सवर्ण आयोग पर सवाल
सवर्ण आयोग पर सवाल
प्रेमकुमार मणि
जनवरी २०११ के आखिरी हप्ते में बिहार सरकार का एक फैसला आया कि वह सवर्ण आयोग का गठन कर सवर्ण जातियों के उत्थान के लिए सुझाव मांगेगी. इस खबर ने मुझे चौंकाया. पिछले विधान सभा चुनाव में बिहार में सत्ता के लिए जूझ रही जदयू-भाजपा और राजद-लोजपा गठबंधनों ने अपने घोषणा-पत्रों में तथाकथित ऊंची जातियों के लिए आरक्षण और आयोग बनाने का जिक्र किया था. अव्वल तो घोषणा-पत्र तब जारी किये जाते हैं, जब चुनाव आधा बीत जाता है, क्योंकि अब मतदान लगभग महीना भर चलता है. फिर घोषणा पत्र केवल चुनाव आयोग को झांसा देने के लिए कर्मकांड की तरह जारी किये जाते हैं. इस बार जनता दल (यू) ने जो घोषणा-पत्र प्रकाशित करवाया था, उसकी संख्या केवल पांच सौ दर्शायी गयी है. हकीकत में यह सौ से अधिक नहीं प्रकाशित हुई होगी. अब इस घोषणा पत्र के तो कोई मायने नहीं हैं. लेकिन चलिए सरकार ने एक फैसला लिया.
१ फरवरी, २०११ को सरकार ने अधिसूचना जारी की कि उच्च जातियों के लिए एक आयोग का गठन होगा, जो पांच बिन्दुओं पर काम करेगा. ये बिन्दु हैं उच्च जातियों में शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को चिन्हित करना, उनकी आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति का समग्र अध्ययन करना, उनके पिछड़ेपन का कारण जानना, उच्च जाति के पिछड़ने के कारणों को दूर करने के लिए आवश्यक सुझाव देना और उनके शैक्षणिक और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए रोजगार उपलब्ध कराने के लिए सुझाव देना.
मैंने सरकार के इस फैसले का तुरंत विरोध किया. पहला विरोध तो कैबिनेट फैसले के बाद जारी खबर कि सवर्ण आयोग बनेगा, में सवर्ण शब्द पर था. वर्ण शब्द को पहली दफा राजकीय मान्यता मिली थी - जो मेरी नजर में गलत था. अधिसूचना में उसे सुधारा गया. लेकिन नेता और नौकरशाह जब दिमागी तौर पर दिवालिया होते हैं तो गलतियां पर गलतियां होती हैं. अधिसूचना में उच्चजाति है. मेरा पूछना है क्या सरकार का आशय सामान्य कोटि की उन जातियों से है जो अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्गों की सूची में नहीं आते? यदि है तो सरकार अपने स्तर से उन्हें उच्च मान रही है? उन जातियों को सामान्य, अनारक्षित अथवा अनु के विलोम में अग्रसूचित जाति कहा जा सकता था. लेकिन उन्हें उच्च घोषित कर सरकार ने शेष समुदायों को नीच घोषित कर दिया है. यह लापरवाही नहीं, मानसिकता का द्योतक है. सरकार मनुवादी मानसिकता से ग्रस्त है और पिछड़ी-दलित जातियों को अनुच्च अथवा नीच घोषित कर उसने अपराध किया है. नीतीश सरकार तो मनु से भी एक कदम आगे बढ़ चुकी है.
