विचारधारा के लबादे में राजनैतिक एजेंडा
राम पुनियानी
चुनावी राजनीति उन कई रास्तों में से केवल एक है जिनका इस्तेमाल निहित स्वार्थी तत्व अपने राजनीतिक एजेण्डे को लागू करने के लिए करते हैं। लोगों के दिमागों पर कब्जा करना, उनकी सोच बदलना और किसी विशिष्ट विचारधारा का प्राधान्य स्थापित करना, वे अन्य तरीके हैं, जिनके रास्ते राजनैतिक एजेण्डे की नींव रखी जाती है और उसे लागू किया जाता है। यही कारण है कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन और इतिहास के सांप्रदायिक संस्करण का पठन-पाठन, कई दक्षिण एशियाई देशों की संप्रदायवादी राष्ट्रवादी शक्तियों की रणनीति का हिस्सा है। पाकिस्तान में सांप्रदायिक तत्व कहते हैं कि पाकिस्तान की नींव, आठवीं सदी में सिंध पर मोहम्मद बिन कासिम की विजय के साथ रखी गई थी। हम जानते हैं कि राजाओं के साम्राज्यों और आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के बीच अंतर को इस तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता परंतु जब सांप्रदायिक ताकतों के हाथों में सत्ता होती है तब किसी भी चीज को तोड़-मरोड़ कर इस ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है कि लोगों के दिमागों में गलत धारणाएं घर कर जावें। यही कारण है कि एन.डी.ए. के पिछले शासनकाल (1999-2004) में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में इस तरह के परिवर्तन किए गए थे जिनसे गुजरे जमाने को सांप्रदायिक चश्मे से देखा-दिखाया जा सके। इस बार, भाजपा ने पूर्ण बहुमत से अपनी सरकार बनाई है और शिक्षा के क्षेत्र में जिस तरह के परिवर्तनों की योजना बनाई जा रही है, वह पहले से भी अधिक खतरनाक है।
प्रोफेसर वाय. सुदर्शन राव को भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। प्रोफेसर राव, इतिहास के क्षेत्र में किसी विशेष अकादमिक उपलब्धि के लिए नहीं जाने जाते हैं। वे मुख्यतः रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की ऐतिहासिकता सिद्ध करने की परियोजनाओं में व्यस्त रहे हैं। अपने साथी विद्वानों द्वारा अपने शोधपत्रों की आलोचना/विश्लेषण करवाने की बजाए वे अपने तर्क मुख्यतः ब्लॉगों के जरिए प्रस्तुत करते रहे हैं। और इन ब्लॉगों पर उनका लेखन, उनके विचारधारात्मक झुकाव को परिलक्षित करता है। यद्यपि वे यह दावा करते हैं कि आरएसएस से उनका कोई लेनादेना नहीं है तथापि उनके लेखन में हिन्दू राष्ट्र का एजेण्डा स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। वे हिन्दुओं के प्राचीन इतिहास और जाति व्यवस्था का महिमामंडन करते हैं और भारतीय समाज की सारी बुराईयों के लिए ‘विदेशी’ मुस्लिम शासकों को दोषी ठहराते हैं। उनके अनुसार, ‘‘भारतीय समाज में व्याप्त जिन सामाजिक रस्मों-रिवाजों पर अंग्रेजीदां भारतीय बुद्धिजीवियों और पश्चिमी विद्वानों ने प्रश्न उठाए हैं, उन सभी की जड़ें उत्तर भारत में लगभग सात शताब्दियों तक चले मुस्लिम शासन में खोजी जा सकती हैं।’’ उनका तर्क है कि ‘‘प्राचीनकाल में (जाति) व्यवस्था सुचारू रूप से काम कर रही थी और इससे किसी को कोई शिकायत नहीं थी।’’
अगर प्रोफेसर राव ने अछूत प्रथा, जाति व्यवस्था और उन अन्य सामाजिक कुरीतियों का तार्किक अध्ययन किया होता, जिन्हें भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रणेताओं ने निंदनीय करार दिया था, तो उन्हें यह समझ में आता कि जातिप्रथा के कुप्रभाव का कारण मुस्लिम बादशाह नहीं बल्कि हिन्दू धर्मग्रंथ हैं, जो तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को प्रतिबिम्बित करते हैं। शनैः शनैः सामाजिक श्रम विभाजन, जातिप्रथा में परिवर्तित हो गया जिसमें व्यक्ति की जाति, उसके कर्म नहीं वरन् उसके जन्म से निर्धारित होने लगी। हिन्दू समाज में ऊँच-नीच और शुद्धता-अशुद्धता की अवधारणाएं, मुस्लिम शासनकाल के बहुत पहले से विद्यमान थीं।
मुस्लिम राजाओं ने जातिप्रथा की सामाजिक व्यवस्था से कोई छेड़छाड़ नहीं की। वैसे भी, यह उनका लक्ष्य नहीं था। उल्टे, मुस्लिम समुदाय, जाति व्यवस्था की चपेट में आ गया और मुसलमान अनेक जातियों, उपजातियों में बंट गए। जहां पाकिस्तान के सांप्रदायिक इतिहासविद्, अविभाजित भारत में हिन्दू धर्म व हिन्दुओं के अस्तित्व से ही इंकार करते हैं वहीं भारत के सांप्रदायिक तत्व, भारतीय समाज की सभी कुप्रथाओं के लिए ‘बाहरी’ प्रभाव को दोषी ठहराते हैं। इसी तर्ज पर आईसीएचआर के नए मुखिया, जातिप्रथा की बुराईयों के लिए बाहरी कारक (मुस्लिम शासन) को दोषी ठहरा रहे हैं। प्रोफेसर राव के काल्पनिक इतिहास में अप्रिय प्रसंगों पर पर्दा डाल दिया जाता है और ऐसा चित्र खींचा जाता है मानो सभी बुराईयों के लिए मुस्लिम राजा जिम्मेदार हों। वे यह भूल जाते हैं कि मुस्लिम राजाओं ने भारत की सामाजिक व्यवस्था को जस का तस स्वीकार कर लिया था और उनकी प्रशासनिक मशीनरी में हिन्दू व मुसलमान दोनों शामिल थे। औरंगजेब के दरबारियों में से एक-तिहाई से भी अधिक हिंदू थे। अपनी संकीर्ण विचारधारा के पिंजरे में बंद प्रोफेसर साहब चाहते हैं कि हम यह भूल जाएं कि जाति व्यवस्था और दमनकारी लैंगिक ऊँच-नीच को मनुस्मृति में औचित्यपूर्ण ठहराया गया है और यह पुस्तक, भारत में मुस्लिम शासन प्रारंभ होने के 1000 वर्ष पहले लिखी गई थी।
ऋग्वेद और मनुस्मृति में कई जगह यह कहा गया है कि नीची जातियों के लोगों के लिए ऊँची जातियों के व्यक्तियों के नजदीक आना भी प्रतिबंधित था और उन्हें गांवों के बाहर बसाया जाता था। निःसंदेह, इसका यह अर्थ नहीं है कि ऋग्वैदिक काल में कठोर जाति व्यवस्था अस्तित्व में आ चुकी थी, जिसके अंतर्गत समाज को विभिन्न वर्णों में विभाजित किया जाता है। यह व्यवस्था मनुस्मृति के काल और उसके बाद भारतीय समाज में मजबूती से स्थापित हुई।
‘वजस्नेही संहिता‘ (जिसकी रचना 10वीं सदी ईसा पूर्व के आसपास हुई थी) में चांडाल और पालकसा शब्दों का प्रयोग है। ‘छान्दोग्योपनिषद‘ (8वीं सदी ईसा पूर्व) में स्पष्ट कहा गया है ‘‘जिन लोगों के कर्म निम्न हैं वे जल्दी ही कुत्ता या चांडाल बनकर पैदा होंगे‘‘ (छान्दोग्योपनिषद 5, 10.7)।
भारत में मुस्लिम आक्रांताओं की पहली लहर 11वीं सदी में आई और यूरोपवासियों ने भारत में 17वीं-18वीं सदी में कब्जा करना शुरू किया। इसके सैकड़ों वर्ष पहले से शूद्रों को समाज से बाहर माना जाता था और ‘उच्च‘ जातियों के सदस्यों के उनके साथ खानपान या वैवाहिक संबंधों पर प्रतिबंध था। जाति व्यवस्था को कायम रखने के लिए शुद्धता-अशुद्धता की अवधारणाओं को सख्ती से लागू किया जाता था। शूद्रों को अछूत माना जाता था और इसी कठोर सामाजिक विभाजन का वर्णन, मनु