50 डिग्री सेल्सियस तक जा रहा है तापमान

आदमखोर हो गयी है गर्मी

गर्मी प्रचंड है – इतनी प्रचंड कि कहीं ट्रेक्टर के बोनट पर रोटियाँ सेंकने तो कहीं रेत में पापड़ भूने जाने की खबरें आ रही हैं। तापमान हाफ सेंचुरी के एकदम नजदीक पहुँच गया है। मनुष्य का शरीर 37-38 डिग्री तक का तापमान सह सकता है मगर गर्मी है कि अनेक जगहों पर 47 से 49 तक पहुँच चुकी है। मुमकिन है कहीं 50 डिग्री सेल्सियस को छू भी लिया हो।

मेडिकल जर्नल लैंसेट के मुताबिक अगर बाहरी तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाए तो मांसपेशियां जवाब देने लगती हैं। जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण अंगों के काम करना बंद करने से लेकर हार्ट अटैक जैसी समस्याएं हो सकती हैं। इस तरह देखें तो गर्मी जानलेवा हो चली है; आदमखोर हो गयी है। यह अचानक नहीं हुआ है; इस साल की शुरुआत में ही चेतावनी आ चुकी थी कि 2024 सबसे गर्म वर्ष होने जा रहा है। इसके पीछे प्रशांत महासागर की ऊपरी सतह को उबाल देने वाले अल नीनो का कितना प्रभाव है, समन्दर के नीचे की ठंडी लहरों को सहेज संभालने वाली ला नीना की कितनी असफलता है, इस सबकी मौसम वैज्ञानिक समीक्षा कर रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन (Climate change in Hindi) – ग्लोबल वार्मिंग (Global warming in Hindi) – आने वाले दिनों में और कितना कहर ढहाने वाले हैं इस पर कई मोटी मोटी रिपोर्ट्स आयेंगी, चिंता की लकीरें थोड़ी गहरी हो जायेंगी और फिर बारिश आने के बाद सारी चिंता दूर हुयी मान ली जायेगी।

इन पंक्तियों का मकसद पृथ्वी और उस पर रहने वाले प्राणियों के अस्तित्व के लिए संकट बन गए जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदार मुनाफे की हवस में मदमाती दुष्ट पूँजी के पापी इरादे उजागर करना नहीं है।

जेनेवा में हुए तीन वैश्विक सम्मेलनों से लेकर रिओ, बर्लिन, कोपेनहेगेन से होते हुए क्योटो प्रोटोकोल तक हुई कोशिशों में अमरीका सहित उसके लगुए भगुए धनी देशों के समूह ने जो पलीता लगाया है वह सामान्य जानकारी रखने वाला भी जानने लगा है।
ये पंक्तियाँ उन भोले भाले, सीधे सादे मनुष्यों के लिए हैं जो पृथ्वी के साथ जघन्य अपराध करने वालों के प्रायोजित प्रचार के झांसे में आ जाते हैं और खुद को ही दोषी मानते हुए आत्मधिक्कार करते-करते कुछ दिखावटी समाधानों से हल निकालने का मुगालता पाल लेते हैं। ये भले लोग वे हैं जिन्हें तापमान के 40 डिग्री पहुँचते ही हर नागरिक को कमसेकम एक पेड़ लगाने की हिदायत देने की याद आती है। पेड़ लगाना अच्छी बात है, जरूरी है, ऐसा किया जाना चाहिए – मगर इसे ही एकमात्र तरीका मान लेना कुछ ज्यादा ही भोलापन है। ऐसा करना वनों, जंगलों, पेड़ों का विनाश करके उसे विकास बताने वालों की धूर्तता पर पर्दा डालना है। और यह काम आम आदमी नहीं कर रहा है – पूँजी पिशाच और उस बेताल को बिना कोई सवाल जवाब किये अपने कंधे पर ढो रही सरकारें कर रही हैं। किस विनाशकारी तेजी और ध्वंसकारी गति से कर रही हैं इसे चंद तथ्यों से समझा जा सकता है।
खाद्य एवं कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization in Hindi एफएओ) के मुताबिक़ वर्ष 2015 से 20 के बीच भारत में प्रति वर्ष 6 लाख 68 हजार हेक्टेयर वनों का विनाश किया गया। यह दुनिया में दूसरे नम्बर का वन-विनाश था। लगभग इसी दौर में 4 लाख 14 हजार हेक्टेयर ऐसे प्राकृतिक वनों, जो बारिश के लिए जलवायु तैयार करते थे, को रौंद दिया गया। इन्हें अब कभी दोबारा उगाया नहीं जा सकता। इनके अलावा पिछले दो दशकों में दो करोड़ 33 लाख हेक्टेयर वृक्ष आच्छादित क्षेत्र उजाड़ दिए गए; इनमे लगे सभी पेड़ उखाड़ दिए गए। कुल मिलाकर यह भारत की कुल वृक्ष आच्छादित भूमि का 18% होता है। एक और रिपोर्ट के हिसाब से पिछले तीसेक वर्षों में कोई 14 हजार वर्ग किलोमीटर वनों को माइनिंग, बिजली और डिफेन्स की परियोजनाओं के लिए लिया गया है।

