21 जून को हिन्ढी के वरिष्ठ जनवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र हमारे बीच नहीं रहे। आज सुबह 8 बजे बल्लभविद्यानगर(गुजरात) में मार्क्सवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र का अंतिम संस्कार किया गया। हिन्दीजगत उनके निधन से बेहद दुखी और मर्माहत है। वरिष्ठ जनवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र को जन संस्कृति मंच सहित कई संगठनों व बुद्धजीवियों ने श्रद्धांजलि अर्पित की है।

डॉ. शिव कुमार मिश्र का जन्म कानपुर में 2 फरवरी, 1931 को हुआ था। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से एम.ए.,पी.एच.डी., डी.लिट. की तथा आगरा विश्वविद्यालय से लॉ की डिग्री प्राप्त की थी। उन्होंने 1959 से 1977 तक सागर विश्वविद्यालय में हिन्दी के व्याख्याता तथा प्रवाचक के पद पर कार्य किया। 1977 से 1991 तक वे सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर (गुजरात) के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर तथा अध्यक्ष रहे। शिवकुमार मिश्र एक अच्छे वक्ता थे और साहित्यप्रेमियों के साथ साथ विद्यार्थियों में भी काफी लोकप्रिय थे।

कोलकाता विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी ने बताया कि डॉ. मिश्र ने यू.जी.सी. की वितीय सहायता से दो वृहत् शोध परियोजनाओं पर सफलतापूर्वक कार्य किया। उनके 30 वर्षों के शोध निर्देशन मे लगभग 25 छात्रों ने पी.एच.डी. की उपाधि हासिल की। डॉ. मिश्र को उनकी मशहूर किताब, ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन’ पर 1975 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला। भारत सरकार की सांस्कृतिक आदान-प्रदान योजना के तहत 1990 में उन्होंने सोवियत यूनियन का दो सप्ताह का भ्रमण किया।

मिश्र जी ने जनवादी लेखक संघ के गठन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, आपात्काल के अनुभव के बाद अलग संगठन बनाने का एक विचारधारात्मक आग्रह सबसे पहले उन की तरफ़ से आया था। वे उसके संस्थापक सदस्य थे, वे जयपुर सम्मेलन में 1992 में जलेस के महासचिव और पटना सम्मेलन (सितम्बर 2003) में जलेस के अध्यक्ष चुने गये और तब से अब तक वे उसी पद पर अपनी नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहे थे। अपने जीवन के अंतिम क्षण तक वे अपनी वैचारिक प्रतिद्धता पर अडिग रहे। वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के इस समय भी सदस्य थे।

मिश्र जी हिंदी के शीर्षस्थ आलोचकों में से एक थे। उनकी पुस्तकों में से प्रमुख हैं- नया हिंदी काव्य, आधुनिक कविता और युग सन्दर्भ, प्रगतिवाद, मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन: इतिहास तथा सिद्धान्त, यथार्थवाद, प्रेमचन्द: विरासत का सवाल, दर्शन साहित्य और समाज, भक्तिकाव्य और लोक जीवन, आलोचना के प्रगतिशील आयाम, साहित्य और सामाजिक सन्दर्भ, मार्क्सवाद देवमूर्तियाँ नहीं गढ़ता आदि। उन्होंने इफको नाम की कोऑपरेटिव सेक्टर कम्पनी के लिये दो काव्य संकलनों के सम्पादन का भी शोधपूर्ण कार्य किया। पहला संकलन था : आजादी की अग्निशिखाएं और दूसरा, संतवाणी ।

पिछले एक दशक से जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक और प्राध्यापक डॉ. शिव कुमार मिश्र के निधन पर जन संस्कृति मंच ने हार्दिक शोक संवेदना व्यक्त की है। जसम ने कहा है कि प्रगतिशील जनवादी साहित्य और वैचारिकी पर चौतरफा हमले के दौर में पिछले दो दशक में उन्होंने जनवादी लेखक संघ की कमान संभाल रखी थी। 2003 में जलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये जाने से पहले 1992 से लेकर 2003 तक वे जलेस के राष्ट्रीय महासचिव भी रहे।

