क्‍या यह समूह में होने की अनिवार्य बुराई है कि समूह बिखर जाता है या फिर हिंदी प्रदेश की क्षुद्रता?

क्‍या इस प्रवृत्ति की आलोचना करने वाले को आप 'गंभीर' और 'क्रांतिकारी' कह कर मज़ाक में उड़ा सकते हैं?

अभिषेक श्रीवास्तव

दिल्‍ली के लेखक-पत्रकार मित्रों को अगर याद हो, तो 2006 में एक संगठन यहां बना था जिसका नाम था "साम्राज्‍यवाद विरोधी लेखक मंच"। हर इतवार आइटीओ के शहीद पार्क में बैठक होती थी। तीन बड़े आयोजन हुए वरवर राव, मुद्राराक्षस और अन्‍य लेखकों को लेकर। सांस्‍कृतिक चुप्‍पी के दमघोंटू माहौल में कुछ राजनीतिक हलचल हुई। डेढ़ साल बीतते-बीतते कुछ व्‍यक्तियों ने कुत्‍सा प्रचार कर के इसके कोर समूह की राजनीतिक ब्रांडिंग शुरू कर दी और एक समानांतर मंच बना लिया। उसके बाद न चाहते हुए भी संगठन बिखर गया। जो समानांतर मंच बना था, उसे भी ज़ाहिर तौर पर बंद कर दिया गया।

तीन साल बाद फिर एक नया सामूहिक प्रयास हुआ। डेमोक्रेटिक जर्नलिस्‍ट यूनियन बनाया गया। कई प्रोग्राम लिए गए। एक प्रोग्राम में एकाध लोगों के निजी हमले हुए। महत्‍वाकांक्षाओं के चलते यूनियन बिखर गया।

इसी दौरान कुछेक अस्‍थायी मंच बने, मोर्चे बने, बैठकें हुई। संस्‍कृतिकर्म के क्षेत्र में एक से ज्‍यादा पहलें हुईं। इन मंचों से एकाध जनवादी पत्रिकाएं भी निकलीं। सभी के विफल होने का एक ही अनुभव रहा कि एक बिंदु पर आकर इनमें नेतृत्‍व और श्रेय की होड़ मच गई। जहां थोड़ी हलचल हुई और लोकप्रियता मिली, कुछ लोगों की जीभ निकल आई। अधिकतर लोग जो गंभीर और सरोकारी थे, वे अपनी इज्‍जत बचाकर पीछे हट गए।

सामाजिक सरोकार में आत्‍मप्रचार और दुकानदारी का प्रवेश कैसे हर बार हो जाता है?

आखिर क्‍यों हर बार किसी सामूहिक पहल को निजी उपलब्धि बताने की कोशिश होती है? सामाजिक सरोकार में आत्‍मप्रचार और दुकानदारी का प्रवेश कैसे हर बार हो जाता है? क्‍या यह समूह में होने की अनिवार्य बुराई है कि समूह बिखर जाता है या फिर हिंदी प्रदेश की क्षुद्रता? क्‍या इस प्रवृत्ति की आलोचना करने वाले को आप 'गंभीर' और 'क्रांतिकारी' कह कर मज़ाक में उड़ा सकते हैं? "उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे" वाली ग्रंथि क्‍या सामूहिक खुदकुशी की ओर हमें नहीं ले जाती?

हिंदी के पब्लिक डोमेन में उठे हर प्रतिरोध में हर बार यह नौबत क्‍यों ला दी जाती है कि न चाहते हुए भी किसी की आंख में उंगली डालकर बोलना पड़ जाए?

इस बात को आखिर हम कब समझेंगे कि सवाल दरअसल उस स्‍पेस को बचाने का है जिसमें हम सब अब तक सांस ले पा रहे हैं और इसकी जिम्‍मेदारी हम सब की है। सैलाब आएगा, तो न बद्री पहलवान बचेंगे न उनके लौंडे। भीखमखेड़वी तो मारा ही जाएगा।