पलाश विश्वास

हमारे मित्र वरिष्ठ पत्रकार जगमोहन फुटेला कैंसर को पराजित करने के बाद फिर मोर्चे पर जमे हुये थे कि ब्रेन स्ट्रोक की वजह से पिछले छह अगस्त को फिर अस्पताल में भर्ती हो गये। तब से उनके पोर्टल जर्नलिस्ट कम्युनिटी का अपडेट नहीं हुआ है। बीच में लाइंस सस्पेंडेड जैसी सूचना भी आने लगी थी। राहत की बात है कि आज से फिर जर्नलिस्ट नेट पर मौजूद है। अभी फुटेला फिट हो जायें तो फिर अपडेट भी होंगे। मुझे ज्यादा तकलीफ इसलिये हो रही है कि मेरे वे तमाम मंतव्य जो अन्यत्र नहीं लगते, जर्नलिस्ट पर लग जाते रहे हैं। जर्नलिस्ट के ब्लैक आउट हो जाने पर मेरी भी ब्लैकआउट दशा है।

इस स्थिति पर ख्याल आया कि हमारे सोशल मीडिया के तमाम जो पोर्टल हैं, उसमें आपातकालीन बन्दोबस्त भी होना चाहिए। यशवंत जेल में थे तो थोड़े बहुत व्यवधान के बावजूद उस कठिन समय में भी भड़ास अपडेट होता रहा है। अभी मालूम नहीं क्यों मोहल्ला लाइव और रविवार के अपडेट इतने ढीले हैं। वक्त बहुत खराब है। हमें अपनी मौजूदगी दर्ज करने के सारे उपाय करने ही होंगे। फुटेला स्वस्थ हों तो उनसे भी बात होगी।

यह विडम्बना है कि पुटेला का घर किछा में है जो मेरे गाँव बसंतीपुर से बमुश्किल 16 किमी दूर है। हम लोगों का लम्बा साथ रहा है। वे चंडीगढ़ के होकर रह गये तो कोलकाता में बाइस साल काट देने के बाद भी मैं कहीं नहीं हूँ। उनके मोबाइल पर रिंग हो नहीं रहा है। फेसबुक पर जाहिर तरीके से वे मौजूद हैं नहीं। बच्चों से हम मिल ही नहीं पाये। इसलिये कोई सम्पर्क हो नहीं पा रहा। भड़ास में खबर नहीं होती तो हमें उनके बीमार होने का पता ही नहीं चलता। भड़ास में फिर उनका हालचाल नहीं आया। न अन्यत्र कहीं।

मीडिया दरबार के ग्रोवर साहब ने हालाँकि कई दिनों पहले आश्वस्त किया कि फुटेला अब खतरे से बाहर हैं। जल्दी ठीक हो जायेंगे। चंडीगढ़ और दिल्ली के पत्रकारों से सम्पर्क अरसे से कटा हुआ है। हम एकदम असहाय और बेचैन हैं कि अपने प्रिय मित्र की इस वक्त क्या हालत है। जिन्हें मालूम है वे मुझे फोन पर 09903717833 पर रिंग करके बताने का कष्ट करें तो आभारी रहूँगा।

आज मैंने अपने तमाम ब्लॉगों पर भड़ास का पूरा पेज लगाया है यशवंत से पूछे बगैर। उनके लड़ाकू तेवर से उम्मीद है कि वे मुझे न कोर्ट में घसीटेंगे और न डिलीट करने का फतवा जारी करेंगे।

बेलगाम काली पूँजी, विदेशी पूँजी की घुसपैठ ने हम मीडिया वालों को गुलामों से बदतर हालत में डाल दिया है। यहाँ टके सेर भाजी टके सेर खाजा की अँधेरनगरी है अब। पक्की नौकरी तो रही नहीं हैं जिनकी हैं, उनका वेतनमान मांधातायुगीन है। मजीठिया लागू होने की अब कोई उम्मीद नहीं है। लागू हुआ तो किस कैटेगरी में डालेंगे और एरियर मिलेगा या नहीं और तब तक कितने और रिटायर हो जायेंगे, कोई ठिकाना नहीं है।

भड़ास खोलते ही मीडिया में अँधी भगदड़ के मुखातिब होना होता है। अँधकूप में होने के बावजूद शुक्र है कि हमें इस तरह भागना नहीं पड़ा और नौकरी के सिवाय बाकी सब हम मजे में कर पा रहे हैं।

इसके विपरीत देश भर में साथी मीडियाकर्मी का वजूद ही खतरे में हैं और सारे देव देवियाँ मूक वधिर है। जिनका सबसे ग्लेमरस प्रोफाइल रहा है, वे थोक पैमाने पर लतियाये जा रहे हैं। जिस तेजी से छँटनी हो रही है, वह पत्रकारिता को अभिशाप में तब्दील कर रही है।

पता नहीं आधार कार्ड बाँटकर नागरिक सुविधाएं बहाल करने वाली यूनियनें और सस्ती दारू पिलाने वाले, उपहारों का प्रबन्धन करने वाले तमाम प्रेस क्लब इस बारे में क्या कर रहे हैं।

अगर जो सुरक्षित महसूस करते हैं और अपने वातानुकूलित दड़बे में बैठकर दूसरों पर आयी आफत का मजा ले रहे हैं, वे अगर कम से कम य़शवंत की तरह मुखर नहीं हुये तो दिग्गजों को भी सड़कों पर आना पड़ सकता है।

सिंहद्वार पर दस्तक बहुत तेज है, जाग सको तो जाग जाओ, भइये!