सामाजिक सरोकारों से बहुत ही दूर हो गया है मीडिया
सामाजिक सरोकारों से बहुत ही दूर हो गया है मीडिया
शैलेन्द्र चौहान
अभी हाल ही में दिल्ली विधान सभा चुनावों में लक्षित रुझान को लेकर तथा आम आदमी पार्टी की अकल्पनीय बढ़त को लेकर जब मेरी टिप्पणी अखबारों में प्रकाशित हुयी तो अनेकों फ़ोन आये। प्रथम दृष्टया तो पाठकों को यह लगा कि नीति, समर्पण और सहजता की जीत हुयी है जिसे उन्होंने मेरे साथ शेयर किया। लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि आधिकांश पाठकों ने मुझे आम आदमी पार्टी का सदस्य मान लिया और मुझसे उनके आप से जुड़ने की इच्छा जाहिर की। अब मुझे दुविधा हुयी कि क्या मैंने अपनी टिप्पणी में कोई आग्रह रखा है जो मुझे आप का सदस्य मान लिया गया।
दर असल दो वर्ष पूर्व जब अन्ना का राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल लेने का आन्दोलन चला था तो केजरीवाल एक जमीनी संघर्ष के जीते जागते प्रतिनिधि बनकर उस मंच पर प्रकट हुये। बाद को उस आन्दोलन को दुर्गति का शिकार होना पड़ा, लोग निराश हुये और उससे जुड़े लोगों की विश्वसनीयता कम हुयी। अन्ना और केजरीवाल के बीच अन्तर्विरोध परिलक्षित हुये। केजरीवाल ने जब राजनीतिक दल बनाने की घोषणा कर दी तो मैंने भी उन्हें अन्य कई लोगों की तरह सत्ता की चाहत और महत्वाकाँक्षा का प्रतीक मान लिया। मैं चुनाव होने के पहले तक केजरीवाल को एक अवसरवादी व्यक्ति के रूप में देख रहा था। सब ऑटोरिक्शाओं के पीछे उनके झाड़ू के पोस्टर कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के भ्रष्टाचार से सीधे सीधे मुखातिब होते थे। कई बार उनकी भाषा इतनी इतनी तीखी और लट्ठमार होती थी कि लगता था कि चुनाव आयोग को इस बात पर आपत्ति लेनी चाहिए। बहरहाल ज्यों-ज्यों चुनाव नजदीक आते गये केजरीवाल का प्रभाव भी नजर आने लगा, उनकी कार्यशैली और जनप्रतिबद्धता भी दिखने लगी। जब चुनाव परिणाम आये तो उनकी ताकत भी दिखी। तो आप और केजरीवाल की इस जीत के पीछे की की स्थितियों का आकलन विश्लेशन सभी मीडियाकर्मी कर रहे थे मैंने भी समाचार पत्रों के माध्यम से अपनी राय रखी और लोगों ने मुझे आप का सदस्य मान लिया।
खैर, आज के जमाने में भी ऐसे प्राणी/तत्व/चारण पाए जाते हैं, जो शासक वर्ग का गुणगान करने में अपनी सारी उर्जा लगा देते हैं। यूँ तो राजे-रजवाड़ों का जमाना अब नहीं रहा और उनके बदले में भारत सहित अधिकांश देशों (कुछ देशों को छोड़कर) प्रजातन्त्र आ गया। लोगों ने अपने मतों का प्रयोग करके नेताओं को गद्दी सौंपी और वे राज्य के नए मालिक हो गये। वे ही राजा बन बैठे। जनता को अपनी प्रजा और रिआया मान बैठे। मनमानी पर उतर आये। नित नए भ्रष्ट आचरण व ऐशो ऐयाशी में संलग्न हो गये। अब न उन्हें जनता के हितों की फिक्र है और न ही कोई सरोकार। और तो और अपनी वंशवाद कि बेल बढाने के लिये वे अथक प्रयत्न करते नजर आते हैं। कोई भी राजनीतिक दल हो उसका प्रमुख नेता इसका अपवाद नहीं है। पाँच बरस के बाद, वोट माँगने जब उन्हें हर दरवाजे पर दस्तक देनी होती है तो वे तरह-तरह के आश्वाशन और प्रलोभन देते हैं, बहाने बनाते हैं और फिर अपने पुराने कार्यों की दुहाई देते हैं जो नितान्त असत्य पर ही आधारित होते हैं। सारे नेता कॉर्पोरेट मीडिया के सामने नतमस्तक हैं। अब वही उनका भगवान है। वैसे भी पूँजीवाद में असली शासक तो पूँजीपति ही होता है। बहुत से नेता अब पूँजीपतियों की श्रेणी में ही हैं और कुछ पूँजीपति नेता हो गये हैं। यह जुगलबंदी मजे से चल रही है तब जनता की बात कौन करे? विकासशील देशों में मीडिया की भूमिका विकास एवम् सामाजिक मुद्दों से अलग हटकर हो ही नहीं सकती पर भारत में मीडिया इसके विपरीत भूमिका में आ चुका है मीडिया की प्राथमिकताओं में अब शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, विस्थापन जैसे मुद्दे रह ही नहीं गये हैं। उत्पादक, उत्पाद और उपभोक्ता के इस दौर में खबरों को भी उत्पाद बना दिया गया है, जो बिक सकेगा, वही खबर है।
दूसरी ओर
अगर हम इतिहास में झाँकें तो पायेंगे कि सामाजिक समस्याओं, तत्कालीन राजनीति और जनजागरण को समर्पित साहित्यिक पत्रकारों का योगदान बहुमूल्य रहा है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैली क्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी बात रखनी थी। तब तक हिन्दी में रुचि रखने वाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिन्दी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आन्दोलन कुछ पीछे रह गये और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानंद मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुये न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं।
बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिये अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। वामन विष्णु पराडकर पत्रकारिता के पितामह माने जाते हैं। राहुल बारपुते, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर का आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। चूँकि आज की पत्रकारिता सिर्फ समाचार पत्रों तक ही सीमित नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रूप में उसका विकास हुआ है। उसका प्रभाव क्षेत्र बढ़ा है। अब उसकी विश्वसनीयता की भी परीक्षा होगी। जन विश्वास उससे यह अपेक्षा करता है कि उसकी भूमिका विकास एवम् सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ जनता के दुःख तकलीफों और उसकी समस्यायों के प्रति सहानुभूतिपरक हो, संघर्षशील हो ताकि उसकी विश्वसनीयता कायम रह सके।


