राजनीति के कुचक्र में विधवा विलाप
देवेन्द्र कुमार
झारखंड निर्माण में गुरू जी के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त शिबु सोरेन की केन्द्रीय भूमिका से उनके धुर विरोधी भी इंकार नहीं करते। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि शिबू सोरेन की पकड़ झारखंड के कोने- कोने में है। उन्होंने अपनी पूरी जवानी झारखंड के नाम कुर्बान की है। जल-जंगल और जमीन पर झारखंडियों के हक और हकूक, झारखंडी संस्कृति और जनजीवन का केन्द्रीय बिन्दु सामूहिक मल्कियत की अक्षुणता और अभिरक्षा के लिये शिबू सोरेन ने दर -दर की ठोकरें खाईं, अपने जीवन को दांव पर लगाया और अपने पारिवारिक दायित्व की उपेक्षा की। यही कारण है कि झारखंड का इतिहास बगैर शिबू सोरेन को जाने-समझे अधूरा है।
पर झारखंड गठन के बाद से ही इनकी पकड़ ढीली पड़ती गयी, उनकी आभा कमजोर पड़ती गयी। सत्ता में बने रहने की अदम्य लालसा उनके अन्दर हिचकोले खाने लगी। वे अपनी महत्ता, अपनी गुरुता के खुद ही दुश्मन नजर आने लगे। सत्ता में बने रहने के लिये अजीबोगरीब तालमेल बैठाना और हरकतें करना उनकी फितरत बन गयी। संघर्ष से निकले एक राजनीतिज्ञ की आभा उनसे छिटकती गयी।
आज भी समस्त झारखंड के अवचेतन में वह दृश्य अटका हुआ है। जब वाजपेयी सरकार के द्वारा झारखंड गठन की घोषणा कर दी गयी है। झारखंड में अस्थाई सरकार की गठन की बात चल रही है और इधर विजुअल मीडिया में एक दृश्य बार- बार दिखाया जा रहा है कि किस प्रकार तेजहीन-लस्त-पस्त, किंर्कत्वयविमूढ़ शिब सोरेन दिल्ली में वाजपेयी का चरणवंदना कर झारखंड की कुर्सी की आस लगा रहे हैं। यह कहीं से भी शिबू सोरेन जैसे संघर्ष से निकले योद्धा की कद-काठी और सम्मान के विपरीत था। यद्यपि इससे भी झारखंड की कुर्सी तो उन्हे नहीं मिली। पर इस से झारखंडी जनमानस में शिबू सारेन की जो अदम्य साहस, त्याग और संघर्ष की प्रतिमूर्ति बनी थी उसकी क्षरण की शुरुआत तो हो ही गयी।
और यह यहीं नहीं रुका, इसके बाद संसद में राजग खेमे में रहकर शिबू सोरेन ने यूपीए के पक्ष में मतदान किया और इसे सीधा स्वीकार नहीं कर, एक लचर सफाई देने की कोशिश की कि उनींदी अवस्था में रहने के कारण ऐसा हो गया। गोया संसद सोने की जगह हो और जग हँसाई के पात्र बन बैठे।
झारखंड के इसी केन्द्रीय महापुरुष ने लालू और मुलायम के नक्शे कदम पर चलते हुये अपनी राजनीतिक विरासत अपने पुत्र हेमंत को सौंपी। झारखंड की सभ्यता-संस्कृति में समाहित सामुदायिकता और सामूहिकता की केन्द्रीय प्रवृति को तिलांजलि दे दी। शिबू सोरेन से यह पूछा ही जाना चाहिए कि यह कौन सी सामुदायिकता और सामूहिकता की संस्कृति है, जहाँ वंशवाद इतना प्रखर हो नाच रहा है? सामूहिक मल्कियत की देशज् परम्परा और अवधारणा का क्या हुआ ? आदिवासी समाज में वंशवाद की प्रवृत्ति कैसे पनप गयी ? और यह कि आदिवासी संस्कृति का यह अभिन्न हिस्सा है या विजातीय संस्कृति का देन ? और यदि विजातीय संस्कृति की देन तो संघर्ष की आभा से दहकते-दमकते शिबू सोरेन इतने कमजोर कैसे हो गये ? क्या यह माना जा सकता है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा में हेमंत- सी योग्यता किसी के पास नहीं हैं। क्या बरसों- बरस दिसोम गुरु जी के एक इशारे पर अपना सबकुछ निछावर करने वालों की योग्यता या पार्टी के प्रति उनका सर्मपण हेमंत से कमतर था।
