सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के प्रेत हमारे देश पर मंडरा रहे हैं
सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के प्रेत हमारे देश पर मंडरा रहे हैं
सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के प्रेत हमारे देश पर मंडरा रहे हैं
सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के प्रेत
इसमें जाहिर है कि रत्तीभर संयोग नहीं है कि जबरन ‘‘भारत माता की जय’’ बुलवाने की मुहिम जल्दी ही, ऐसी जय बोलने से इंकार करने वालों के हजारों, लाखों की संख्या में सिर कलम करने की सार्वजनिक धमकियों तक पहुंच गयी है। पिछले हफ्ते हरियाणा में रोहतक में एक सार्वजनिक सभा में बोलते हुए, बाबा रामदेव ने भारत माता की जय बोलने से इंकार करने वालों को धमकाते हुए कहा कि अगर देश के कानून ने हाथ नहीं बांध रखे होते, तो इस बात पर हजारों-लाखों सिर कलम कर दिए जाते! यह भी संयोग नहीं है कि भाजपा की हरियाणा सरकार ने इस कथित योग-गुरु को बाकायदा इस राज्य का ब्रांड एंबेसेडर घोषित कर रखा है। रामदेव की सामूहिक कत्लेआम की उक्त धमकी से एक रोज पहले ही महाराष्ट्र की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री, देवेंद्र फडनवीस ने यह एलान किया था कि भारत माता की जय न बोलने वालों के लिए इस देश में कोई जगह नहीं है। इस पर शोर मचने के बाद भी, सफाई देने के नाम पर उन्होंने अपनी इसी बात को बार-बार दोहराया। इससे पहले संघ के विभिन्न बाजुओं के और भाजपा के अनेक छोटे-बड़े नेता, अपने-अपने तरीके से यही बात कह चुके थे। इसमें भारत माता की जय बोलने से इंकार के ठीक इसी ‘जुर्म’ के लिए फडनवीस के राज में ही महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा लगभग एक स्वर से, विधायक वारिस खान पठान का पूरे सत्र के लिए विधानसभा से निलंबित किया जाना भी शामिल है।
वास्तव में अपनी देशभक्ति के सबूत के रूप में सबसे ‘‘भारत माता की जय’’ बुलवाने के तकाजों के मौजूदा चक्र की शुरूआत, जेएनयू प्रकरण के ‘सबक’ के रूप में आरएसएस के मुखिया, मोहन भागवत के इसका एलान करने के साथ हुई थी कि अब लोगों को भारत माता की जय बोलना सिखाने का वक्त आ गया है! हालांकि, अपनी इस पुकार पर भाजपा समेत संघ परिवार में उमड़े अति-उत्साह के मोदी सरकार की वैधता के लिए खतरों को भांपकर, खुद मोहन भागवत ने ज्यादा नुकसान होने से पहले ही यह साफ करना जरूरी समझा था कि उनका आशय किसी से जोर-जबर्दस्ती से ‘‘भारत माता की जय’’ बुलवाने से नहीं बल्कि भारत का गौरव इतना बढ़ाने से था कि सारी दुनिया खुद यह जय बोलने के लिए प्रेरित हो जाए।
बहरहाल, तब तक संघ परिवार के विभिन्न बाजुओं तक यह मूल संदेश पहुंच चुका था कि खुद बोलने से बढक़र ‘‘भारत माता की जय’’ बुलवाना, बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद का एक नया धारदार पहचान-चिन्ह है। बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद को मंजूर न करने वाले सभी लोगों को, जिनमें जाहिर है कि अल्पसंख्यक तो हैं ही, हर प्रकार के धर्मनिरपेक्ष विचार के लोग भी शामिल हैं, इस पहचान-चिन्ह के जरिए राष्ट्र के लिए ‘दूसरा’ या कम से कम संदिग्ध निष्ठïावाला तो बनाया ही जा सकता है। राष्ट्र में निष्ठा है तो साबित कर के दिखाएं यानी भारत माता का जैकारा लगाएं!
यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह लगभग सामने के दरवाजे से एक धर्मनिरपेक्ष देश पर, बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को थोपने की ही कोशिश है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए उसी तिकड़म का सहारा लिया जा रहा है, जिसकी ओर स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री ने पचास बरस से ज्यादा पहले ही इशारा कर दिया था। जवाहरलाल नेहरू ने आगाह किया था कि हमारे देश में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता या बहुसंख्यकवाद को, आसानी राष्ट्रवाद के नाम पर चलाया जा सकता है। ‘‘भारत माता की जय’’ बुलवाने का तकाजा सिर्फ और सिर्फ इसी मर्ज की दवा है।
ब्रिटिश-साम्राज्यवादविरोधी राष्ट्रवाद के गर्भ से ही जन्मी थी ‘‘भारत माता’’ की अवधारणा
बेशक, भारत माता की जय का नारा, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान चलन में आया था। लेकिन, यह इस आंदोलन के दौरान चलन में आए अनेक नारों में एक था, एकमात्र नारा नहीं। इसी दौर में उभरकर आए अन्य नारों में वंदे मातरम से लेकर जयहिंद और इंकलाब जिंदाबाद तक शामिल हैं, जो उससे ज्यादा ही लोकप्रिय रहे होंगे, उससे कम नहीं। वैसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘भारत माता’’ के रूप में, माता के रूप में राष्ट्र की कल्पना अपने आप में, भारत में ब्रिटिश हुकूमत तथा योरपीय प्रभाव की मौजूदगी और उनके विरोध की धारा के साथ ही आयी थी और इस लिहाज से ब्रिटिश-साम्राज्यवादविरोधी राष्ट्रवाद के गर्भ से ही जन्मी थी। इस राष्ट्रवाद के सर्वसमावेशी, धर्मनिरपेक्ष आधार ने ही, समय के साथ ऐसे प्रतीकों को आगे बढ़ाया जो इस धर्मनिरपेक्ष मूल प्रतिज्ञा के अनुरूप थे और ऐसे प्रतीक हाशिए पर पड़ गए, जो इस मूल प्रतिज्ञा को पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं करते थे। सभी भारतवासियों को समान अधिकार देने वाला, जनतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष संविधान, तिरंगा झंडा और जन गण मन का राष्ट्रगान, इसी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए अपनाए गए।
बेशक, यह विकास भी कोई बिना संघर्ष के नहीं हुआ था। राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में भी गैर-समावेशी तथा सांप्रदायिक धाराएं भी मौजूद थीं, जो इन सभी का विरोध करती थीं। लेकिन, ये धाराएं या तो आरएसएस की तरह राष्ट्रीय आंदोलन से अलग और वास्तव में उसके खिलाफ ही बनी रही थीं या फिर साम्राज्यवादविरोधी राष्ट्रवादी धारा की समावेशी मूल प्रतिज्ञाओं को निष्प्रभावी करने में असमर्थ थीं। नतीजा यह हुआ कि खासतौर पर आरएसएस के नेतृत्व में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की ताकतों ने हमारे वर्तमान संविधान, राष्ट्र ध्वज, राष्ट्र गान, सब का उनके अपनाए जाने के समय उग्र विरोध किया था। वे मनुस्मृति को संविधान, केसरिया ध्वज को राष्ट्र ध्वज और वंदे मातरम को राष्ट्र गान बनाने के पक्षधर रहे थे। बेशक, एक धर्मनिरपेक्ष संविधान पर आधारित जनतांत्रिक व्यवस्था के दायरे में सत्ता तक पहुंचने की राजनीतिक मजबूरियों के चलते, वक्त गुजरने के साथ संघ परिवार तथा खासतौर पर उसके राजनीतिक बाजुओं को, स्वतंत्र भारत के स्वीकृत राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति अपना विरोध छुपाना-दबाना पड़ा है। फिर भी, इन प्रतीकों से उनके नाराजगी की सुगबुगाहट बनी ही रही है। जैसे ठीक इसी का सबूत पेश करते हुए, आरएसएस के नेतृत्व में भागवत के बाद दूसरे नंबर ही माने जाने वाले, संघ के महासचिव भैयाजी जोशी ने पिछले ही दिनों खुलकर यह बात कही कि तिरंगा और जन गण मन तो बस संवैधानिक प्रतीक हैं (जिन्हें मजबूरी में पूजना पड़ रहा है) वर्ना भारतीय राष्ट्र के असली निशान तो केसरिया ध्वज और वंदे मातरम हैं।
बाद में आरएसएस की ओर से एम जी वैद्य की सफाई में भी सिर्फ इतना ही कहा गया कि जोशी ने मौजूदा राष्ट्र गान तथा राष्ट्र ध्वज को बदलने की बात नहीं कही थी और वे दोनों ध्वजों और दोनों राष्ट्र गानों का आदर करने के पक्ष में हैं!
धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारत पर, राष्ट्र की एक सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी परिकल्पना थोपना, बेशक आसान नहीं है। लेकिन, मोदी के राज में इसकी कोशिशों में ऐसी तेजी आयी, जिसकी एनडीए के ही पिछले राज में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। व्यवस्था के धर्मनिरपेक्ष आचरण को ही लगातार कमजोर नहीं किया जा रहा है, जैसाकि समांतर राष्ट्र गान तथा राष्ट्र ध्वज को ‘असली’ के रूप में स्थापित किए जाने की कोशिशों से स्पष्टï है, धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के प्रतीकों को ही गैर-धर्मनिरपेक्ष प्रतीकों से बदलने की कोशिश की जा रही है। याद रहे कि बंकिमचंद्र की कविता पर आधारित ‘वंदे मातरम’ को पहले ही सांप्रदायिक विभाजन केे औजार में तब्दील किया जा चुका था। खासतौर पर स्वतंत्र भारत में गढ़े गए, ‘‘भारत में गर रहना होगा, वंदे मातरम कहना होगा’’ जैसे नारे इसी का सबूत हैं। अब हम ‘‘भारत माता की जय’’ को भी सांप्रदायिक विभाजन के ऐसे ही और धारदार हथियार के तौर पर स्थापित किए जाने का खेल देख रहे हैं। जैसे-जैसे मोदी सरकार से जनता का मोहभंग होता जा रहा है और उसकी चौतरफा विफलताओं पर जनता की नाराजगी बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे सांप्रदायिक विभाजन तथा बहुसंख्यकवादी ध्रुवीकरण का यह खेल तेज से तेज होता जा रहा है। इसीलिए, यह भी कोई संयोग नहीं था कि हरियाणा में रोहतक में जिस आयोजन में बाबा रामदेव ने लाखों सिर कलम करने की धमकी दी थी, आरएसएस द्वारा आयोजित ‘सद्भाव सम्मेलन’ था, जिसकी जरूरत ‘जाट आरक्षण आंदोलन’ के संदर्भ में सामने आयी, हरियाणा की भाजपा सरकार की घोर विफलता को ढ़ांपने के लिए पड़ी थी। आम नागरिकों की जान-माल की रक्षा करने के अपने न्यूनतम दायित्व को पूरा करने में भी पूरी तरह से विफल रही, भाजपायी सरकार से जनता की नाराजगी को भटकाने के लिए, उसे सांप्रदायिक रास्ते पर धकेलने का खेल खेला जा रहा था।
सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के प्रेत हमारे देश पर मंडरा रहे हैं। इन्हें अगर रोका नहीं गया तो मोदी राज को बचाने के लिए ये देश में जगह-जगह हरियाणा करा सकते हैं।


