बहुत कठिन है डगर विपक्षी एकता की

0 राजेंद्र शर्मा

विधानसभाई चुनावों तथा उपचुनावों के ताजा चक्र के बाद से और खासतौर पर उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद से भाजपा के और आमतौर पर संघ परिवार के हौसले बुलंदी पर हैं। इसके लिए अगर किसी किसी सबूत की जरूरत रही भी होगी, तो वह जरूरत भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की भुवनेश्वर की बैठक के स्वर और मुद्रा से पूरी हो गयी होगी।

इस बैठक से भाजपा ने निस्संकोच, ओडिशा के अब से पूरे दो साल बाद होने वाले चुनाव के लिए एक तरह से अपने प्रचार अभियान के शुरू होने का ही एलान नहीं किया, उसने 2019 के आम चुनावों में अपने आधार के विस्तार के निशानों का भी एलान कर दिया।

...और जैसा कि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, इस सबके क्रम में उसने वामपंथी प्रभाव वाले केरल, त्रिपुरा और बंगाल पर अपना खास निशाना होने का एलान किया।

उत्तर प्रदेश के चुनाव में तगड़े धक्के के बाद विपक्षी एकता की चर्चा तेज

बहरहाल, यह तस्वीर का एक ही पहलू है। इसी तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि खासतौर पर उत्तर प्रदेश के चुनाव के तगड़े धक्के के बाद, देश में विपक्षी एकता की चर्चा फिर से तेज हो गयी है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव में बुरी तरह से हार के बाद से, दोनों प्रमुख विपक्षी पार्टियों, सपा और बसपा को एकता की जरूरत का एहसास हुआ लगता है। अखिलेश यादव ने तो चुनाव के नतीजे आने के फौरन बाद, उत्तर प्रदेश में भी बिहार जैसे महागठबंधन की जरूरत पहचाननी शुरू कर दी थी। अब मायावती ने भी भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकजुटता की जरूरत को स्वीकार करना शुरू कर दिया है, जो बसपा के लिए एक नयी बात है।

अपवादस्वरूप कुछ मामलों को छोडक़र बसपा आमतौर पर ‘एकला चलो’ की राजनीति में ही विश्वास करती आयी है।

दिलचस्प है कि कुछ ऐसा ही मत-परिवर्तन बसपा की तरह ही एकला चलो की राजनीति में विश्वास करने वाले आप नेता, अरविंद केजरीवाल का भी हुआ लगता है। वह ईवीएम के मुद्दे पर अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ खड़े नजर आने पर ही नहीं रुके हैं। दिल्ली के महत्वपूर्ण नगर निगम चुनाव के बीच भी, जिसमें आप पार्टी का खासतौर पर ज्यादा दांव पर लगा हुआ है, केजरीवाल ने दिल्ली में पिछले ही दिनों केरल की एलडीएफ सरकार के मुख्यमंत्री, पिनरायी विजयन से मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद मीडिया से बात करते हुए, उन्होंने भाजपा सरकार की मनमानी के खिलाफ विपक्षी ताकतों की एकजुटता की जरूरत पर भी जोर दिया। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद, केजरीवाल विपक्षी पार्टियों के बजाय, ‘विपक्ष के अच्छे लोगों’ के एकजुट होने की भाषा में ही बात करते नजर आए।

नीतीश कुमार विपक्षी एकता के पैरोकार

अचरज की बात नहीं है कि बिहार में ‘महागठबंधन’ के, भाजपा के मंसूबों को विफल करने लिहाज से सफल प्रयोग से उत्साहित, नीतीश कुमार देश के पैमाने पर ऐसे किसी गठबंधन के विचार के पक्ष में आगे-आगे हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजे आने के बाद से, इस मामले में उनकी सक्रियता और बढ़ गयी है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजों को नीतीश कुमार महागठंधन के पक्ष में एक प्रभावशाली दलील मानते हैं। वास्तव में इन चुनाव नतीजों पर उनकी पहली प्रतिक्रिया यही थी कि व्यापक गठबंधन के जरिए ही भाजपा को रोका जा सकता है।

शारदा-नारदा से बचाव का रास्ता भी विपक्षी एकता

उधर तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी भी, शारदा-नारदा मामलों के बढ़ते दबाव से बचाव की तलाश में ही सही, विपक्ष को एकजुट करने के लिए सक्रियता दिखा रही हैं। इस सक्रियता की ताजातरीन कड़ी में सुश्री बनर्जी ने, बीजू जनता दल के प्रमुख तथा ओडिशा के मुख्यमंत्री, नवीन पटनायक से सुप्रचारित मुलाकात की है, जबकि लगभग उसी समय दिल्ली में नीतीश कुमार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात कर रहे थे।