कानपुर में 2 फरवरी, 1931 को जन्मे प्रो. शिवकुमार मिश्र करीब दो सप्ताह से बीमार थे। उन्हें साँस लेने में तकलीफ थी। सरदार पटेल के गाँव करमसद के एक अस्पताल में उनका इलाज हो रहा था, जो गुजरात के वल्लभ विद्यानगर के पास है, जहाँ उनके जीवन का लम्बा समय गुजरा। तबियत अधिक खराब होने पर उन्हें अहमदाबाद ले जाया गया था, जहाँ उन्होंने आखिरी सांसें लीं। आपात्काल के बाद जिन लोगों ने नये सिरे से साहित्यकारों को संगठित करने की जरूरत महसूस करते हुये जलेस का निर्माण किया था, शिवकुमार मिश्र उनमें से एक थे। आज जबकि पूरे देश में ही एक तरह से अघोषित आपातकाल जारी है और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले आन्दोलनकारियों और साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों पर शासकवर्ग निरन्तर हमले कर रहा है, जब चौतरफा राजनीतिक अवसरवाद जारी है, तब उसके खिलाफ प्रगतिशील-जनवादी रचनाकारों और बुद्धिजीवियों द्वारा व्यापक एकता बनाते हुये संघर्ष करना ही शिवकुमार मिश्र जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

जसम ने कहा है कि इस लड़ाई में परम्परा से हरसम्भव मदद लेनी होगी, जो कि खुद शिवकुमार मिश्र के आलोचनात्मक लेखन की पहचान रही है। नयी पीढ़ी की रचनाशीलता के साथ संवाद बनाये रखने और हिन्दी की प्रगतिशील-जनवादी कविता के साथ अपने आलोचक की गहरी अन्तरंगता के लिये भी उन्हें याद रखा जायेगा। खासकर नागार्जुन की कई कविताएं हमेशा उनकी जुबान पर रहती थीं।

अपने वक्तव्य में जसम ने कहा है कि साहित्य के सत्ता केन्द्र दिल्ली से शिवकुमार मिश्र की प्रायः दूरी ही बनी रही। 1976 में उनकी पुस्तक ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन: इतिहास तथा सिद्धांत’ पर उन्हें सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार मिला था। साहित्य चिंतन की यह एकमात्र किताब है, जिस पर किसी को यह पुरस्कार मिला। उनकी प्रसिद्ध आलोचनात्मक कृतियों में ‘नया हिंदी काव्य’, ‘यथार्थवाद’, ‘प्रगतिवाद’ , ‘प्रेमचंद: विरासत का सवाल’, ‘रामचंद्र शुक्ल और आलोचना की दूसरी परंपरा’, ‘दर्शन, साहित्य और समाज’, ‘साहित्य और सामाजिक संदर्भ, ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन: इतिहास और सिद्धांत’, ‘भक्ति काव्य और लोकजीवन’, ‘मार्क्सवाद देवमूर्तियां नहीं गढ़ता’ आदि मुख्य हैं। शिवकुमार मिश्र जी को जन संस्कृति मंच की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि!

उधर लखनऊ में ‘जनचेतना’ और ‘प्रत्यूष’ सांस्कृतिक मंच की बैठक में हिन्दी के वरिष्ठ मार्क्सवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र को श्रद्धांजलि दी गयी।

श्री मिश्र को याद करते हुये कवयित्री कात्यायनी ने कहा कि हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना को विकसित और समृद्ध करने में उनका यागेदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। वे आजीवन मार्क्सवादी विचारधारा पर अडिग रहे और निजी जीवन में भी समझौतों से दूर रहते हुये साहित्य के क्षेत्र में एक संगठनकर्ता की भूमिका निभायी। ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन का इतिहास और सिद्धांत’, ‘यथार्थवाद’, ‘प्रगतिवाद’, ‘दर्शन, साहित्य और समाज’, ‘रामचंद्र शुक्ल और आलोचना की दूसरी परंपरा’, ‘साहित्य और सामाजिक संदर्भ’ जैसी पुस्तकों में उनकी प्रखर मार्क्सवादी दृष्टि स्पष्ट दिखायी देती है। भक्ति काव्य और लोकजीवन और प्रेमचंद की विरासत पर उनकी महत्वपूर्ण कृति अपनी परम्परा के प्रति सही वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मिसाल हैं।

प्रत्यूष की ओर से सत्यम ने कहा कि आज जब प्रगतिशील विचारों और संस्कृति पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं और वामपंथी साहित्य का आन्दोलन एक ठहराव और बिखराव का शिकार है, ऐसे में प्रो. शिवकुमार मिश्र जैसे दृष्टिवान और प्रतिबद्ध आलोचक का जाना हमारे लिये एक बड़ा धक्का है। हिन्दी के युवा लेखकों और आलोचकों को उनकी रचनाओं से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।

बैठक में श्री मिश्र को श्रद्धांजलि देते हुये उनकी कृति ‘प्रेमचन्दः विरासत का सवाल’ के एक अंश का पाठ किया गया। इस अवसर पर संजय श्रीवास्तव, रामबाबू, शाकम्भरी, गीतिका, सौरभ बनर्जी, लालचन्द्र, आशीष कुमार सिंह, वन्दना, अमेन्द्र कुमार, सत्येन्द्र, शिवा, शिप्रा श्रीवास्तव, शर्मिष्ठा आदि उपस्थित थे।