स्त्रियां कभी नहीं हारतीं। हालात बदलने हैं तो पुरुषतंत्र के तमाम किलों और मठों पर गोलाबारी सबसे जरूरी है।
पलाश विश्वास
आज का रोजनामचा आनंतमूर्ति जी की स्मृति में।
आज का रोजनामचा इरोम शर्मिला के जीवट को सलाम।
आज का रोजनामचा रंगकर्मी शंभू मित्र और तृप्ति मित्र को याद करते हुए। इस 22 अगस्त को शंभू मित्र सौ के हो गये।
तृप्ति के बिना शंभू अधूरे हैं, इसलिए शंभू के साथ तृप्ति को भी शतवार्षिक प्रणाम।
इन्हीं शंभू मित्र को बांग्ला भद्रसमाज ने रंगकर्म के लिए मंच से बेदखल किया था कभी। लेकिन आज चर्चा का यह विषय नहीं है। सिर्फ इतना कि तृप्ति के सान्निध्य से जैसे शंभू का कृतित्व व्यक्तित्व है वैसे ही बुनियादी तौर पर हर मनुष्य लेकिन अर्ध नारीश्वर है और यह लोक मान्यता भी है। जिसे हम सिरे से भूल रहे हैं।
अनंत मूर्ति जी की भी शायद ज्यादा चर्चा न कर सकूं, जैसे मैं शमशेर बहादुर सिंह की चर्चा नहीं कर सकता। महाश्वेतादी और नवारुणदा उन्हें बहुत सम्मान देते थे, इतनी सी निजी स्मृति है।
इरोम शर्मिला की फिर गिरफ्तारी से जाहिर है कि इस मुक्तबाजारी मृत्यु उपत्यका में न्याय प्रणाली, कानून के राज और लोकतंत्र की दशा दिशा क्या है।
अभी हमारे युवा पत्रकार साथी मोदी विकास कामसूत्र में इस कदर निष्णात हैं कि वे सोवियतसंघ, चीन से लेकर क्यूबा के साम्यवादी शासन को बड़े जोर-शोर से सैन्य शासन बताने से अघा नहीं रहे हैं। बंगाल में वाम कैडरतंत्र के वाम राजकाज की तस्वीरें भी कुछ इसी तरह की बनीं।
ऐसे आधुनिक पत्रकार, अर्थशास्त्री, विद्वतजन आदिवासियों का सफाया विकास के लिए जितना जरूरी मानते हैं उतना ही जरूरी मानते हैं राष्ट्र का सैन्यीकरण, लोकतंत्र का अवसान और अंततः सैन्यशासन। उन्हें न नाजियों से परहेज है और न फासीवाद का डर।
वे हर हाल में हिंदू राष्ट्र चाहते हैं इस डिजिटल देश में नागरिक और मानवोधिकारों को तिलांजलि देकर क्योंकि वे प्रकृति और पर्यावरण की नीलामी के पक्षधर हैं और जनपक्षधर हर आवाज उनके नजरिये से राष्ट्रद्रोह है। उनके लिए सोनी सोरी और इरोम शर्मिला का दमन बेहद जरूरी है। न्यायपालिका पर अंकुश भी उतना ही जरूरी है। कारपोरेट लाबिइंग का राजकाज और वैश्विक इशारे उनके लिए सर्वोत्कृष्ट दिशानिर्देश हैं और वे सिरे से स्त्री विरोधी हैं।
रोज नयी गिरफ्तारियां।सारे उज्जवल चेहरों का नक्षत्र समावेश फर्जीवाड़े में। खेलकूद से लेकर मीडिया और दुर्गापूजा तक में चिटफंड। पक्ष विपक्ष के नेता, मंत्री, सांसद सारे के सारे चिटफंड के मुलाजिम और इस पर पीपीपी फंडा गुजराती।
मुक्तबाजार में लोक और जनपदों का साझा चूल्हा तहस नहस है और माइक्रोओवन चिमनियों का प्रदूषण सर्वत्र। घर, समाज और पूरा देश अब शापिंग माल है जहां क्रयशक्ति के अलावा कोई अस्मिता नहीं, अस्तित्व नहीं।
भरत में स्त्रियों ने अपने भोगे हुए यथार्थ के मुताबिक इस अंतिम सत्य को सबसे पहले, सबसे बेहतर समझा है और इस मुक्त बाजार में वजूद की लड़ाई में स्त्रियां मर्दों से हजारों हजार मील आगे हैं। अपनी संतानों के ताजा स्टेटस के फर्क पर गौर करें तो यह सच बेनकाब होगा।
स्त्री की सत्यनिष्ठा में कोई मिलावट होती नहीं है, और न कोई पाखंड होता है।