यह पूरी दुनिया का एक आजमाया सत्य है कि संघर्ष का अपना चरित्र होता है, जबकि सत्ता की अपनी तहजीब। संघर्ष से निकला नायक जब सत्तासीन होता है तब वह एक नई दुनिया में प्रवेश करता और उसके पुराने तीर-तरकश और मुहाबरे बेअसर होने लगते हैं। और दिसुम गुरु के साथ भी आज यही हो रहा है। वे नये मुहावरों को अपना नहीं पा रहे हैं। बल्कि अपने पुराने जनाधार को भी सिमटाने पर आमादा हैं। आज स्थानीयता को परिभाषित करने के लिये आन्दोलन किये जा रहे हैं। आदिवासी- मूलवासी संगठनों की ओर से रोड- जाम और बन्द आयोजित किये जा रहे है। विशेष राज्य के दर्जे की माँग की जा रही है। विस्थापन के खिलाफ आदिवासी- मूलवासियों के द्वारा अपने आन्दोलन को एक सांगठनिक रूप देने की कोशिश की जा रही है। पूरा राज्य मानव तस्करी का हब बना हुआ है पर दिशोम गुरू इन जनमुद्दों से बेपरवाह सत्ता की जोड़- तोड़ में मशगूल हैं। सच्चाई यह है कि अब गुरु जी का पूरा परिवार राजनीति को विशुद्ध व्यवसाय समझ बैठा है। गुरू जी का संघर्ष अब गुजरे जमाने की दास्तां बन गयी।
...और आज एक बार फिर से गुरु जी का सत्तामोह के कारण झारखंड में बबाल कट रहा है। राज्य सभा चुनाव में झारखंड से दो सदस्यों को भेजा जाना था। इसमें एक सीट के लिये जो यूपीए फोल्डर को मिलना था पर झारखंड मुक्ति मोर्चा दावा कर रहा था। अन्दरखाने मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन की ओर से अपने छोटे भाई बसंत सोरेन यानि गुरू जी के छोटे बेटे का नाम बढ़़ाया भी जा रहा था। परन्तु इस पर कांग्रेस की सहमति नहीं बनी। इस बीच झारखंड मुक्ति मोर्चा के जनक रहे स्व. निर्मल महतो के छोटे भाई और राज्य के उपमुख्यमंत्री रहे सुधीर महतो की ह्दयाघात से मौत हो गयी। राज्य के तमाम दलों के सूरमाओं ने सुधीर महतो के स्वपनों को साकार करने की प्रतिबद्धता दुहरायी। उनकी विधवा सविता महतो के सामने घडि़याली आँसू बहाये। सविता महतो को राज्य सभा भेजे जाने की माँग भी बढ़ी। दूसरे दलों ने भी सविता महतो का नाम एक रणनीति के तहत आगे बढ़ाया। झारखंड में कुरमी जाति की बड़ी आबादी है और झारखंड मुक्ति मोर्चा से इनका परम्परागत जुड़ाव भी है। सुधीर महतो की मृत्यु के ठीक तीसरे ही दिन झारखंड मुक्ति मोर्चा ने सविता महतो को राज्य सभा का उम्मीदवार घोषित कर दिया। झारखंड मुक्ति मोर्चा की रणनीति सुधीर महतो की विधवा सविता महतो को आगे कर घड़याली आँसू बहाने वालों को बेनकाब करना और सहानुभूति मत प्राप्त करना था। पर अचानक सुधीर महतो के नाम पर घड़याली आँसू बहाने वाले झारखंड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी और आजसू के सुदेश महतो ने पाला बदला। राजद प्रमुख लालूप्रसाद यादव ने प्रेमचन्द गुप्ता के नाम पर यूपीए चेयरमैन सोनिया गांधी की सहमति ले ली। अब शिबू सोरेन के पास एक ही रास्ता था या तो सविता महतो के साथ खड़े रह कर हेमंत सोरेन की मुख्यमंत्री की कुर्सी