शेष नारायण सिंह
नार्वे में पहुँचने के साथ ही काम में जुट गया इसलिये एक मिनट के लिये नहीं लगा कि कुछ बदला है। हालाँकि यहाँ भी घर से बाहर निकलने पर तो सब कुछ बिलकुल अलग लगता है, अजनबी शहर बेगाना लगता है लेकिन जो तीन चार रिपोर्टें अब तक लिखी हैं उनको अपने वतन में लोग पसन्द कर रहे हैं। खासकर जब आप नार्वेजियन भाषा न जानते हों। यहाँ का जुगराफिया न जानते हों और नार्वे के बारे में कुछ भी न जानते हों। लेकिन रिपोर्ट पढ़कर शक होता है कि किसी जानकार की रिपोर्ट है। यह इसलिये सम्भव हुआ कि यहाँ रहने वाले मेरे एक मित्र ने बहुत मदद की। उनके कारण ही यह सम्भव हुआ। मुझ पर लाजिम है कि मैं ओस्लो के अपने दोस्त सुरेश चन्द्र शुक्ल के व्यक्तित्व के बारे में कुछ बताऊँ।

20 अगस्त को मैं ओस्लो पहुँचा था और 21 अगस्त को सुरेश चन्द्र शुक्ल ने मुझे काम पर लगा दिया। मेरे घर के पास के मेट्रो स्टेशन पर मिल गये और मुझे साथ लेकर एक चुनावी सभा में चले गये। उसके पहले अपने घर ले गये थे। वाइतवेत के उनके घर में एक मिनट के लिये भी नहीं लगा कि किसी पराये देश में हैं। हालाँकि मैं खाना खाकर गया था लेकिन जब उन्होंने बिना मुझसे पूछे और बिना किसी पूर्व सूचना के भोजन पर आमंत्रित कर दिया तो मुझे लगा कि अपनी अवधी तहजीब के किसी धाकड़ नमूने के घर आ गया हूँ और किसी भराधी बैठकबाज़ से मुलाक़ात हो गयी है। उनकी पत्नी, माया जी ने सामने लाकर खाना रख दिया, लगाकि सुल्तानपुर के अपने घर में बैठा हूँ। अपनैती की हद देखने को मिली। पेट में जगह नहीं थी लेकिन आग्रह ऐसा कि मना नहीं कर सका। गले तक भोजन के बाद सुरेश जी के साथ निकल पड़े, ओस्लो के किसी उपनगर में एक चुनावी प्रचार का जायज़ा लेने। वहाँ बोली गयी कोई बात समझ में नहीं आई लेकिन सुरेश शुक्ल के बताने के आधार पर रिपोर्ट लिखी, साथ घूमते रहे और शाम तक वापस आया गये। आजकल ओस्लो का मौसम ऐसा है जिसमें करीब आठ बजे सूर्यास्त हो रहा है, रात नौ बजे तक गोधूलि वेला जैसा उजाला रहता है।

सुरेश चन्द्र शुक्ल का एक और नाम शरद आलोक है लेकिन ओस्लो की सडकों पर जो भी उन्हें जानता है वह उन्हें शुक्ला जी ही कहता है। हिंदी और नार्वेजी भाषा के पत्रकार और साहित्यकार होने के अलावा सुरेश शुक्ल नार्वे की राजनीति में भी दखल रखते हैं। ओस्लो की नगर पार्लियामेंट में सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी ( एस वी ) की ओर से सदस्य रह चुके हैं। 2007 में ओस्लो टैक्स समिति के सदस्य थे और 2005 में हुये पार्लियामेंट के चुनाव में सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रीय चुनाव में शामिल हो चुके हैं। नार्वेजियन जर्नलिस्ट यूनियन और इंटरनैशनल फेडरेशन और जर्नलिस्ट्स के सदस्य हैं। इसके अलावा बहुत सारे भारतीय और नार्वेजी संगठनों के भी सदस्य हैं। डेनमार्क और कनाडा के कई साहित्यिक संगठनों से जुड़े हुये हैं। अपनी ही कहानियों पर आधारित टेलीफिल्म, तलाश, नार्वे और कनाडा की संयुक्त फिल्म ‘कनाडा की सैर’, आतंकवाद पर आधारित हिंदी लघुफिल्म ‘गुमराह‘ बना चुके हैं। एक शिक्षाविद के रूप में भी उनकी पहचान है। ओस्लो विश्वविद्यालय, कोपेनहेगन विश्वविद्यालय, अमरीका का कोलंबिया विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी संस्थान, मारीशस में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में आमंत्रित किये जा चुके हैं। नार्वे की कई साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर हैं।

