तरह की कार्रवाई करने की प्रक्रिया को रद्द कर दिया जाना चाहिए. मगर हकीकत में सारे नियम कानून सिर्फ छोटे कर्मचारियों पर ही लागू किये जाते रहे हैं.

सरकार का यह दोहरा चरित्र बहुत कुछ बयान करता है. क्योंकि सीसीएस रूल के अनुसार सिर्फ इस दायरे में सामान्य कर्मचारी ही जांच के दायरे में आते हैं. अधिकारी वर्ग इस जांच के दायरे से बाहर रखा गया है. यह नियम भी सरकारी विभागों पर सामान रूप से लागू नहीं कए गये हैं. इस भद्रलोक में कौन गुनहगार नहीं कोई बताये जरा. ये संसार मेहनतकशों की लाशों पर खड़ा है.

डॉ. अनिल पुष्कर

अनिल पुष्कर कवीन्द्र, प्रधान संपादक अरगला (इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका)