पलाश विश्वास
केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों का यह असर हुआ कि विदेशी पूंजी और विनिवेश के लिए राज्य सरकारों में घमासान है। केंद्र सरकार के करीब एक करोड़ कर्मचारियों के लिए सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें मंजूर करने की घोषणा हो गयी है जबकि राज्य कर्मचारियों के लिए अनेक राज्यों में छठे वेतन आयोग की सिफारिशें अभी तक लागू हो नहीं पायीं। मसलन बंगाल में छठां वेतनमान की सिफारिशें लागू करने का ऐलान तो हो गया है लेकिन महंगाई भत्ता न मिलने की वजह से टेक होम आधा अधूरा है।
अब भी केंद्र के वेतनमान राज्यकर्मचारियों के वेतनमान की तुलना में वहीं आधा अधूरा है। इस वजह से राज्य सरकारों के लिए अभूतपूर्व कर्मचारी आंदोलन का मुकाबला करना अनिवार्य है जबकि उनका सारा राजस्व कर्मचारियों के वेतन और भत्ते में खर्च होता है और केंद्र से मिले अनुदान को भी इसी मद पर खर्च करने के सिवाय उनका राजकाज असंभव है। इसलिएअबाध पूंजी की दौड़ में राज्यसरकारें कम पगलायी नहीं हैं।
केंद्र से लगातार पैकेज ओवर ड्राफ्ट वगैरह-वगैरह के तोहफे के बावजूद। सरकार चलानी है तो विकास के सब्जबाग दिखाने अनिवार्य है और इसीलिए विभिन्न दलों और विचारधाराओं की सरकारे अब केंद्र सरकार के अश्वमेधी अभियान में शामिल हैं।
बंगाल में ममता बनर्जी ने विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत हासिल करके विपक्ष का सफाया कर दिया है और सत्तादल क्या पूरे बंगाल में इनकी मर्जी कालीघाट की मां काली की मर्जी से कम निरंकुश नहीं हैं। लेकिन खाली खजाना और कर्मचारियों के वेतन भत्ते के साथ विकास के सब्जबाग को जमीन पर अंजाम देने की चुनौती उनके लिए भी बेहद मुश्किल है।
कुछ वैसे ही संकट में वे फंसी हैं जैसे कामरेड ज्योति बसु के भूमि सुधार और विकेंद्रीयकरण की कृषि प्राथमिक राजकाज के बाद उनके चरण चिन्ह पर चलाना नये मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के लिए एकदम असंभव हो गया था।
कोलकाता और तेजी से शहरीकरण और बढ़ती हुई बेरोजगारी के मुकाबले पहला कार्यकाल के बाद भारी बहुमत से जीते बुद्धदेव ने विचारधारा और पार्टी दोनों को तिलांजलि देकर सिंगुर नंदीग्राम के सेज अभियान के जरिये पूंजीवादी विकास का राजमार्ग पर चलाना चाहा, तो नंदीग्राम में पुलिस को गोली क्या चलानी पड़ी कि तबतक शांत सिंगूर में भूमि अधिग्रहण के बाद ऐसा भयंकर जनांदोलन हो गया कि शेरनी की तरह मैदान फतह करके मुख्यमंत्री बन गयी ममता बनर्जी।
अपने पहले कार्यकाल में दीदी शेर की पीठ से उतरने की हिम्मत नहीं कर सकी और लगातार भूमि अधिग्रहण विरोधी तेवर में रहीं जिस वजह से राज्य में उद्योग और कारोबार का रथ जमीनोंदोज होता चला गया।
अब उसे पटरी पर लाने के सिवाय दीदी के लिए पहले छठा वेतनमान और फिर सातवां वेतनमान लागू करना असंभव साबित हो रहा है।
इसलिए दीदी फिर उसी सेज पर बैठ गयीं और नंदीग्राम में दीघा के पर्यटन विकास के लिए नब्वे मील जमीन के टुकड़े के अधिग्रहण का कोई प्रतिरोध नहीं हुआ देखकर फिर भारी बहुमत से महाबलि वे बुद्धदेव के चरण चिन्ह पर चलकर पूंजी और निवेश की तलाश में हैं।
