सामाजिक न्याय की हिस्सेदारी का पूरा धंधा अब एक मुस्लिम विरोधी रुख अख्तियार कर चुका है
सामाजिक न्याय की हिस्सेदारी का पूरा धंधा अब एक मुस्लिम विरोधी रुख अख्तियार कर चुका है
सामाजिक न्याय की हिस्सेदारी का पूरा धंधा अब एक मुस्लिम विरोधी रुख अख्तियार कर चुका है
The entire business of the share of social justice has now become a anti-Muslim stance.
पिछले एक दशक से दलितों में एक नए ट्रेंड का विकास देखा जा सकता है जो बाबरी मस्जिद की जगह कभी गौतम बुद्ध की मूर्ति लगाने की माँग करता है तो कभी इस संदर्भ में अदालतों में PIL दायर करता है। भाजपा की दलित सांसद सावित्रीबाई फुले का ताजा बयान या सुप्रीम कोर्ट में दायर एक PIL इसके ताजा उदाहरण हैं। वहीं दलितों के एक प्रगतिशील और radical समझे जाने वाले तबके में बाबरी मस्जिद की जगह स्कूल, अस्पताल बनवाने की माँग एक fantacy का रूप ले चुका है। मसलन कुछ महीनों पहले लखनऊ में आयोजित एक सम्मेलन में एक दलित छात्र नेत्री ने बाबरी की जगह यूनिवर्सिटी बनाने की बात कर दी। हालांकि अपने संबोधन में वरिष्ठ पत्रकार Anil Chamadia ने इसे न्यायविरोधी तर्क बता कर ख़ारिज कर दिया।
"कांशीराम" ने की थी इस साम्प्रदायिक fantasy की शुरुआत
"Kanshiram" had started this "communal fantasy"
हालांकि इस साम्प्रदायिक fantasy की शुरूआत कांशीराम ने की थी जिन्होंने कई बार बाबरी मस्जिद की जगह शौचालय बनवाने की बात की थी। इस ट्रेंड के मूल में अगर झांका जाए तो स्पष्ट तौर पर यह दलित राजनीतिक विमर्श के पूरी तरह से हिस्सेदारी पर ही केंद्रित हो जाने का परिणाम लगता है। जिसके पीछे 'हज़ारों सालों से प्रताड़ित' होने की चेतना है, जिसे अब दलित राजनीति एक product की तरह बेचने लगी है और जिसका अपना एक market भी बन चुका है। अगर ग़ौर से देखा जाये तो इस market में खरीद और बिक्री की भाषा और उसकी तार्किकता के मुस्लिम विरोधी स्वर आसानी से सुने जा सकते हैं।
सतही तौर पर लग सकता है कि ये मानसिकता किसी भी जगह एक गुमटी खोल लेने के लिए तैयार है और उसे बस उसका हिस्सा चाहिए, भले उसका कोई अधिकार उस पर न हो। लेकिन गहराई में जाकर देखिए तो आप पाएंगे कि उसकी हिस्सेदारी की दावेदारी सिर्फ मुसलमानों की मिल्कियत में ही है। ये चेतना उसे बाबरी मस्जिद की जगह बौद्ध स्तूप की अन्याययोचित मांग के लिए तो प्रेरित करता है जिसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है लेकिन उसे कभी भी आप पूरी के जगन्नाथ मंदिर पर दावेदारी करते आप नहीं देखेंगे जिसे खुद विवेकानंद ने बौद्ध मठ करार दिया है जिस पर ब्राह्मणवादियों ने कब्ज़ा किया हुआ है।
मायावती की मुस्लिम विरोधी शरारत
Mayawati's anti-Muslim mischief
इसी तरह आप इन दलितवादियों को गोरखपुर के गोरखनाथ मठ पर भी दावेदारी करते हुए नहीं सुनेंगे, जिस पर पिछले डेढ़ सौ सालों से राजपूतों ने कब्जा किया हुआ है, जबकि अपने मूल में ये दलित और श्रमिक जातियों के ब्राह्मणवाद विरोधी सास्कृतिक चेतना के उत्सर्ग का केंद्र रहा है, क्योंकि खुद गोरक्षनाथ दलित जाति से आते थे। लेकिन इसके उलट आप मायावती को मुस्लिम पहचान वाले शहरों के नामों को बदलकर दलित संतों के नाम पर करने की मुस्लिम विरोधी शरारत आप देख चुके हैं।
दरअसल, हिस्सेदारी का यह पूरा धंधा अब एक "मुस्लिम विरोधी" रुख अख्तियार कर चुका है जिससे मुसलमानों को चौकन्ना रहना होगा क्योंकि ये पूरी प्रक्रिया अपने byproduct के तौर पर एक मजबूत मुस्लिम विरोधी पैदल सेना तैयार कर रही है जो गांव और कस्बों में मुसलमानों की लिंचिंग "Lynching of the Muslims" कर रहा है। पहलू खान जैसे लोगों की हत्या में शामिल लोगों की जाति देख लीजिए, इस प्रक्रिया की भयावहता समझ में आ जायेगी।
वहीं इस मानसिकता ने खुद दलितों को भी बीच मझधार में छोड़ दिया है। उसका पढ़ा लिखा तबका हिस्सेदारी को लेकर itna obsessed है कि उसे रोहित वेमुला या dalit atrocity privention act में संशोधन से नाराजगी तो है लेकिन वो 2019 के चुनाव में भाजपा से मायावती के गठजोड़ की स्थिति में भी उसे बृहद भागीदारी के नज़रिए से सही बताने के तर्क देने लगा है।
"दलित राजनीति" अपनी सुविधा के हिसाब से "सेक्युलर" या मुस्लिम विरोधी हो जाएगी
इसी तरह राम दास अठावले कह रहे हैं कि वो 19 में उसके साथ जाएंगे जिसकी हवा होगी। यानी दलित राजनीति अपनी सुविधा के हिसाब से सेक्युलर या मुस्लिम विरोधी होने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखना चाहती है। ऐसे में अगर कोई उसपर सवाल उठाए तो उसका एक ही पेटेंट जवाब होता है कि उनका तो हजारों साल से शोषण होता रहा है इसलिए उन पर सवाल मत उठाइये। इसलिए मुसलमानों को ऐसे दलितवादियों से ना सिर्फ चौकन्ने रहने की ज़रूरत है बल्कि हिंदुत्व के इस fifth column को कमज़ोर करने की रणनीति भी बनानी पड़ेगी।
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