सेंगोल (राज-दंड/डंडा) की असलियत और सेंगोल पर सियासत

जो DMK के संस्थापक और तमिल नाडू के पहले CM रह चुके हैं के तमिल लेख का संपादित हिन्दी अनुवाद। यह लेख उन्हों ने ब्राह्मणवादी थिरुवदुथुराई अथिनम/ अधीनम (SHIVITE मठ TANJORE) ने जब देश के पहले प्रधान मंत्री नेहरू को 14 अगस्त 1947 के दिन सेंगोल <राज-डंडा> भेंट किया था, उस के विरोध में लिखा था जो अगस्त 24, 1947 को DRAVID NADU तमिल पत्रिका में छपा था।>

थिरुवदुथुराई अथिनम ने पंडित नेहरू को एक सेंगोल सौंपा है, जो नई सरकार के प्रधान मंत्री हैं।...उसने ऐसा क्यों किया? क्या यह एक उपहार, भेंट, लाइसेंस शुल्क था? यह निश्चय ही अप्रत्याशित है। और अनावश्यक। लेकिन अगर यह केवल अनावश्यक होता तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इस भेंट का गहरा अर्थ है, और यह स्पष्ट होता जा रहा है कि यह खतरे कि घंटी है।

हमें नहीं पता कि पंडित नेहरू ने इसके बारे में क्या सोचा था और न ही हम यह जानते हैं कि क्या थिरुवदुथुराई अथिनम ने इसके साथ कोई नोट भेजा था। लेकिन हमारे पास पंडित नेहरू को बताने के लिए लिए कुछ शब्द हैं।

आप राष्ट्रों के इतिहास से अच्छी तरह परिचित हैं। एक अभिषिक्त राजा <भगवान कि तरफ़ से नियुक्त> जिसने अपनी प्रजा को काम पर लगाया ताकि उसके रईसों का समूह उनके श्रम पर जी सके। राजा के सुनहरे महल के भीतर ऐसे लोग हैं जिन्हें इसके परिसर में घूमने की स्वतंत्रता और अनुमति है। पुरुष, जिनके क़ब्ज़े में धार्मिक पूंजी या ख़ज़ाना है <अर्थात ब्राह्मण या

पुजारी> । यदि हमें लोगों के शासन को बनाए रखना है, तो ऐसे लोगों को उनके विशेषाधिकारों से वंचित कर देना चाहिए, यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है। आप यह जानते हैं।

अथिनम जैसे लोगों को चिंतित करने वाला एक गंभीर प्रश्न <यह> है। वे इस बात से हेरान और चिंतित हैं कि क्या आपकी सरकार इस ज्ञान <जनता के राज वाला> पर अमल करेगी । और वे आपको केवल एक सुनहरा राजदंड ही नहीं, बल्कि नौ रत्नों से जड़ा राजदंड दे सकते हैं, क्योंकि वे अपने स्वार्थ की रक्षा करना चाहते हैं।

यह एक भक्त द्वारा लाया गया एक राजदंड नहीं है जिसे उसने अपने उत्साही गायन से भगवान को प्रसन्न करके प्राप्त किया है...नहीं, अथिनम का उपहार लोगों के श्रम से चुराया गया है। जो सोना इसके निर्माण में लगा है, उसका भुगतान उन लोगों द्वारा किया जाता है जिन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि <समाज में> ग़रीब हैं जो दिन-रात भूखे रहते हैं, जिन्होंने दूसरों के धन का दुरुपयोग किया है, किसानों के पेट में लात मारी है, श्रमिकों को कम से कम वेतन दिया है। ये वे लोग हैं जिन्हों ने अपने ऋणों का भुगतान नहीं किया है और अपने मुनाफ़े को कई गुना बढ़ाने में सफल हुए हैं।

इतना ही नहीं उन्होंने अपने जुर्मों और अपने पापों को छिपाने के लिए, और परमेश्वर को धोखा देने के लिये इस सोने की परमेश्वर पर बौछार कर दी है। यदि हमारे भविष्य के शासकों को यह राजदंड उन लोगों से प्राप्त करना है जो शरीर और दिमाग़ का शोषण करने के आदी हैं, तो यह अच्छी निशानी नहीं है।

सेंगोल पर एक नज़र डालें। यह खूबसूरत है। लेकिन शायद आप पवित्र बैल <नंदी जो इस के ऊपर विराजमान है> से अधिक देख सकते हैं। आप हज़ारों एकड़ ज़मीन भी देख सकते हैं, जिस पर एक खेतिहर मज़दूर ने खेती की है, जो दुख में जीवन व्यतीत कर रहा है। आप इस राजदंड की ज़रिए उसकी झोपड़ी और उसमें मौजूद गरीबी को भी देख पाएंगे। पुशतेनी जागीरदार, उसका बंगला, सोने की थाली में से खाता है वे भी आप देखेंगे। और फिर, थके हुए शरीर, अपनी थकी हुई आँखों के साथ...आप मठ को देखेंगे, और सन्यासी को उसका डरावना जूड़ा, उसकी माला, उसके कानों में सोना, उसकी सुनहरी चप्पलें।

पंडित नेहरू को भेजा गया यह सेंगोल कोई उपहार नहीं है। या प्रेम का प्रतीक। कम से कम देशभक्ति की अभिव्यक्ति तो नहीं है। भारत के भावी शासकों से <इस सेंगोल के माध्यम से> निवेदन है कि वे अथिनमों को बख्श दें और उनका धन-वैभव न छीनें। अपने शासकों को यह भेंट देकर अथिनम उनसे दोस्ती करना चाह रहे हैं ताकि उनकी प्रसिद्धि और वर्चस्व ख़त्म न हो जाए।

इन सन्यासियों-साधुओं के पास इतना सारा सोना, फिर भी यह वास्तव में उनके पास क्या है इसका एक कण है। यदि उनके परिसर का सारा सोना ज़ब्त कर लिया जाता है और आम भलाई पर ख़र्च किया जाता है तो यह राजदंड एक सजावटी प्रतीक नहीं रहेगा और इसके बजाय आम व्यक्ति के जीवन को बेहतर बनाने का साधन बन जाएगा।

<अनुवादक: शम्सुल इस्लाम>