लेकिन हम आगे बढ़ते हैं. मेरे विरोध पर बवाल मचा. मैं जिन लोगों को सुबुद्ध समझता था और संयोगवश तथाकथित सवर्ण समुदाय से आते थे उनने मुझे समझाना चाहा. अनेक ने प्रेस वक्तव्य देकर मेरी आलोचना की. इसके उलट पिछड़े-दलित समुदायों से आने वाले बुद्धिजीवियों और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकत्ताओं ने मेरी प्रशंसा की. लेकिन मैं समझ रहा था कि आलोचना और प्रशंसा दोनों में उन्माद है, कोई सम्यक समझ नहीं है. आलोचकों को लगा मैं तथाकथित सवर्ण जातियों का विरोधी हूं, वहीं दलित-पिछड़ी जातियों के लोगों को लगा कि मैं उनका प्रवक्ता हूं. मैं कहना चाहूंगा कि इन दोनों से मैं अलग हूं. मैं एक ऐसे आघुनिक समाज का पक्षधर हूं जिसकी संरचना विज्ञान से उपलब्ध विचारों से होती है. लेकिन सरकार तो वोट बटोरने के लिए सस्ते उपाय ढ़ूढ रही है और समाज को एक नये जातियुद्ध की ओर धकेल रही है. मैं इसका मूक दर्शक नहीं बन सकता.
मैं एक सार्वजनिक अपील करता हूं कि बुद्धिजीवी और सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्त्ता वे चाहे जिस किसी वर्ग से आते हों, इस समस्या पर उदारता से विचार करें.
दुनिया भर के समाजों में वर्ग भेद रहे हैं. फ्रांस में ऊंचे लोग नोबल कहे जाते थे, इंग्लैंड में लार्ड. रूस औद्योगिक रूप से पिछड़ा हुआ देश था, इसलिए वहां भूस्वामियों का एक समुदाय था जिसे कुलक कहा जाता था. सभी देशों में इन वर्चस्व प्राप्त तबकों के विरुद्ध संघर्ष हुआ और आज उन देशों के लार्ड, नोबेल और कुलक पूरी तरह सामान्य नागरिक में रूपान्तरित हो चुके हैं. रूपान्तरण की प्रक्रिया का इतिहास दिलचस्प है और उसे हम सबको पढ़ना चाहिए.
हमारे देश भारत की स्थिति कुछ अधिक जटिल रही. इसका एक कारण तो यह है कि औद्योगिक क्रांति हमारे समाज में नहीं हुई. राज्याश्रय में एक कमजोर किस्म का औद्योगिक विकास मात्र हुआ है जिसे हम उपभोक्ता उत्पादों के रूप में देख रहे हैं. औद्योगिक क्रांति के ईद-गिर्द यूरोप में जो रिनांसा आया वह भी हमारे समाज में कमजोर किस्म का हुआ. इसका नतीजा निकला कि एक मानसिक पिछड़ेपन से हमारा समाज ग्रस्त रहा.
स्वतंत्रता आंदोलन के दरम्यान भी राष्ट्रीय चेतना विभक्त रही. समाज का वर्चस्व प्राप्त तबका येन केन् अंग्रेजों को हटाकर सत्ता की बागडोर अपने हाथ लेना चाहता था. उसने लिया भी. इस तबके के पास मीडिया और मुखर प्रवक्ता थे इसलिए इनकी बातें सामने आ सकीं. इसके समानान्तर पूरे देश के दलित, पिछड़े, किसान, मजदूर अपने अस्तित्व व अस्मिता को रा ट्रीयता से जोड़ने के लिए बेचैन थे. बड़ी मुश्किल से अब जाकर जब सबार्ल्टन इतिहासकारों ने नये सिरे से भारत का इतिहास लिखना शुरू किया है तब इनकी सक्रियता को रेखांकित किया जाने लगा है. फुले, आंबेडकर, पेरियार हमारे ऐसे नायक थे जिनकी इतिहास में हाल तक कोई चर्चा नहीं थी. दक्षिण के जाति विरोधी आंदोलनों, मजदूर किसान आंदोलनों को इतिहास में अब जाकर स्थान मिलना शुरू हुआ है.
गनीमत थी कि इस में गांधी, आंबेडकर और नेहरू जैसे सुबुद्ध व दूरदर्शी राजनेता हुए. भारत के संविधान निर्माण में इन सबके विचारों का समावेश हुआ. भारत के राजचिन्ह के रूप में बुद्ध के धर्मचिन्ह व राष्ट्रीय झंडे में अशोक चक्र को स्वीकार कर नेहरू ने बतला दिया कि हमारा लक्ष्य क्या है. संकीर्णतावादी ताकतों ने मामूली कोहराम नहीं किया था. मजबूर होकर संकीर्णतावादियों ने नये संविधान को तो स्वीकार कर लिया था, लेकिन इनके मुखर प्रवक्क्ता ने सोमनाथ में मंदिर स्थापित कर इसका प्रायश्चित भी किया.