को दांव पर लगाते, विधवा के साथ घड़याली आँसू बहाने वालों को एक्सपोज करते या अपनी कुर्सी की हिफाजत के लिये सविता के नाम को पीछे करते। शिबू सोरेन ने दूसरा रास्ता ही चुना। श्राद्ध क्रिया को बीच में छोड़ छठी के दिन सविता महतो नामांकन करने रांची बुलाया गया। विधवा आँख में आँसू का सैलाब समेटे रांची आई। रांची आने के बाद सविता महतो को यह जानकारी दी गयी कि उनकी उम्मीदवारी वापस ले ली गयी है। रोते-विलखते सविता श्राद्ध क्रिया करने वापस दुमका गयी और इसके बाद बबाल कटने और अपने अपने चेहरे को बचाने का दौर शुरू हुआ। कुरमी जाति से आने वाले विधायकों में से मथुरा महतो, विद्युत वरण महतो, जगन्नाथ महतो ने अपना त्याग पत्र पार्टी प्रमुख को सौंप कर अपनी छवि चमकाने का जुगत बिठा लिया। मंत्री जयप्रकाश पटेल ने भी अपनी नाराजगी जाहिर की। दुमका में आयोजित पार्टी के 35 वें स्थापना समारोह से भी कुर्मी नेताओं ने अपने को दूर रखा। तो इधर कुरमी संगठनों ने झारखंड बन्द का आयोजन कर बबाल काटा। दरअसल कुर्मी जाति से आने वाले नेताओं की कुल जमा फिक्र अपने चेहरे को चमकाने की रही। कुर्मी मतदाताओं में यह सन्देश भर देने की रही कि वे कुर्मी जाति का सम्मान पे आँच नहीं आने देंगे।
सच्चाई यह है कि दरअसल बसंत सोरेन के नाम पर यूपीए फोल्डर में सहमति नहीं बनने पर ही यह साफ हो गया था कि राज्य सभा की सीट झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास नहीं आनी है। सविता महतो के नाम को आगे करना महज विरोधियों को एक्सपोज करने की एक कवायद भर थी। पर यह कवायद तब कारगर होती जब शिबू सारेन हेमंत की कुर्सी दांव पर लगा इसका जोखिम लेते, पर सत्तामोह में आकंठ डुबे गुरु जी से जोखिम लेने की बात सोचना भी दिन में तारे देखना है। दरअसल सविता महतो प्रकरण आज की पूरी राजनीति पर ही सवालिया निशान लगाता है। यह राजनीति की अवसरवादिता, संवेदनहीनता को एक साथ सामने लाता है। और कुरमी जाति से आने वाले विधायिकों के सामने यह यक्षप्रश्न खड़ा करता है कि यदि समाज का मान- सम्मान का इतना ही ख्याल था तो एक गैर झारखंडी प्रेमचन्द गुप्ता को अपना मत क्यों दिया। बात-बात में झारखंड के मान- सम्मान और स्थानीयता की बात करने वाले, डोमीसाइल का तोप लेकर घूमते रहने वाले बन्धु तिर्की से लेकर सुदेश महतो तक ने किस सिन्द्धात को सामने रख गैरझारखंडियों को अपना मत दिया। सच्चाई यह है कि राजनीति एक दुकान है और राजनेता इसके सौदागर। सविता बहन यहाँ रोना मना है, क्योंकि आँसुओं का सौदा करने में इनका जमीर नहीं काँपता।
देवेन्द्र कुमार, लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। मगध विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम.ए., एल एल बी, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई से पत्रकारिता की डिग्री। क्षेत्रीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों, पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर आलेखों का प्रकाशन, बेव मीडिया में सक्रिय व लेखन। छात्र जीवन से ही विभिन्न जनमुद्दों पर सक्रियता। विभिन्न सामाजिक संगठनों सें जुड़ाव।