इंफोसिस और विप्रो को सेज देने की मनुहार वे मान चुकी हैं और सेज केंद्रित स्मार्ट सिटी केंद्रित, मेट्रों केंद्रित,बुलेट केंद्रेत ,माल और हब केंद्रित विकास के रास्ते अंधी दौड़ में वे बुद्धदेव को पीछे छोड़ने की तैयारी में हैं लेकिन अब भी उनका दावा है कि जबरन भूमि अधिग्रहण वे नहीं करेंगी।
अंडाल में विमान नगरी का विरोध सत्तादल के बाहुबल से खत्म करने के बाद किसी जनांदोलन की चुनौती जाहिरा तौर पर उनके सामने नहीं हैं।
कांग्रेस और वामपक्ष का जनाधार धंस चुका है और वहां जमीनी स्तर पर नेतृत्व करके कोई जनांदोलन खड़ा करने लायक प्रतिपक्ष नहीं है जबकि तेजी से खिल रहे कमल वनों में हिंसा और घृणा के तमाम जीवजंतुओ की भूमिगत और सतही हरकतों के बावजूद उनका एजंडा असम के बाद बंगाल को केसरिया बनाना है और जल जंगल जमीन को लेकर केसरिया वानर सेना का कोई सरदर्द वैसे ही नहीं है जैसे केसरिया राज्यों में सर्वत्र सलवा जुड़ुम अश्वमेधी अभियान से हिंदुत्व की पैदल फौजों को कोई ऐतराज नहीं है।
रेलवे कर्मचारी हड़ताल के रास्ते रवानगी की उड़ान पर है और बाकी कर्मचारी संगठनों ने हिसाब किताब लगाकर देख लिया कि सातवां वेतन आयोग की सिफारिशों की मंजूरी दरअसल चूं चूं का मुरब्बा है और भविष्यनिधि और दूसरी सुविधाय़े सीधे बाजार में जाने की वजह से उन्हें हासिल कुछ नहीं होने वाला है।
इस पर तुर्रा स्थाई नियुक्ति न होने के कारण और चौबीसों घंटा बाजार खुला रखकर निनिदा नियुक्ति के बाद अब अंशकालिक सेवा के जरिये रोजगार सृजन के पथ पर सब्जबाग बहुतेरे हैं लेकिन रोजगार की कोई गारंटी नहीं है।
निजीकरण और विनिवेश की वजह से हर सेक्टर में व्यापक छंटनी अब अश्वमेधी राजसूय है। इन परिस्थितियों में केद्रीय कर्मचारियों के लिए भी आगे आंदोलन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।
दीदी अब राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर परिपक्व हैं और अच्छी तरह समझ रही हैं कि तुरंत पूंजी और निवेश के तमाम दरवाजे नहीं खुले तो खैरात बांटकर आम जनता तो क्या अपने समर्थकों को भी बांधे रखना मु्शिकल है।
पहले ही दीदी गुजरात के विकास माडल के तहत निजी उद्यम को प्राथमिकता देने की घोषणा करती रही हैं और उनकी सारी परियोजनाएं, परिकल्पनाएं पीपीपी माडल के मुताबिक हैं तो केंद्र सरकार के विकास के माडल को अंजाम देना उनके लिए सैद्धांतिक या वैचारिक कोई पहेली वैसे ही नहीं है, जैसे राज्यों में राजकाज चला रहे रंग बिरंगे क्षत्रपों का यह सरदर्द कभी नहीं रहा है।
चुनाव भी विकल्पहीनता, नेतृत्वविहीन वामपक्ष की अविश्वसनीयता और सक्रिय संघ समर्थक मोदी दीदी गुपचुप गठबंधन से जीतने के बाद वोटबैंक साधने की तात्कालिक कोई अवरोध दीदी के समाने नहीं है और इसीलिए फिर बंगाल में सेज समय है।
दीदी अपनी छवि में कैद रही हैं जो अब नारदा शारदा दफा रफा हो जाने के बावजूद धूमिल हैं तो किसी महान कलाकार की तरह वे भी अब आत्म ध्वंस के मूड में अपनी तराशी हुई छवि तिलांजलि देने की तैयारी में हैं और जिस सिगूर और नंदीग्राम से उनकी विजयगाथा की शुरुआत है वहीं उसे परिणति देने के लिए वे अब फिर बुद्धदेव के चरण चिन्ह पर चलकर सेज(SEZ) सवार अश्वमेधी सिपाहसालार हैं।