हाल तक इस बारे में कुछ प्रावधान हुआ करते थे। पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए, भले दिखावे की ही सही, भले कागजों पर ही सही कुछ शर्तें, कुछ बाध्यताएं हुआ करती थीं। हालांकि इनके अमल की स्थिति क्या थी इसे समझने के लिए एक ही उदाहरण काफी है।

मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में महान विद्युत परियोजना और कोल ब्लॉक्स के नाम पर एस्सार (अब अडानी) और अम्बानी ने जो संयंत्र लगाए या जो खुदाई की गई, की जानी थी, उससे इस अत्यंत घने और पुराने जंगल में करोड़ों पेड़ का जंगल उजाड़ हुआ। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए सघन वृक्षारोपण किये जाने का जिम्मा इन्ही कंपनियों का था। इसमें किस तरह का मजाक और धांधलियां की गयीं परियोजनाओं में काटे गए कोई 20 लाख वृक्षों की क्षतिपूर्ति के लिए इन कंपनियों से इतने ही पेड़ लगाने के अमल में किये गए कांड से समझा जा सकता है। जब एक्शन टेकन रिपोर्ट माँगी गयी तो इन कंपनियों ने दावा किया कि उन्होंने सिंगरौली से कोई साढ़े चार सौ किलोमीटर दूर सागर और दमोह में पौधे लगा दिए हैं। बिना सागर या दमोह जाए, बिना उस वृक्षारोपण को देखे ही सरकारों ने भक्त-भाव के साथ उनके इस हास्यास्पद दावे को मान लिया। यह स्थिति सिर्फ महान परियोजना की नहीं है बाकियों के मामले में भी उतनी ही सच है। ऐसे अनेक उदाहरण है जिनमें बिना किसी अपवाद के पुनर्वनीकरण के सारे प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई गयी।

इस तरह के क्रूर मजाकों में सरकारें भी पीछे नहीं रहीं।

5 जुलाई 2017 को मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार द्वारा महज 12 घंटे में लगाए गए 6 करोड़ वृक्षों के पौधारोपण की उपलब्धि का एलान कर दिया गया। पूरी दुनिया में इस असाधारण वृक्षारोपण की गूँज हुयी थी। लेकिन जुलाई 2018 में जब इनका सरसरी ऑडिट किया गया तो पता चला कि उनमे से एक प्रतिशत भी सलामत नहीं बचे है। ऐसा ही एक करिश्मा उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने एक दिन में 5 करोड़ पौधे लगाने का किया। पुनर्वनीकरण (अफॉरेस्टेशन) के प्रति सत्तासीनों की गंभीरता की हालत यह है कि उसके लिए जो फण्ड आवंटित किया गया था उसका सिर्फ 6 प्रतिशत हुआ।