जाहिर है कि विपक्षी एकता के इन प्रयासों का एक तात्कालिक संदर्भ भी है।

यह संदर्भ जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव का है। जहां मोदी सरकार और सत्ताधारी भाजपा से, तानाशाहीपूर्ण रवैये की विपक्ष की बढ़ती शिकायतों को देखते हुए, यह चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण हो गया है, वहीं ताकतों के तथा इसलिए राष्ट्रपति निर्वाचक मंडल में वोटों के समीकरण को देखते हुए, यह चुनाव बहुत दिलचस्प भी हो गया है।

उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड की अपनी झाडूमार जीत के बावजूद, भाजपा के नेतृत्ववाला सत्ताधारी गठजोड़ राष्ट्रपति चुनाव के लिए बहुमत के आंकड़े से पीछे है।

जहां यह सच है कि बीजद या अन्नाद्रमुक जैसी किसी एक बड़ी विपक्षी पार्टी को अपने पक्ष में करने से ही, भाजपा के उम्मीदवार की नैया पार हो जाएगी, वहीं यह भी सच है कि अगर सभी प्रमुख विपक्षी पार्टियां एकजुट हो जाती हैं, तो भाजपा का उम्मीदवार हार भी सकता है।

एनडीए में शिव सेना की असहज स्थिति को देखते हुए, इस संभावना का पलड़ा और भारी हो जाता है। राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा कुछ भी निकले, उससे विपक्षी एकता के इन प्रयासों को काफी बल मिलने के आसार हैं।

फिर भी राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी एकता, विपक्ष की आम राजनीतिक एकता के मुकाबले कहीं आसान है। राष्टï्रपति का निर्वाचक मंडल, आखिरकार संसद तथा राज्य विधायिकाओं के चुने हुए सदस्यों तक ही सीमित है और भारतीय व्यवस्था में राष्टï्रपति की भूमिका और भी सीमित है। इस चुनाव में बनने वाली विपक्षी एकता की, विपक्ष की आम राजनीतिक एकता या आम चुनाव के लिए एकता से शायद ही कोई समानता होगी। ऐसी आम राजनीतिक या चुनावी एकता को एक तो विपक्ष की कतारों में ऐसी पार्टियों की मौजूदगी मुश्किल बनाती है, जिनके बीच चुनावी स्पेस के लिए लड़ाई होती है।

देश की राजनीति के अब भी उल्लेखनीय रूप से बहुध्रुवीय बने रहने को देखते हुए, ऐसी लड़ाइयां कोई कम नहीं हैं। सपा-बसपा, द्रमुक-अन्नाद्रमुक, तृणमूल-माकपा, कुछ ऐसी ही जोड़ियां हैं। राष्ट्रपति चुनाव में इन टकरावों से बेशक बचकर निकला जा सकता है।

बहरहाल, विपक्ष की आम राजनीतिक एकता की इससे भी बड़ी मुश्किल यह है कि जनता को जीतने के लिए ऐसी एकता का, किसी सकारात्मक जन-पक्षधर कार्यक्रम पर टिका हुआ होना जरूरी है। सिर्फ सत्ता पक्ष का विरोध, इसका स्थानापन्न नहीं हो सकता है। ऐसे कार्यक्रम के बिना न तो ऐसी एकता को जनता का समर्थन मिलेगा और न ही उसके पांव होंगे।

दूसरी अधिकांश पार्टियों के विपरीत, वामपंथ ऐसे कार्यक्रम को ऐसी किसी एकता तथा उस पर आधारित विकल्प के लिए अनिवार्य शर्त मानता है।

वास्तव में वामपंथ की राय में तो इस तरह के वैकल्पिक कार्यक्रम के लिए संघर्ष बीच से बनने वाली एकता ही जनप्रिय तथा टिकाऊ और इसलिए सार्थक होगी।

दुर्भाग्य से अधिकांश राष्ट्रीय या क्षेत्रीय विपक्षी पार्टियों को कम से कम इस मुकाम पर, मौजूदा शासन की नवउदारवादी नीति के विकल्प का ऐसा कोई कार्यक्रम मंजूर नहीं है। हां! वे ऐसे प्रश्नों से बचकर किसी तरह गठजोड़ खड़ा कर लेने का शार्टकट जरूर आजमाना चाहती हैं। लेकिन, इसे जनता का भरोसा हासिल होना मुश्किल है।

इस मरीचिका के पीछे भागने के बजाए, वामपंथी पार्टियां अपनी एकता का विस्तार करने और उसे धुरी बनाकर, नवउदारवादी नीतियों के विपरीत आम जनता के हितों की पक्षधर ज्यादा से ज्यादा ताकतों को इकट्ठा करने का प्रयास कर रही हैं, ताकि तमाम राजनीतिक ताकतों को जनहित के वैकल्पिक कार्यक्रम के आधार पर एक निश्चित रुख अपनाना पड़े। यह काम धीरज की मांग करता है। लेकिन, यही प्रयत्न फलदायी होगा। संघर्ष के मैदान में कम्युनिस्टों की बढ़ती एकता, इसी का पहला किंतु बहुत ही जरूरी कदम है। 0