सशक्तिकरण का हो गया भारतीयकरण
सशक्तिकरण का हो गया भारतीयकरण
जिस दिन पितृ-सत्ता का जन्म हुआ, उसी दिन आधी आबादी मर गयी !
महिला दिवस/मौन की संस्कृति
फिर से एक और महिला दिवस आन पहुँचा ! कमाल हो गया फिर से एक बार और !!
डॉ. अमिता शर्मा तिवारी
किसी का जन्म दिवस होता है तो समझ आता है कि उस दिन उसका जन्म हुआ तो आओ उस दिन पर जश्न हो जाये कि संसार में वो आया और संसार निहाल हो गया !. पर जिस के होने से संसार चले, उसके नाम पर दिवस मनाया जाये तो स्वयं से यह भी पूछ लिया जाये कि आप सृष्टि के आरम्भ, विकास या किस पड़ाव पायदान का दिवस मना रहे हैं?
वैसे, अच्छा ही हुआ कि महिला दिवस चलाने का रिवाज अपने देश में भी चल निकला !. बाहर से आया था रिवाज, तो चलना तो था ही। अपने देश में अपना योग- शास्त्र भी पश्चिम से घूम फिर कर आया और योगा हो गया ! तो देश जागा कि हद हो गयी ! ये तो अपनी धरोहर है, इस पर अपने स्वामित्व का दावा दायर करो ! अपना पेटेंट कराओ भाई लोगों !
पश्चिम में महिला दिवस मनाया गया तो पूर्व को याद आया कि हमारे यहाँ अपने देश में भी तो महिलायें रहती हैं। वो भी देश की नागरिक हैं दूसरे दर्जे की या कौन से दर्जे की। उनका कोई दर्जा है भी कि नहीं इसका तो कभी सोचा ही नहीं गया! भारत ने पहल की, लगे हाथ उनको भी पिछड़ा वर्ग, पिछड़ी जाति-जनजाति के वर्ग में ला कर बिठला दिया, कुछ आरक्षण दे दिया और कहा कि लो हमने भी मैदान मार लिया।
कहा कि बराबरी का अधिकार ले लो पंचायतों में, परिषदों में, संस्थाओं में संस्थानों में कुछ पद पतियों से छिने और उनकी ही पत्नियों को उसी घर में मिल गये, प्रोक्सी की अनगिनत मिसालें ! ये सब सरकारी सर्कस भी हो ली।
हर साल दोहराया कि अपने साथ हो रही असमानता के विरुद्ध वैधानिक लड़ाई लड़ने और जीतने का अधिकार सम्भाल लो !! पर किसी ने यह नहीं बताया कि उसके लिये पैसा आएगा कहाँ से? सम्वैधानिक असमानता के खिलाफ हो या ससुराल के खिलाफ ? जिस घर के खिलाफ लड़ाई चले तो उसी घर में कैसे रहे ? तो रहे कहाँ? दफ्तर में काम मिले नहीं, मिले और शोषण हो तो शिकायत करे तो किस के पास? हर तरफ से दवाब यही कि समझौता कर लो।
एक और नया मुहावरा नारी सशक्तिकरण !! नौकरी मिल गयी, अपने पैरों पर खड़े होने की कयावद हो गयी। अब देखना यह कि यह कमाई भी शक्ति क्यों नहीं दे पाई? अपने आस-पास ऐसे हजारों घर मिलेंगे जहाँ कहानी ये है कि पढ़ लिख गयी हो तो कमाओ पर ला कर ‘मालिक’ के हाथ पर धर दो क्योंकि तुम्हारे पास कमाने का दिमाग हो, तो हो, पर खर्चा करने का विवेक नहीं ही है ! सो सशक्तिकरण का हो गया भारतीयकरण।
असल में समस्या यह भी नहीं है की कौन खर्चा करे? कितना करे? करे या न भी करे ! समस्या है यह कि इसका निर्णय कौन करे कि विवेक या की समझबूझ है क्या ? क्या केवल नर हो जाने से ही कोई सर्वगुण सम्पन्न, सर्व-कलासम्पूर्ण हो गया और कोई नारी हो जाने से ही मतिमारी हो गयी ? पैमाने क्या है ? मेरी समस्या यही है !