स्त्री की दासता के बिना इसीलिए अर्थतंत्र और सामाजिक वर्चस्व कायम होना मुश्किल है और इसीलिए स्त्री देह सबसे बड़ी राजनीति है और सर्वोत्तम वाणिज्य भी वहीं।
चित्रांगदा को जीते बिना अर्जुन अर्जुन नहीं है तो श्री रामचंद्र मर्यादा पुरुषोत्तम हो न हो, मर्यादा का उत्कर्ष लेकिन माता सीता सबसे जो उत्पीड़िता हैं।
आदिवासी समाज में स्त्री गुलाम नहीं है। स्त्री कथा का संघर्ष मैंने उत्तराखंड में खूब देखा है और उत्तराखंडी स्त्रियां, इजाएं, दीदियां और वैणियां मेरे लिए प्रेणा और ऊर्जा का अंनत स्रोत है। यही स्त्री जीवट झारखंड, ओड़ीशा, गुजरात, राजस्थान और समूचे मध्यभारत, दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर और पूरे हिमालयी भूगोल में है। जिसका प्रतीक अकेली इरोम शर्मिला नहीं है। सोनी सोरी भी हैं। तो उत्तराखंडी और मणिपुरी महिलाएं भी हैं।
झुग्गी झोपड़ियों, चाय बागानों, कोयला और दूसरे खानों, गंदी बस्तियों, दंडकारण्य, शरणार्थी शिविरों, सरकारी बेसरकारी कार्यालयों में कार्यरत तमाम स्त्रियां इसका समूह प्रतीक।
आर्यावर्त का भूगोल इतिहास और धर्मशास्त्र सिरे से स्त्री विरोधी है। ऐसा महाराष्ट्र में भी नहीं है।हिंदी पट्टी इसलिए पिछड़ी है क्योंक स्त्री को उसका यथोचित सम्मान देना यहां जनसमाज को स्वीकार है नहीं।
हिंदी पट्टी इसीलिए दहेज पट्टी है तो भ्रूण हत्या का भूगोल भी।
आनरकीलिंग और बलात्कार की संस्कृति हिंदी पट्टी से ही बाकी देश को संक्रमित है।
अब आप तय करें कि इस पर हम गर्व करें कि पश्चाताप।
बंगाल में इतिहास और विरासत अनार्य है तो बौद्धमय भी। इसलिए बंगाल में स्त्रियां ज्यादा सशक्त हैं और बंगाली समाज पुरुषतांत्रिक होते हुए भी गहराई में मातृतांत्रिक भी है, देवियां बंगाल में देवों के मुकाबले ज्यादा पूज्यनीया हैं।
लेकिन लोक के अवसान और जनपदों के नगर महानगर में सिमटने की वजह से बंगाल में भी स्त्री फिर वही मुक्त बाजार की उपभोक्ता सामग्री है और बलात्कार संस्कृति में बंगाल अब सबसे अव्वल है।
सांढ़ संस्कृति और विकास कामसूत्र इसलिए सिरे से स्त्री विरोधी है।
बाजार स्त्री देह का ही कारोबार है।
मुक्त बाजार मुक्त कारोबार है। इसलिए मुक्त बाजार में स्त्री फिर वही शूद्र है। सीता है, गीता है या फिर द्रोपदी या कमसकम जोधाबाई या राधा या मीरा और बहुत हुआ तो झांसी की रानी।
लेकिन रानी दुर्गावती के लिए वहां कोई जगह है ही नहीं।
ईमानदारी से सोचें तो इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, मायावती, जयललिता, सुषमा स्वराज, स्मृति ईरानी, सुभाषिणी अली, जयललिता, गौरी अम्मा, मेधा पाटकर, ममता बनर्जी, इंदिरा ह्रदयेश, तारकेश्वरी सिंन्हा, मीरा कुमार जैसी स्त्रियों की राजनीतिक आलोचना राजनीतिक कम है, पुरुषवादी कहीं ज्यादा है।
हम उनकी उपलब्धियों को सिरे से नकार कर उनकी आलोचना के अभ्यस्त हैं और उनका कृतित्व को पुरुषतांत्रिक सत्ता की आंख की किरकिरी मानने को ही अभ्यस्त हैं हम जाने अनजाने।