साहित्यकार के रूप में भी सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक‘ जाने माने नाम हैं। भारत में भी बहुत सारी पत्रिकाओं और अखबारों में इनके साहित्यिक काम को छापा और सराहा गया है। इनका पहला काव्य संग्रह 1976 में ही भारत में छप गया था तब शायद इंटर में पढ़ते थे। उसके बाद हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में उनके दस और काव्य प्रकाशित हुये। 1996 में उनका पहला कहानी संग्रह छपा था, अब तक कहानियों के कई संकलन वे संपादित कर चुके हैं। नार्वे के सबसे नामवर साहित्यकार हेनरिक इब्सेन के 1945 के बाद के साहित्य का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया है। ओस्लो विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इसी विषय पर विशेष अध्ययन किया था। नार्वे के साहित्य खासकर इब्सेन के लेखन का सुरेश शुक्ल ने अनुवाद भी खूब किया है। उन्हें बहुत सारे पुरस्कार भी मिल चुके हैं, भारत में भी और नार्वे में भी।

एक साहित्यकार और राजनीतिक नेता के रूप में ऐसे बहुत से लोग मिल जायेंगे जो सुरेश चन्द्र शुक्ल से बड़े होंगे और केवल इस विशेषता के कारण मैं उनसे प्रभावित नहीं हुआ। यह सारी बातें तो बहुत सारे लोगों में हो सकती हैं। मैं दिल्ली में रहता हूँ और इस तरह के बहुत लोग मिलते हैं जो साहित्यकार भी हैं और राजनेता भी। लेकिन सुरेश चन्द्र शुक्ल में जो खास बात है वह बिलकुल अलग है और वह है उनका बेबाकपन, अदम्य साहस और किसी भी हाल में मस्त रहने की क्षमता। मैंने इस बारीकी को समझने के लिये उनको कुरदने का फैसला किया और सारा रहस्य परत-दर-परत खुलता चला गया और साफ़ हो गया कि यह आदमी जो मुझे लेकर ओस्लो की सड़कों और ऐतिहासिक स्थलों पर घूमता हुआ गप्प मार रहा है वह कोई मामूली आदमी नहीं है और उसके गैरमामूलीपन की शुरुआत बचपन में ही हो चुकी थी। आपने 1972 में लखनऊ से हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी। दसवीं का तीन साल का कोर्स शुरू तो 1969 में ही हो गया था जब आप कक्षा नौ पास करके दसवीं में भरती हुये थे। लेकिन 1970 में फेल हो गये। इनके साथ दो साथी और थे जो इनकी तरह की बाकायदा फेल हुये थे। बहरहाल तीनों मित्रों ने 1971 में पास होने के लिये खूब मेहनत से पढ़ाई शुरू की लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था, सुरेश शुक्ल बीमार हो गये। उनके घनिष्ठ मित्रों ने कहा कि जब हमेशा का साथ हैं तो एक साथी को छोड़कर अगली क्लास में नहीं जायेगें। लिहाजा उन दोनों ने भी इम्तिहान छोड़ दिया और साथ साथ फेल हुये। जब दोस्ती की यह कथा परवान चढ़ रही थी तो इन दोस्तों के माता पिता बहुत दुखी हो रहे थे। सुरेश के पिता ने चेतावनी दे दी कि अब पढ़ाई खत्म करो और नौकरी शुरू करो। सुरेश शुक्ल ने लखनऊ के सवारी डिब्बे के कारखाने में काम शुरू कर दिया और खलासी हो गये। जब 1972 में दसवीं की परीक्षा हुयी तो तीनों ही मित्र पास हो गये थे। तीनों को नौकरी मिल चुकी थी। तो इन लोगों ने तय किया कि अब जो बच्चे तीन साल फेल होने के बाद दसवीं की परीक्षा पास करने की कोशिश करेंगे उसको यह आर्थिक मदद करेंगे। इस काम के लिये इन लोगों ने अपने वेतन से पैसा जोड़कर एक फण्ड बनाया जिस से तीन बार फेल होने वाले धुरंधरों की मदद की जायेगी। दो एक लोगों को वायदा भी किया। मदद भी की। इस बीच इनके किसी दोस्त की बहन भी तीन बार फेल हो गयी। फण्ड के संचालक तीनों मित्र उसके घर पहुँच गये और मित्र की माँ के पास पहुँच गये। और चाची को प्रणाम करके बैठ गये। चाची ने चाय पिलाने के लिये जैसे ही रसोई में प्रवेश किया हमारे शुक्ल की ने उनसे बच्ची के फेल होने पर सहानुभूति जताई और कहा कि आप चिन्ता मत कीजियेगा। हमने एक फण्ड बनाया है जिसका उद्देश्य उन बच्चों की पढाई का खर्च उठाना है जो दसवीं में तीन साल फेल हो चुके हों। चाची आगबबूला हो गयीं और चाय भूलकर झाड़ू हाथ में लेकर इन तीनों धर्मात्माओं को दौड़ा लिया और जब बाकी लोगों ने इनको समझाया कि महराज आपके इस फण्ड की कृपा से बच्चों में फेल होने के लिये उत्साह बढ़ेगा तो इनकी समझ में आया कि कहीं कोई गलती हो रही थी और वह फण्ड अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ। कहने का मतलब यह है कि लीक से हटकर काम करने की प्रवृत्ति सुरेश चन्द्र शुक्ल के अन्दर शुरू से ही थी।

