स्त्री को जीतने के लिए दिवाली, आइना देख लें!

सारा का सारा मुक्त बाजार स्त्री की देह पर सजा है, इसीलिए विकास दर के साथ बढ़ रही है लैंगिक विषमता!

सबिता बिश्वास

मंदिर मसजिद और धर्मस्थलों में प्रवेशाधिकार का जो आंदोलन चला है, वह मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी पितृसत्ता के तंत्र को ही मजबूत करता है।

वैदिकी या किसी अन्य धर्म आस्था के मुताबिक धर्मस्थल के गर्भगृह में उपासना के अधिकार से सामाजिक हालात नहीं बदलते हैं और न समता और न्याय का लक्ष्य बढ़ता है। लैंगिक विषमता के सर्वव्यापी पर्यावरण में आर्थिक राजनैतिक अधिकार भी निराधार हैं।

पितृसत्ता के मजबूत शिकंजे में फंसी कोई स्त्री सुरक्षित नहीं है।

बंगाल के नवजागरण से पहले जारी बाल विवाह, विधवा उत्पीड़न, शिक्षा निषेध, सती दाह के बर्बर समय से आज हम बेहद आगे निकल आये हैं। संविधान और कानून के प्रावधानों के बावजूद हम अभी घर, परिवार, समाज और सार्वजनिक स्थलों पर स्त्री की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर पाये हैं।

लैंगिक विषमता का परिवेश स्त्री सशक्तीकरण के दावों के बावजूद बदला नहीं है। धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान से वैज्ञानिक प्रगति की विपरीत दिशा में स्त्री के लिए पिर अमावस्या का अंधकार है।

सबसे खतरनाक बात यह है कि स्त्री अस्मिता को अब भी क्रयशक्ति से तौला जा रहा है।

दिवाली के मौके पर सारे विज्ञापन स्त्री के विज्ञापन हैं और स्त्री को वश में करने के तंत्र मंत्र यंत्र के विज्ञापन हैं। सारे उपहार उसे जीतने के लिए हैं। दिवाली की सारी रोशनी उसे हासिल करने के लिए है।

अशुभ शक्ति को जीतने के लिए यह प्रकाशोत्सव नहीं है बल्कि स्त्री की देह को नये नये तरीके से शतरंज की बाजी बनाने की क्रयशक्ति प्रतियोगिता है यह। गहनों से सहस्राब्दियों से स्त्री को जीतने की जो परंपरा रही है, वह आभिजात परंपरा अब आम जनता का धनतेरस है। जहां स्त्री को सम्मानजनक स्थान देने का एक ही मतलब है कि उसे गहने कपड़े उपहार में देकर उसे जीत लेने का स्वयंवर सजा दिया जाये।
भारत में विकास दर की तरह लैंगिक विषमता बढ़ रही है।
बंगाल में दुर्गोत्सव के दौरान, उसके पहले और उसके बाद स्त्री उत्पीड़न की सुनामी अभी थमी नहीं है। बंगाल के तमाम अखबार इन वारदातों के ब्यौरे से भरे हैं। जबकि आम तौर पर बंगाल में बाकी देश की तुलना में स्त्री अधिक स्वतंत्र मानी जाती है।

वैज्ञानिक चमत्कार और तकनीकी विकास, स्त्री शिक्षा के विस्तार के साथ जीवन के सभी क्षेत्रों में स्त्री अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हो रही है तो इसके साथ ही मुक्तबाजारी चकाचौंध में स्त्री तेजी से उपभोक्ता समाग्री में तब्दील हो रही है और सारा का सारा मुक्त बाजार स्त्री की देह पर सजा है।

ताजा खबरों के मुताबिक लैंगिक समानता के मामले में पिछले साल की तुलना में 21 स्थानों की बढ़त हासिल करने के बावजूद भारत को वैश्विक स्तर पर बेहद पिछड़ा यानी 87वां स्थान मिला है।

भारत को मिली बढ़त मुख्यतया शिक्षा में हुई प्रगति के कारण है। इस सूची में आइसलैंड शीर्ष पर है। फिर भी हम यह दावा नहीं कर सकते कि स्त्री शिक्षा में भारी प्रगति के बावजूद हमारे कठमुल्ला समाज में स्त्री की स्थिति बदली है।

इसके विपरीत सच यह है कि घर परिवार समाज धर्म-कर्म उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था में स्त्री का योगदान सबसे ज्यादा होने के बावजूद उसकी अस्मिता पर बलात्कारी पितृसत्ता का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है।

भारत ही नहीं, समूचे दक्षिण एशिया महादेश में जीवन के हर क्षेत्र में स्त्री अब नेतृत्वकारी भूमिका में है तो उसके उत्पीड़न और दमन के नये-नये तौर तरीके उसे फिर मध्ययुगीन दासी शूद्र अस्मिता में कैद करने के लिए जारी है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में बलात्कार की सजा फांसी हो जाने के बावजूद स्त्री के विरुद्ध तेजाबी बलात्कार अश्वमेध अभियान जारी है और कानून और व्यवस्था में कहीं भी स्त्री अब सुरक्षित नहीं है।

जेनेवा के विश्‍व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) द्वारा तैयार किए गए वैश्विक लैंगिक अंतर सूचकांक में भारत को 108वीं रैंक मिली है। भारत में इस साल लैंगिक अंतर में दो प्रतिशत की कमी आई है।
वैश्विक आर्थिक मंच द्वारा आंके गए चार क्षेत्रों में यह अंतर 68 प्रतिशत का है. ये चार क्षेत्र हैं- अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीतिक प्रतिनिधित्व।
डब्ल्यूईएफ ने कहा कि सबसे ज्यादा सुधार शिक्षा के क्षेत्र में हुआ है, जहां "भारत प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में अपने अंतर को पाटने में पूरी तरह सफल रहा है। " मंच ने कहा कि आर्थिक परिदृश्य में "और अधिक काम किया जाना बाकी है। " इस क्षेत्र में 144 देशों में भारत 136वें स्थान पर है।

स्त्री शिक्षा के ढोल नगाड़े के बावजूद शिक्षा हासिल करने में भारत को 113वां स्थान मिला। जबकि भ्रूणहत्या परंपरा में स्वास्थ्य एवं जीवित बचने के मामलों में इसे निचला 142वां स्थान मिलाहै वहीं राजनीतिक सशक्तीकरण के मामले में यह शीर्ष 10 देशों में रहा..वह भी शायद पंचायतों में राजनीतिक आरक्षण की वजह से जहां प्रधान हो गयी स्त्री का राजकाज पति, पिता या परिवार का कोई न कोई मर्द चलाता है और वह सिर्फ दस्तखत करती है। ज्यादातर मामलों में तो स्त्री पंचायत प्रधान को सभा में हिस्सेदारी की इजाजत भी नहीं है। यह शीर्ष स्थान बी इस हिसाब से अच्छा खासा फर्जीवाड़ा है।

रोजगार के मामले में व्यापक अनुपात में स्त्री को सरकारी गैरसरकारी नौकरियां मिलने का सामाजिक यथार्थ यह है कि विश्व आर्थिक मंच के वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट 2016 के अनुसार, वैश्विक कार्यस्थल लैंगिक अंतर और भी अधिक बढ़ा. वहीं लैंगिक आधार पर आर्थिक बराबरी आने में 170 और साल लग सकते हैं।

बहरहाल वैश्विक तौर पर शीर्ष चारों देश स्कैंडिनेवियाई हैं। पहले स्थान पर आइसलैंड, दूसरे पर फिनलैंड, तीसरे पर नॉर्वे और चौथे स्थान पर स्वीडन हैं।