वास्तव में यह जो निर्णय लेने की, अपना सिक्का चलाने की चौधराहट पिता, भाई, पति या बेटे ने सम्भाल ली, उसका सबसे ज्यादा खामियाजा किसी को भुगतना पड़ा है, तो वह है स्वयं वही। वही वंचित हुआ है मानव के पद से।
गलत निर्णयों ने ऐसी-ऐसी ग्लानियों से भर दिया कि मुँह छिपाने के लिये कहाँ-कहाँ जाना पड़ा? दुःख आया तो रो नहीं पाया। अहं ने कहा मर्द हो कर रोते हो ? बाल गोपाल पर लाड़ उमड़-उमड़ आया, अहं ने कहा, कैसे मर्द हो बालक के साथ बालक बन रहे हो? नहीं दुलार मत करो ! बच्चा बना तो पिता से लाड़ न ले पाया, पिता बना तो लाल को लाड़ न दे पाया... ऐसा अभागा नर..! अपनी भूल समझ भी आ गयी पर अहं ने कहा स्वीकार न करो, पति हो परमेश्वर हो। परमेश्वर जो करे वही ठीक होता है ! परमेश्वर कभी भूल नहीं करते, हार मत स्वीकारो ! मूँछ नीची न करो।। मर्दानगी पर लानत हो जायेगी ! फल यह हुआ कि नर न हँस पाया, न रो पाया। इंसान हो कर भी पाषाण बन गया। अब ऐसे पत्थर से क्या उम्मीद कि उसका भी दिल धड़क सकता है?
इधर वंश चलाने वाली, पेट भरने वाली दिन रात मरने खपने वाली नारी ने भी अपना मन मार लिया। सारी क्षमताओं को, प्रतिभा, उमंगों, तरंगों को बड़े से सन्दूक में डाला उस पर भारी ताला लगाया धर्म की सील लगाई और चाबी घर के मालिक को थमा दी ! समझ लिया कि पिछले जन्मों के बुरे कर्मों के दण्ड स्वरूप इस जन्म में नारी रूपा होना पड़ा तो अब के कुछ ऐसा हो जाये कि बस मुक्ति ही हो जाये, जन्म-जन्म के आवागमन से छुटकारा ही हो जाये।
दो ही प्राणी एक घर में ! दोनों एक दूसरे से ऐसे उकताए ! ऐसा जीवन कैसा जीवन ? वो तो सजा हो गयी ? जब तक साँस चली, चली ! जी लो अगर साँस चलने को ही जीना कहते हैं, फिर चलो छूट जाओ रोज़-रोज़ की किटकिट से ! घाट पर कपालक्रिया करना न भूलना क्या पता जीवन भर के घुटे प्राण निकलें कि न निकलें ! चिड़ियाघर में भी तो बरसों बरस ज़िन्दगानियाँ साँस लेती ही हैं, बच्चे भी होते हैं और एक दिन साँस चलनी बंद हुयी मिट्टी हटी और उसकी जगह दूसरा मूक प्राणी आ गया, पिंजरे खाली नहीं रखे जाते।
महिला दिवस की बात चलती है तो ध्यान एकदम से सड़क पर चलने वाली किसी महिला की तरफ जाता है अपने घर में दिन रात खटने वाली, चूल्हा चौका करने वाली, ठण्डा गर्म पानी देने वाली, बीमारी में रात रात भर जागने वाली, स्वयं गीले में रह कर सूखे में सुलाने वाली की तरफ नहीं जाता? क्यों? इसलिये कि वो तो गारंटिड है ! उसकी रक्षा करने वाले तो हैं उसे अलग से क़ानून की क्या ज़रूरत ? उसको सब कुछ तो मिलता है अलग से अधिकारों की क्या ज़रूरत ? जब कहीं बाहर जाना है तो साथ ही जाना है तो अलग से पर्स की क्या ज़रूरत ? उसके लिये सोचने वाले हैं उसे अपने बारे में सोचने की क्या ज़रूरत ? मतलब उसे आकाश बेल बना दो, जड़ से वंचित कर दो, ज़िन्दा रहने के लिये आपकी मेहरबानी की तरफ तकती रहे, जब तक आप मेहरबान रहो वो जी ले, जब आप न चाहो वो सूख जाये। फिर कहो हमारे यहाँ तो यत्र नारी पूज्यन्ते का श्लोक चलता है ! हम हैं न ? महिला दिवस की क्या ज़रूरत ?