केसरिया कारपोरेट हिंदू ह्रदयसम्राट प्रधान राष्ट्रीय स्वयंसेवक की शौचालय पीपीपी क्रांति का लालकिले की प्राचीर से उदात्त उद्घोष के बाद सेनेटरी नैपकिन और गोरा बनाने के कारोबार, फैशन स्टेटमेंट, ब्रांडिंग की पूरी मार्केटिंग विधा के साथ भारतीय मीडिया यह साबित करने में एढ़ी चोटी का जोर लगा रहा है कि बिना शौचालय स्त्रियां कैसे हारती रही हैं।
बिना प्रसाधन, बिना बाजार, बिना स्पांसर, बिना सहवास, बिना कामसूत्र, बिना प्लेब्वाय, बिना थ्री फोर फइव जी के हम समाज में स्त्री की भूमिका और अर्थतंत्र में उसके अनिवार्य योगदान का मूल्यांकन करने के लिए तैयार ही नहीं।
थ्री डी स्त्री देह के अलावा हमारे पुरुष वर्चस्व के लिए स्त्री का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
शरतचंद्र कोई वैज्ञानिक दृष्टि के कथाकर नहीं हैं और न वे समाजवास्तव को अभिव्यक्त करने में सिद्धहस्त रहे हैं। लेकिन उनका जैसा स्त्री पक्ष का कथाकार पूरी दुनिया में खोजना मुश्किल है।
आज सुबह समकालीन तीसरी दुनिया का ताजा अंक पढ़ गया। करीब दस साल बाद दुनिया में जो कहानी पढ़ी, वह स्त्री अस्मिता की कथा है। जो स्त्री हारती नहीं है और अक्लांत योद्धा है जो स्त्री, उसकी यह कथा, जो दरअसल हर स्त्री है भूगोल निरपेक्ष।
बहस के लिए पहचान की राजनीति पर कात्यायनी का अति महत्वपूर्ण लेख है। इस विमर्श में अंबेडकर प्रसंग में हमारी असहमति पर हस्तक्षेप में लंबी बहसें चली है। कात्यायनी के ताजा आलेख का मूलाधार भी वही अरविंद न्यास का वक्तव्य है। इस पर हम नये सिरे से टिप्पणी नहीं करेंगे। लेकिन वर्गीय ध्रुवीकरण के बारे में कात्यायनी की जो राय है और पहचान को खारिज करने का जो एजेंडा है, हम उसका पुरजोर समर्थन करते हैं।
समकालीन तीसरी दुनिया के इस अंक में आनंद जी के संपादकीय, नेपाल अपडेट, मुशर्रफ अली का आलेख, अभिषेक की रपट और जोहरा सहगल पर संस्मरण अवश्य पठनीय है। पढ़ें और समकालीन तीसरी दुनिया को जारी रखने में सहयोग भी करें।
हम अपनी जमीन से जुड़ीं औरतों को देखें तो महसूस करेंगे कि स्त्रियां किसी भी परिस्थिति में हारती नहीं है।
हाल में लिंकड इन के प्रोफ्शनल नेटवर्क में जिस तेजी और सक्रियता के साथ फेसबुक पर अनुपस्थित लेकिन जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय और कामयाब स्त्रियों से परिचय हो रहा है, उससे हमारी यह धारणा टूटी है कि आधुनिक स्त्री सिर्फ क्रयशक्ति के पीछे भाग रही हैं। उनकी चिंताएं और सरोकार पुरुषों के मुकाबले ज्यादा ईमानदार ही नहीं हैं, समाजवास्तव के मुताबिक हैं और उनके डीएनए के मुताबिक सत्यनिष्ठा का उत्कर्ष भी।
ऐसी स्त्रियां हार नहीं सकतीं।
अपने लोक में लौटें और जनपद संस्कृति के मुताबिक स्त्री को नेतृत्व का मौका दें तो हो सकता है कि कयामत के ये हालात बदल भी जायें।
हमने तो अब तक घर के भीतर या बाहर पुरुषवर्चस्व के दायरे और सांढ़ संस्कृति के व्याकरण से बाहर किसी स्त्री को संबोधित किया ही नहीं है।
हम अब तक सिर्फ मर्दों को संबोधित करते रहे हैं और इसीलिए हमारे पढ़े लिखे पुरुष वर्चस्ववादी प्रयासों का असर भी नहीं हो रहा है।
हालात बदलने हैं तो पुरुषतंत्र के तमाम किलों और मठों पर गोलाबारी सबसे जरूरी है।
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।