रेलवे में नौकरी करते हुये सुरेश चन्द्र शुक्ल ने लखनऊ के कान्यकुब्ज वोकेशनल कालेज से बी ए पास किया। 1978 में रेलवे ने इनको कानपुर भेजकर वर्कर-टीचर की ट्रेनिंग करवाया। हालाँकि रेलवे में यह तरक्की कर रहे थे, खलासी से शुरू करके छः साल में फिटर हो गये थे लेकिन मन नहीं लग रहा था, कोल्हू के बैल की तरह की ज़िन्दगी शुक्ल जी को कभी पसन्द नहीं थी। और फिर इनकी ज़िन्दगी में एक नया अध्याय शुरू होने वाला था। शुक्ल जी ने नौकरी पर अचानक जाना बन्द कर दिया और 26 जनवरी 1980 के दिन हवाई जहाज़ से उड़कर ओस्लो पहुँच गये। हवाई जहाज़ इसलिये लिख रहा हूँ कि इनके बड़े भाई साहेब कुछ वर्ष पहले साइकिल से ओस्लो की यात्रा कर चुके थे और यहीं रह रहे थे। इनको कुछ नहीं मालूम था कि यहाँ की ज़िन्दगी की शर्तें क्या हैं लेकिन ओस्लो पहुँच कर बिना कोई वक़्त गँवाये आप भारतीय दूतावास पहुँच गये और वहाँ आयोजित गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में दर्शक के रूप में शामिल हो गये। यहाँ आकर सुरेश शुक्ल फ़ौरन काम से लग गये। सबसे पहले नार्वेजी भाषा सीखने के लिये नाम लिखा लिया। दो साल के अंदर यहाँ की भाषा सीख गये। भाषा के सभी पहलू सीखे, ग्रामर, टाइपोग्राफी, फोनेटिक्स सब सीखा। उसके बाद नार्वेजी साहित्य की पढाई के लिये ओस्लो विश्वविद्यालय में नाम लिखा लिया। सुरेश चन्द्र शुक्ल 1945 के बाद के नार्वेजी साहित्य के मास्टरपीस रचनाओं के विशेषज्ञ हैं और नार्वे में उनका इसी रूप में सम्मान किया जाता है।

