भूख के भूगोल की कोई जन सुनवाई नहीं है।
स्त्रियों के राजकाज में भूख का सवाल क्यों सबसे बड़ा है और अच्छे दिनों की सौगात में अनाज क्यों नहीं है?
सबिता बिश्वास
बात चाहे तो तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की अम्मा कैंटीन से शुरू कर सकते हैं या फिर इस तरह कि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से, जो दो रुपये चावल की दर पर खाद्य सुरक्षा की बात करती हैं। या फिर साठ के दशक में हरित क्रांति की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री बनी श्रीमती इंदिरा गांधी के समाजवादी गरीबी हटाओ के नारे से कर सकते हैं।
तीनों स्त्री राजनेताओं के विकास के विमर्श में भूख का सवाल सबसे बड़ा मुद्दा है।
इसके विपरीत, विकास के विमर्श में, अर्थ व्यवस्था के प्रबंधन में या नीति निर्माण के सिलसिले में राजकाज, राजधर्म और राजनीति में भूख का कहीं कोई वजूद नहीं है।

सारा फोकस भ्रष्टाचार के सवाल पर

नजारा यह है कि पंद्रह करोड़ रुपये का सालाना इनकाम टैक्स और सेलिब्रिटी होने के स्टेटस से ट्विटर पर एक टिप्पणी से केंद्र और राज्यों के साथ-साथ, मीडिया और प्रबुद्ध तबके का सारा फोकस भ्रष्टाचार के सवाल पर केंद्रित हो जाता है।
गौरतलब है कि सत्तर के दशक के छात्र युवा आंदोलन से लेकर आप और स्वराज परिप्रेक्ष्य में लोकायुक्त विमर्श और अन्ना हजारे के आंदोलन में देश में सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार और कालाधन का बन गया है और भूख, सेहत, बेरोजगारी, शिक्षा. वगैरह- वगैरह कोई मुद्दा ही नहीं है। जबकि भूख का भूगोल अब भी जस का तस है। उसका लगातार विस्तार हो रहा है और हम सिरे से उसे नजर अंदाज कर रहे हैं।
इसी सिलसिले में गौर करें कि इस मुद्दे के तहत चले आंदोलनों की वजह से सत्तर के दशक से जो राजनीतिक अस्थिरता की निरंतरता रही है, उसी की कोख से विकास का यह नया विमर्श नवउदारवादी मुक्त बाजार है, जिसके तहत राष्ट्र अब बाजार है और राजकाज बाजार के हितों का संरक्षण है।
भ्रष्टाचार के सवाल पर सत्ताबदल के बाद राजनीतिक अस्थिरता से जो अभूतपूर्व भुगतान संकट बना, उसके बाद से नवउदारवाद की समृद्ध संतानों के हवाले है राष्ट्र, राष्ट्र की व्यवस्था और यह सैन्यतंत्र जिसमें आम नागरिकों की आवाज बूटों से रौंदने के अलावा किसी काम की नहीं है।

जाहिर है कि आज मुंबई के बहुमंजिली चमकदार नागरिकों के एक ट्वीट से जो बवाल हो सकता है,...
दुनिया की सबसे बड़ी गंदी बस्ती उसी मुंबई के धारावी में कीड़े मकोड़े की तरह जिंदगी गुजर बसर करने वाले वोटर हैसियत में कैद आम नागरिकों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है।
पलटकर ट्वीट करने वाले मुख्यमंत्री को या फिर प्रधानमंत्री को उसी महाराष्ट्र के चंद्रपुर, गढ़चिरौली, गोंडिया और भंडारा के आदिवासियों की कोई चीख कभी सुनायी ही नहीं पड़ी आजादी के सात दशक के आर पार।
तो उसी महाराष्ट्र में आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से घुमंतु अनुसूचितों की कोई परवाह नहीं है।
विकास पैमाना है प्रगति का तो सवाल यह है कि यह विकास किसका विकास है और इस विकास में रोटी का सवाल कहां है?
जयललिता, ममता बनर्जी और इंदिरा गांधी जैसी स्त्री राजनेताओं की सोच अगर चूल्हे से शुरू होती है या फिर मनमोहन सिंह की मुक्तबाजारी सुधारक सरकार के राजकाज की बागडोर एक और स्त्री सोनिया गांधी के हाथों में होने पर मनरेगा जैसे कार्यक्रम से भूख को संबोधित होते हम देखते हैं तो यह महज संजोग नहीं है।

पितृसत्ता के मनुस्मृति अनुशासन में भूख के लिए प्राचीन काल में भी कोई वरीयता नहीं रही है
और सारा कर्मकांड अश्वमेधी राजकाज रहा है और संजोग से फासिज्म के राजकाज की पितृसत्ता के एजेंडे में भी भूख कोई मुद्दा नहीं है।
मसलन हाल में विकास के नाम पर रेलवे की ओर से असंसदीय तरीके से राजधानी, दुरंतो और शताब्दी गाड़ियों के किराये में मांग के मुताबिक किराया में भारी वृद्धि का सिलसिला है।
मजा यह है कि दस फीसद टिकट बिक जाने के बावजूद लगातार किराये में वृद्धि होनी है, लेकिन पूरी ट्रेन खाली भी रहे तो मांग न होने की स्थिति में किराया तदनुसार घटाने का कोई प्रावधान नहीं है।
बुनियादी सवाल है कि बुलेट ट्रेन तक जिन पटरियों पर दौड़ने वाली है, वे पटरियां इस देश के किसानों से छीनकर ली गयी जमीन पर बनी हैं। क्रयशक्ति से जल जंगल जमीन की अनंत बेदखली की तरह बेदखल कृषि से जुड़े भारतवासियों के लिए इस सबसे बड़े लाइफ लाइन नेटवर्क में कोई बर्थ या सीट आरक्षित नहीं है और न उनकी जनसंख्या के मुताबिक ट्रेनों में अब जनरल डिब्बे हैं।
अब विमान भाड़ा से भी ज्यादा किराया देकर जो लोग रेलों में चल सकते हैं, उनकी ही सेवा में समर्पित है भारतीय रेल।
यह अर्थव्यवस्था के प्रबंधन और नीतिगत फैसलों का कुल चरित्र है और बुनियादी किसी भी जरूरत और सेवा के मामले में विकास के विमर्श में मुक्तबाजार का यह सिलसिला है।
भूख के भूगोल की कोई जन सुनवाई नहीं है।