के ‘मानव धर्मशास्त्र‘ में है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर, वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे। ‘‘वह हिन्दू सामाजिक व्यवस्था की उन तथाकथित कमियों में से एक नहीं है जो हमें हमारे प्राचीन गौरव को पुनः हासिल करने से रोक रही है‘‘ (एमएस गोलवलकर, ‘व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड‘, भारत पब्लिकेशन्स, नागपुर, 1939, पृष्ठ 63)। इसी बात को बाद में उन्होंने दूसरे शब्दों में कहा, ‘अगर कोई विकसित समाज यह समझ जाए कि समाज में अलग-अलग वर्ग, वैज्ञानिक सामाजिक ढांचे के कारण हैं और वे समाज रूपी शरीर के विभिन्न अंगों की तरह हैं, तो यह विभिन्नता कोई कलंक नहीं रह जाती‘ (‘आर्गनाईजर‘, 1 दिसंबर 1952, पृष्ठ 7)। संघ परिवार के एक अन्य प्रमुख विचारक दीनदयाल उपाध्याय फरमाते हैं ‘चार वर्णों की हमारी अवधारणा यह है कि हम विभिन्न वर्णों को विराट पुरूष के विभिन्न अंग मानते हैं...ये अंग न केवल एक दूसरे के पूरक हैं वरन उनमें एकता भी है। उनके हित और उनकी पहचान एक है...अगर इस विचार को जीवित नहीं रखा गया तो जातियां एक-दूसरे की पूरक बनने की बजाए टकराव का कारण बन जाएंगी। परंतु यह एक विरूपण होगा‘ (डी उपाध्याय, ‘इंटीग्रल ह्यूमेनिज्म‘, भारतीय जनसंघ, नई दिल्ली, 1965, पृष्ठ 43)।
जाति व्यवस्था और अछूत प्रथा के उन्मूलन के संबंध में अंबेडकर और गोलवलकर के विचार, संघ परिवार की असली मानसिकता को उजागर करते हैं। अंबेडकर, मनुस्मृति को जाति व्यवस्था का पोषक मानते थे और उन्होंने एक आंदोलन शुरू किया था जिसके अंतर्गत इस पुस्तक को सार्वजनिक रूप से जलाया जाता था, जबकि गोलवलकर, मनु और उनकी संहिता का महिमामंडन करते हैं।
जहां तक इस तर्क का प्रश्न है कि ‘‘(जाति) व्यवस्था सुचारू रूप से काम कर थी और इससे किसी को कोई शिकायत नहीं थी’’ इस हद तक सही है कि उच्च जातियों को इससे कोई शिकायत नहीं थी क्योंकि इससे उनका हित साधन होता था। नीची जातियां इस दमनकारी और अमानवीय व्यवस्था की शिकार थीं। यह भी सही है कि जाति व्यवस्था के प्रति किसी व्यक्ति या वर्ग के असंतोष व्यक्त करने का कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। चूंकि नीची जातियों को पढ़ने-लिखने का हक ही नहीं था अतः उनके द्वारा उनके असंतोष को दर्ज करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। बुद्ध के समय से जाति व्यवस्था का विरोध शुरू हुआ। बल्कि बौद्ध धर्म ही जातिगत ऊँच-नीच के विरूद्ध एक आंदोलन था। कबीर और उनके जैसे अन्य मध्यकालीन संतों ने नीची जातियों की आह को वाणी दी और यह बताया कि किस तरह वे जाति व्यवस्था के लाभार्थियों के हाथों दुःख भोग रहे हैं। और ठीक इन्हीं लाभार्थी जातियों की वकालत प्रोफेसर राव कर रहे हैं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में जो परिवर्तन किए गए हैं उनसे यह स्पष्ट है कि आने वाले समय में हमें अपने भूतकाल और जातिगत व लैंगिक ऊँचनीच को किस तरह से देखने पर मजबूर किया जाएगा।(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay, and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved with human rights activities from last two decades.He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and ANHAD.