ज़िन्दगी के हर मोड़ पर संघर्ष को गले लगाते हुये सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक‘ आगे बढ़ते जा रहे थे लेकिन इस आदमी ने अपने सेन्स आफ ह्यूमर को हमेशा साथ रखा। पढ़ाई के साथ साथ ओस्लो से प्रकाशित होने वाली हिंदी की पत्रिका ‘परिचय’ में काम करते हुये उनको कुछ आमदनी भी होने लगी थी। शुक्ल जी ने 2000 क्रोनर में एक पुरानी कार खरीदी। इस कार के कारण उन्होंने कुछ दोस्तों को हमेशा साथ रखने का फैसला किया क्योंकि कार कहीं भी रुक जाती थी तो उसे धकेलने के लिये कुछ वालिंटियर चाहिए होते थे। उसी ज़रूरत के तहत ओस्लो में शुक्ल जी कुछ साथियों के साथ हमेशा ही घूमते पाए जाते थे। पत्रकार के रूप में ज़िन्दगी शुरू हो चुकी थी। दो हज़ार क्रोनर में कार खरीदने वाले शुक्ल जी को वीडियो देखने का शौक़ था और आप नौ हज़ार क्रोनर का वीडियो प्लेयर खरीद लाये लेकिन टी वी नहीं था। इस्तेमालशुदा चीज़ों के बाज़ार में जाकर इन्होंने एक टी वी खरीदा लेकिन उसमें पिक्चर तो दिखती थी, आवाज़ नहीं आती थी। पुराना सामान इस शहर में वापस नहीं किया जा सकता उसकी कोई गारंटी भी नहीं होती। इसलिये इन्होंने तय किया कि अब एक और टी वी खरीदेगें जिसमें आवाज़ सुनायी पड़े। इस तरह से एक वीडियो प्लेयर, और दो टी वी मिलकर नार्वे के राजधानी में गोमती के किनारे से ओलमा नदी के शहर ओस्लो में पहुँचा यह नौजवान ज़िन्दगी की परेशानियों को मुँह चिढ़ा रहा था। बाद में अपनी पत्रिका भी शुरू कर दी। 1988 में शुरू की गयी उनकी हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में छपने वाली पत्रिका स्पाइल दर्पण में आज भी नए लेखकों को महत्व दिया जाता है। हिंदी में लिखने वाले यूरोप में बहुत से साहित्यकार मिल जायेंगे जिनकी कृतियाँ इस पत्रिका में सबसे पहले छपी थीं।

ऐसी बहुत सारी कहानियाँ हैं जो सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक को बाकी दुनिया से अलग कर देती हैं। इस सारी लड़ाई में उनकी पत्नी माया जी उनके साथ जमी रहीं और अपने बच्चों को बेहतर ज़िन्दगी देने की अपने मकसद में कामयाबी के झण्डे फहरते रहे। आज उनके सभी बच्चों में भारत और नार्वे के संयुक्त संस्कारों के कारण शिष्टाचार की सभी अच्छाइयाँ हैं। वाइतवेत के उनके घर में हिंदी और उर्दू के बहुत से साहित्यकार आ चुके हैं, कुछ ने तो यहीं पर अपना ओस्लो प्रवास भी बिताया। हिंदू उर्दू के बड़े साहित्यकारों में शुक्ल जी सबसे ज़्यादा कादम्बिनी के तत्कालीन संपादक राजेन्द्र अवस्थी का एहसान मानते हैं क्योंकि अवस्थी जी ने कादम्बिनी में इनकी रचनाएं छापकर इन्हें प्रोत्साहन दिया था। कमलेश्वर, इन्द्रनाथ चौधरी, रामलाल ( लखनऊ के उर्दू के अदीब), कुर्रतुल एन हैदर, श्याम सिंह शशि, गोपीचंद नारंग, सत्य नारायण रेड्डी, भीष्म नारायण सिंह, सरोजिनी प्रीतम बाल्सौरी रेड्डी इनके मेहमान रह चुके हैं। नोबेल शान्ति पुरस्कार का संस्थान ओस्लो में ही है। आपकी मुलाक़ात यहाँ पर नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, अमर्त्य सेन, आर्च बिशप डेसमंड टूटू से कई बार हुयी है और जब नोबेल शान्ति पुरस्कार के एक सौ साल पूरे होने पर जश्न मनाया गया था तो जिन विभूतियों को बुलाया गया था उनमें सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक भी शामिल थे।

यह है अपना दोस्त जो आज भी जब किसी से मिलता है को उसकी मस्ती और उसका बांकपन लोगों को उसका बना देता है। बातचीत करते हुये लगता ही नहीं कि जिस व्यक्ति से बात कर रहे हैं वह उन्नाव के एक कस्बे अचल गंज से चलकर ओलमा नदी के तीरे बसे इस शहर में बहुत लोगों का दोस्त है और यूरोप और अमरीका सहित विश्व हिंदी सम्मेलन में शामिल होने वाले प्रतिष्ठिति लोगों के बीच भी सम्मान से जाना जाता है।