भारत के संविधान ने भारतीय हिन्दू समाज में चली आ रही मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का नि ो किया. इसकी मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का असर न केवल हिन्दू समाज पर बल्कि मुसलमानों और ईसाइयों के समाज पर भी पड़ा था. मनुवादी सामाजिक दर्शन का मूल यह था कि एक द्विज समुदाय होगा, जिसके पास केंद्रीय सत्ता होगी लेकिन यह केंद्र परिि वत् अथवा अनुदैर्ध्य (लैंगिच्यूडनल) न होकर उदग्र अनुक्रम (वर्टिकल) में होगा. एक ऊपर होगा, तीन क्रम से नीचे होंगे. संचरण और सक्रियता को सुस्त करने का भरसक इंतजाम था. अनुलोम संचरण को तो थोड़ी छूट भी थी, प्रतिलोम संचरण पूरी तरह निषिद्ध था.
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि ऐसे सामाजिक दर्शन को लेकर कोई समाज लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं चला सकता. नेहरू जो फ्रांस की क्रांति और यूरोप में लोकतांत्रिक राजनीति के विकास से सुपरिचित थे, इससे सहमत थे. गांधी का संतत्व भरा हिन्दुत्व भी अंतत: इससे सहमत हुआ. नतीजतन भारतीय संविधान में अनुसूचित व पिछड़े समूहों के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत प्रतिपादित किये गये. डॉ. राममनोहर लोहिया ने विशेष अवसर के सिद्धांत को लेकर एक नयी समाजवादी राजनीति विकसित की. १९७७ में कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में और १९९० में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पूरे देश में सरकारी नौकरियों में पिछड़े समूहों के लिए आरक्षण सुनिश्चित कर कुछ सगुण कार्रवाइयां कीं.
वर्चस्व प्राप्त तबके ने इन कार्यक्रमों का तीखा विरोध किया. लगभग दो दशकों तक भारतीय राजनीति का केंद्रीय विषय सामाजिक न्याय रहा. इस राजनीति ने भारतीय जनतंत्र के चरित्र को बदल कर रख दिया.
लेकिन अब जाकर नीतीश सरकार बड़ी होशियारी से सामाजिक न्याय के आंदोलन और विचारधारा को हमेशा-हमेशा के लिए दफन करना चाहती है. नीतीश कुमार चेतन या अवचेतन रूप से सामाजिक प्रतिगामी परम्परा के पद-चिन्हों पर चल कर बिहार में दक्षिणपंथी व दकियानूस राजनीति की स्थापना करना चाहते हैं, जिसे गुजरात में नरेंद्र मोदी स्थापित कर चुके हैं. नीतीश बिहार के नरेंद्र मोदी बनना चाहते हैं.
अब मैं केंद्रीय विषय पर आना चाहूंगा. नीतीश कुमार कह रहे हैं वह तो गरीब सवर्णों को ऊपर उठाना चाहते हैं. क्या मासूमियत है! इस पर कौन नहीं फिदा हो जाए. लेकिन मैं उसी अदा से पूछना चाहूंगा कि गरीबों को ऊपर उठाने वाली जो अनेक सरकारी योजनाएं चल रही हैं, उसमें सवर्ण गरीबों को रखने में कोई वैधानिक मनाही है? बीपीएल सूची में शामिल करने में जाति के नाम पर कोई रोक है क्या? क्या गृहविहीन सवर्ण को इंदिरा आवास देने पर आपको कोई रोक रहा है? या उन्हें मनरेगा का जॉब कार्ड देने में कोई वैधानिक पाबंदी है? यदि नहीं तो आप सवर्ण गरीब को फिर क्या देने जा रहे हैं? क्या आप सवर्ण को लेकर वैसी राजनीति करना चाहते हैं जैसी आर्य को लेकर हिटलर ने की थी?