असल में जिस दिन पितृ-सत्ता का जन्म हुआ, उसी दिन आधी आबादी मर गयी ! नियन्त्रण करने की जो अदम्य प्रवृति नर में पैदा हुयी वो रुकी ही नहीं, बस विस्तृत होती चली गयी। जंगल ज़मीन, जल, जवाहरात पर नियन्त्रण हुआ तो सिलसिला रुका ही नहीं ! चलता चला गया और अधिक और अधिक ज़मीन पर नियन्त्रण, कुनबे पर नियन्त्रण सन्तान पर नियन्त्रण और अंततः जन्मदायिनी पर नियन्त्रण…।।
सालों साल बीते, हालात बदले, पर इस अधिपति ने जो सिंहासन सम्भाला तो सम्भाल ही लिया और वो सम्भाल कर रखा कि सदियाँ हार गईं पर ये न हारा..., राजा राम मोहन राय आये, महात्मा गांधी आए, आचार आए विचार आए, ज्ञान आए-विज्ञान आए, ईलाज आए- उपचार आए, शिक्षा आयी, संस्कार आए, लोकतंत्र आए, गणतन्त्र आए पर सिंहासन पर एकाधिकार वही रहा ……। उस सिंहासन को सांझा नहीं किया तो नहीं ही किया ! जिसने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया उसे चलता किया और चलता किया, और चलता करते ही चले गये।
करते करते आज इक्कीस सदियाँ बीत चली। इस सदी में मानव मूल्यों की स्थापना हुयी, आस बँधी कि मानवमात्र को मानव का पद मिलेगा। जंगल राज समाप्त होगा ! बौद्धिक, मानसिक, आत्मिक और भावात्मक बल की प्रतिष्ठा होगी। पाशविक शारीरिक बल के आधार पर नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों पर आधरित समाज बनेगा और इस समाज में सम्पूर्ण आबादी सम्पूर्ण क्षमता के साथ भरपूर जीवन जी पायेगी। न कम न ज्यादा बस बराबरी का वादा।
पर हुआ क्या ?
बिटिया घर से बाहर निकली,स्कूल गयी पढ़ाई की। सरकारी दस्तावेज़ शिक्षा के प्रतिशत को नारों संग उछालने लगे, लगने लगा कि सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिल गया। लगने लगा कि अब दिल्ली दूर नहीं, लेकिन दिल्ली ने गजब कर दिया, जो कहर ढा दिया उस से समझ आ गया कि किस नारे में कितना दम है? सम्पूर्ण जगती सिहर गयी, अंधियारे से लड़ने मोमबतियों के जूलूस निकले, लेकिन उनको थामने वाली कलाईयाँ कमज़ोर साबित हुयी। न्याय अभी भी वहीं ठहरा है वहीं थमा है। दिल्ली में नर पशुओं को कोई सज़ा न मिली तो देश के बाकी हिस्से को निश्चिन्तता हो गयी। अब कोई क्यूं पीछे रहे ? प्रतिस्पर्धा जारी है... पता नहीं, कब कहाँ–कहाँ, किस-किस निर्भया की बारी है ?
लेकिन बीते साल में एक ऐसा परिवर्तन भी आया है। जो समाज को झिंझोड़ने का भागीरथी पुण्यकर्म कर गया है! वो यह कि मौन के स्वर मुखरित हुये हैं । मौन की संस्कृति टूटी है मौन के संस्कार दफन हुये हैं यहाँ खड़ा हो गया है एक मील का पत्थर ! अब यहाँ से एक मोड़ मुड़ने की आस करने को जी चाहने लगा है।
बड़े बड़े चेहरों से नकाबें उतरने लगी हैं। बड़े बड़े तख्तों के भार के नीचे, तहखानों में जो चीत्कारें दबा दी जाया करती थी, उनको शब्द, सम्पादकीय मिलने लगे हैं, शिकार हो गयी पीड़िता को अब तक अपराधी के कटघरे में खड़ा किया जाता था अब उसे सहानुभूति मिलने लगी है। वह बाहर आयी है बिना किसी अपराध बोध के, जैसे कह रही हो-सर नीचा अब तुम करो! लुटेरे तुम हो ! अपराधी तुम हो, मैं नहीं !! ...और असली अपराधी पहुँचने लगे हैं असली अपेक्षित ठिकानों पर, सदाचार स्पष्टता सत्ता न्यायवादिता और धार्मिकता के नकाब उतरे हैं, समाज ने देखी हैं घिनौनी लेकिन सच्ची तस्वीरें। सोच में एक मील का पत्थर जुड़ा है। एक किरन का सा उजासा दिखने लगा है।
अब सारी बाजी आयी है, आँखों पर पट्टी बाँधे हाथ में तराजू लिये खड़ी उस मूक मूर्ति के हाथ, जो अब तक डरी- डरी सी सहमति सी रही है। पलड़ों को झुकते देखती रही है और मूक बधिर बनी रही है। देखना अब बाकी यह है कि वहाँ से कौन से शब्द फूटते हैं? कौन कहाँ जुड़ते हैं कौन कहाँ छूटते हैं?
देखें अगला महिला दिवस किस बात पर लेखनी चला पायेगा? क्या किरण की, फूल- तितली की कहानी लिखेगा? या फिर से किसी अभिशप्त अस्थिकलश पर फूल चढ़ायेगा ?????????????????