मोदी राज के आते ही इन रही सही खानापूर्तियों को भी समाप्त कर दिया गया। वर्ष 2015 में मोदी सरकार के मंत्री प्रकाश जावडेकर ने वन और पर्यावरण विभाग की पूर्व-अनुमतियों को “देश” के विकास में बाधक बताया और उनकी बाध्यता को सम्पात ही कर दिया गया। बड़े-बड़े और कई बार अनुपयोगी हाईवे – सुपर एक्सप्रेस हाईवे – एक्स्ट्रा सुपर एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर किये विनाश को विकास बताया गया। जल-जंगल जमीन से जुड़े सारे क़ानून ताक पर रखकर कार्पोरेट्स को वन भूमियाँ थमा दी गयी। नतीजा यह निकला कि जंगल नेस्तनाबूद कर दिए, नदियाँ सुखा दीं, धरती खोदकर रख दी, सिर्फ आदिवासियों और परम्परागत वनवासियों को ही नहीं पशुपक्षियों को भी उनके घरों से बेदखल कर दिया, पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) मटियामेट करके रख दी।

बर्बादी कितनी भयावह है इसे देखने के लिए लैटिन अमरीका या नाईजीरिया या कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। जिसे देश की ऊर्जा राजधानी कहा जाता है उस सिंगरौली के बगल में रेणूकूट नाम की जगह है, उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में पड़ती है, वहां से सड़क मार्ग से यात्रा शुरू कीजिये और सिंगरोली, सीधी, उमरिया, शहडोल, अनूपपुर से गुजरते हुए छत्तीसगढ़ के कोरिया, सरगुजा क्रॉस करते हुए कोरबा तक पहुंचिये। अंदर मत जाइये – सड़क-सड़क ही चलिए और सच्चाई अपनी नंगी आँखों से देख लीजिये। अपने कठपुतली शासकों के लिए ऐशोआराम और चुनाव जीतने के साधन भर मुहैया करके कारपोरेट ने हजारों वर्ष पुराने जंगल, लाखों करोड़ों वर्ष पुरानी पहाड़ियों सहित सब कुछ उधेड़ कर रख दिया है। आज भी यही सिलसिला जारी है – कुछ ज्यादा ही तेजी से जारी है।

पूँजी की पहली को बूझने और उसके कालू जादू को भेदने वाले मार्क्स 1848 में ही कह गए थे कि पूँजी पिशाच मुनाफे के लिए न सिर्फ देशों की सीमायें लांघेंगे, मानवीय संबंधों को लाभ हानि के बर्फीले पानी मे डुबाकर, सारे रिश्तों को रुपया पैसा में बदल देंगे , बल्कि प्रकृति का भी इतना भयानक दोहन करेंगे कि पृथ्वी का अस्तित्व तक खतरे में पड़ जायेगा। वही हो रहा है दिनदहाड़े, खुले खजाने। भारी होती हुई तिजोरियों के बोझ से दम घुट रहा है धरती का - गला सूख रहा है प्रकृति का। इसलिए तप रहे हैं सूरज – इसलिए धधक रही है सड़कें – भभक रहे हैं घर !!

इस विकास के नाम पर आये इस सर्वनाश के सांड को पूँछ से नहीं सींग से पकड़ना होगा। आत्मधिक्कार करने और एक पेड़ लगाकर उसका परिष्कार करने की सदिच्छा से काम नहीं चलेगा; जंगल और पृथ्वी और उसकी मनुष्यता कैसे बचाई जा सकती है यह चार साल से बस्तर के सिलगेर सहित बीसियों स्थानों पर भूमि के अडानीकरण के विरुद्ध धरने पर बैठे आदिवासियों से, हसदेव का जंगल बचाने के लिए डटे नागरिकों ने उदाहरण सहित समझाया है। पेड़ लगाना ठीक है मगर असली समाधान पेड़, वन. जंगल की तबाही के खिलाफ, इस तरह विनाश को विकास बताने वाली सरकारों और उनकी नीतियों के खिलाफ लड़कर ही निकलेगा।

बादल सरोज

सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा

The environmental hypocrisy of catching the bull by the tail