पिछड़े वर्गों की संख्या ५४ प्रतिशत है और उन्हें सरकारी नौकरियों में २७ प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान हुआ है. हकीकत यह है कि पिछले वर्ष तक केंद्र की सरकारी नौकरियों में पिछड़ों का प्रतिशत ७ से भी कम रहा है. यह मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के १८ वर्ष बाद की स्थिति है.
मैं नीतीश सरकार से निवेदन करूंगा कि वह बिहार में जाति गणना करा ले और अपने प्रिय सवर्णों को उनकी आबादी से कुछ अधिक सीटें नौकरियों में आरक्षित कर दे. मैं इसका समर्थन करूंगा.
मैं अर्से से मांग कर रहा हूं कि जिस तरह पिछड़े वर्गों में क्रीमी लेयर लगा है, वैसे ही सामान्य वर्ग के लिए क्रीमी लेयर लग जाए. अमीर पिछड़े और अमीर सवर्ण सरकारी नौकरियों से बाहर रहें. वे उद्योग-धंधे व बिजनेस-व्यापार करें, उनके पास साधन हैं. क्या नीतीश ऐसा करेंगे?
नीतीश जी, समाज निर्माण के लिए समझ की जरूरत होती है. भारतीय समाज की गतिहीनता के कारणों को समझिए. मनुवादी समाज व्यवस्था का आदर्श है परोपजीविता. जो श्रेष्ठ है, वह परजीवी (पैरासाइट) है. ब्राह्मण व अन्य द्विज (जिसे आप सवर्ण कह रहे हैं) शारीरिक श्रम को हेय समझता है. जो जातियां कृषि व दस्तकारी से जुड़ी हैं, उन्हें ज्ञान हासिल करने की मनाही है. 'न शूद्राय मति दद्यात' शूद्रों को मति मत दो, यह मनुस्मृति का विधान है. बढ़ई, लुहार, कुम्हार जैसी जातियां जो दस्तकारी से जुड़ी हैं, हाल तक शिक्षा से वंचित रही हैं. वे शिक्षित होती तो उनके हुनर में निखार आता. भक्ति आंदोलन के कवियों ने इनके हृदय को आध्यात्मिक ज्ञान से लबालब किया था. इस ज्ञान ने उनकी कारीगरी को परिपक्व किया. इसका नतीजा निकला कि भारत के कारीगरों ने दुनिया भर में धाक जमायी. मुगल काल का गौरव बादशाहों के बूते नहीं, इन कारीगरों के बूते था. आधुनिक जमाने में इन्हीं लोगों को ऊपर उठाने के लिए फुले, आंबेडकर, लोहिया, कर्पूरी ठाकुर जैसे लोगों ने काम किया.
मैं तथाकथित सवर्ण नेताओं से कहना चाहूंगा कि वे सक्षम हैं दुनिया भर का इतिहास समझने में. बदलती हुई दुनिया को समझें. मोची जूते बनायेगा और द्विज (ऊंची जातियां) अफसरी-अध्यापकी करेंगे - अब यह नहीं चलना चाहिए.
मैं चाहता हूं ऊंची जाति की लड़कियों को नर्सिंग सेवा में और दलित लड़कियों को अध्यापन सेवा में लगना चाहिए. सरकार का काम तो गतिशीलता पर जोर देना भर होता है - या होना चाहिए. नेहरू ने अपनी बेटी इंदिरा की पढ़ाई के बारे में रवीन्द्रनाथ टैगोर को पत्र लिखा था. नेहरू चाहते थे उनकी बेटी फैक्ट्री में काम करने लायक बने, तकनीकी शिक्षा पाये. आज जमाना बदल रहा है, तथाकथित द्विज जाति की महिलाएं - जिनका सामाजिक शोषण कुछ मामलों में दलित महिलाओं से भी ज्यादा होता है - बेहतर करने लगी हैं. वे कार्य शुचिता को तोड़ रही हैं. ब्यूटी पार्लर, मैटरनिटी सेंटर खोल रही हैं. कल वे मैकेनिक बन कर काम करें, मेरी इच्छा यह है. बदलते हुए आर्थिक-सामाजिक परिवेश में सवर्णों की जाति कुंठा टूट रही है, वे सवर्ण की जगह सामान्य बन रहे हैं. वे उन रोजगारों से भी जुड़ रहे हैं जिन्हें मनुवादी व्यवस्था में सम्मान प्राप्त नहीं था. दुर्भाग्यवश इसकी रफ्तार कम है. इसे तेज होना चाहिए. मेरा मानना है नीतीश का उच्च जाति आयोग इस प्रक्रिया को रोकेगा.
मैं अपनी आलोचना करने वालों से पूछना चाहूंगा वे अपने इलाके में एक सर्वे करें कि कितनी सवर्ण महिलाएं खेतों में धान रोपती हैं या सड़क पर पत्थर तोड़ती हैं? मैं नीतीश जी से भी पूछना चाहूंगा कि बीपीएल सूची में सवर्णों का प्रतिशत कितना है?
और विद्वान आलोचकों से जानना चाहूंगा कि क्या कबीर, रैदास और तुलसी पर कभी विचार किया है? कबीर चदरिया बुन लेते थे और रैदास जूते गांठ लेते थे. लेकिन तुलसी? वह भीख मांग कर खाते थे. परजीवी थे. इसलिए आप देखेंगे कबीर और रैदास उल्लास के कवि हैं, उनकी कविताओं में हाहाकार नहीं है, आध्यात्मिकता है. कबीर और रैदास न्याय और समानता की बात करते हैं, जीवन के उल्लास को रेखांकित करते हैं. इसके उलट तुलसी की कविताओं में हाय-हाय है. 'बाले ते ललात, बिललात द्वार-द्वार दीन' बचपन से द्वार-द्वार पर बिललाते हैं, ललाते हैं तुलसी. 'मांगि के खायिबो, मसीत में सोइबो' मांग कर खाऊंगा और मस्जिद में सो जाऊंगा. ऐसा दारिद्रय है, तुलसी का. लेकिन यह तुलसी वर्णाश्रम के प्रबल प्रवक्ता भी हैं. वह वर्चस्व की संस्कृति के पोषक हैं, समानता के नहीं. यह है खाते-पीते अद्विज और दरिद्र द्विज के दृष्टिटकोण का अंतर.
अब मेरी पूछिए तो ऐसी समाज व्यवस्था बनाना चाहूंगा कि तुलसी भीख मांगने के बजाय, रैदास की तरह जूता गांठने बैठ जाएं. यह काम मन बनाने से होगा, आयोग बनाने से नहीं. इसी के लिए मेरे जैसे लोग भूमि सुधार और समान शिक्षा पर जोर देते हैं. जमीन और जाति के रिश्ते को तोड़ देना चाहते हैं. कई स्तर के स्कूलों की जगह सभी स्कूलों को समान स्तर का करना चाहते हैं.
धुर मनुवादी ताकतें नीतीश के समर्थन में जुट गयी हैं. उनके पास प्रेस-मीडिया है. प्रोफेसर, वकील, पत्रकार हैं. इनके झूले पर वह झूल रहे हैं. उच्च जातियों के लिए आयोग की सिफारिशें क्या होंगी, मैं नहीं जानता. अभी नीतीश कुमार को भी इंतजार है. लेकिन नीतीश कुमार को इतना तो ज्ञान होना ही चाहिए कि कोई उच्च क्यों है. बीमारों के लिए अस्पताल बनता है नीतीश जी, आप स्वस्थ लोगों के लिए अस्पताल बनाने जा रहे हैं. इतिहास आपके इस बचपने पर केवल तरस खा सकता है.
एआईबीएसफ पुस्तिका-१ नीतीश के सवर्ण आयोग का सच
हिंदी के प्रतिनिधि कथाकार व जदयू के संस्थापक सदस्य प्रेमकुमार मणि बिहार विधान परिषद् के सदस्य हैं. कहानी संग्रह 'खोज और अन्य कहानियां', उपन्यास 'ढलान' के अलावा लेखों का संग्रह 'खूनी खेल के ईद-गिर्द' व 'सच यही नहीं है' प्रकाशित. फोन - ०६१२.२५८२५७३


