स्मृति कोलाज मुक्तिबोध बनाम मस्तिष्काघात
स्मृति कोलाज मुक्तिबोध बनाम मस्तिष्काघात
धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता स्मृतिलोप का सबसे बड़ा विपर्यय है।
अब भारतीय संविधान और भारतीय लोकतंत्र भी स्मृति मात्र हैं और उनका तेजी से विलोप हो रहा है। अदालती फैसले भी मनुस्मृति का हवाला देकर होने लगे हैं।
पलाश विश्वास
आज मुक्तिबोध की 50वीं पुण्यतिथि है.. मैं जन्मतिथि और पुण्यतिथि मनाने में यकीन नहीं रखता। हमारे कृषिजीवी समाज में जन्मदिन मरणदिन कामकाजी दिनों में इतने एकाकार होते हैं कि जन्म मृत्यु गैरप्रासंगिक। एक धारा में बहकर प्रवेश तो दूसरी धारा में बहते हुए चले जाना।
धर्ममते देहमुक्ति हेतु अंतिमसंस्कार धर्मांतरे स्मृतियों में अस्तित्व विलीन हो जाने की प्रथा है, जहां दुःख शोक ताप एकाकार है।
सही मायने में मुझे अपने माता पिता की पुण्यतिथि माने का भी कोई औचित्य नजर नहीं आता। कोई किसी को याद करें या नहीं, मृत्योपरांत इससे कुछ भी बदलता नहीं है।
स्मृतियों की प्रांसगिकता अगर समाज जीवन में न हो तो वे स्मृतियां भी कागज के नावों में सवार सुनामी के मुकाबला करने का अभ्यास है और कुछ भी नहीं।
हमारी लोकपरंपराओं में जो स्मृतियां जीवन को और समाज को और राष्ट्रतंत्र को भी बदलने के संदर्भ में अतिशय प्रासंगिक हैं, उन्हें हम भुलाते रहे हैं।
जैसे बौद्धमय भारत की, पंचशील अनुशीलन की स्मृतियां, जैसे सामंती मध्ययुग में दैवीय राजकाज के विरुद्ध हाड़ मांस रक्त से लबालब मनुष्यता के विद्रोहात्मक जयघोष के सूफी संतों के साहित्यिक आंदोलन की स्मृतियां और साम्राज्यवाद के खिलाफ सहस्राब्दियों से जारी जनविद्रोह के अनंत सिलिसिले की अटूट स्मृतियां।
जैस बहिष्कृत अस्पृश्य अश्वेत जनसमुदायों का प्रकृति से अद्वैत संबंध से जुड़े उत्पादन संबंधों की जटिल स्मृतियां और सभ्यता के विकास के रास्ते आहिस्ते आहिस्ते उन स्मृतियों का विलोप। उसकी स्मृतियां भी।
मोक्ष स्मृतियों से अलहदा हो जाने का नामांतर है।
इहकाल भूलकर परकाल की लालसा, जिसे हमारे पुरखे चार्वाक ने सिरे से खारिज करते हुए मार्क्सवादी विचारधारा के अभ्युदय से पहले ही उदात्त कंठ से कहा था- ऋणम् कृत्वा घृतम् पीवेत।
मनुष्य के अस्तित्व के बाहर किसी ईश्वर और धर्म का अस्तित्व नहीं है, बंगाल की धर्मनिरपेक्ष बाउल परंपरा में देहतत्व का सार यही है।
मुक्त बाजार में मोक्ष का आध्यात्म लेकिन ओशो के संभोग से समाधि का ही अनंत पथ है और उपभोक्ता समाज की स्मृतियां समाप्त होना इसके लिए अनिवार्य शर्त है।
स्मृति लोप हुआ तो इतिहास भूगोल बेमायने और इतिहास बोध न हुआ तो वैज्ञानिक दृष्टि असंभव और ये नहीं हुए तो साहित्य, संस्कृति, राजनीति, अर्थशास्त्र सब कुछ मनुष्यता के विरुद्ध ही मोर्चाबंद।
स्मृतियां सरल नहीं होती।
स्मृतियां तरल होती हैं तो हों स्मृतियां गरल होती हैं तो, कुहासे के मानिंद उत्तुंग शिखरों पर या नीली झील की सतह पर तिरती बर्फ या झरने की गहराइयों की गूंज या किसी मनुष्य के शोक में एकाकी विलाप या इन सबके मध्यउत्पादन प्रणाली में चालू हाथ पांव के मध्य कोई अभिव्यक्ति के अलग-अलग रूपों में आ सकती हैं, जा सकती है स्मृतियां।
स्मृतियों के बिना न जीवन है।
स्मृतियों के बिना कोई संबंध नहीं। न स्मृति बिना मनुष्यता संभव है।
स्मृति हीन सभ्यता मनुष्यता और प्रकृति के विरुद्ध नरसंहार संस्कृति अवशेषे। मुक्तबाजारे। इति सिद्धम।
मुझे निजी तौर पर जैसे कामायनी पर पुनर्विचार के मुक्तिबोध के तेवर हैं, जैसी उनकी लंबी कविता अंधेरे में है, या फिर ब्रह्मराक्षस का जो भविष्य के प्रति और अतीत के प्रति दायबद्ध कार्यभार है, वहां लोकस्मृतियों के कोलाज के अलावा कुछ और नजर नहीं आता।
मेरे लिए मुक्तिबोध से तात्पर्य मुक्तकामी जनता का पक्ष जितना नजर आता है, उससे कहीं जनस्मृतियों का कोलाज नजर आता है उनका सारा रचना संसार।
मैं जब भी मुक्तिबोध को पढ़ता हूं या उनकी अमोघ पंक्तियां उद्धृत करता हूं, बार-बार उन स्मृतिसमूहों के कोलाज में मुक्तिकामी जनता की छटफटाहट को स्पर्श करता हूं और उसी स्पर्श में बसती है कविता की संवेदनाएं, जो पोर-पोर में प्रवेश करके अस्तित्व को ही ज्वालामुखी बनाने का काम कर जाती हैं।
जनस्मृतियों की कोख में ही चूंकि संस्कृति और कलाओं की विरासत है, तो वह विज्ञापनी जिंगल तो हो ही नहीं सकती।
खालिस माटी की सौंधी महक के बजाय भाषिक कौशल उसकी संरचना तो हो ही नहीं सकती। स्मृतिमुक्त संस्कृति लेकिन जनसंस्कृति नहीं हो सकती।
इतिहास और सांप्रतिक इतिहास से मुंह चुराने का सबसे अहम तरीका धर्मोन्माद है।
मध्य युद्ध में देशे-देशे हमने सामंती और राजतंत्रीय राज्यव्यवस्था में आम जनता को कुचलने वाले इस धर्मोन्माद को देखा है और अकेले यूरोप का इतिहास पढ़ना इसके लिए पर्याप्त है। इसी धर्मोन्माद के मध्य औद्योगीकरण के रास्ते पूंजीवाद का विजयध्वजा लहराता रहा।
तो मुक्तबाजारी तकनीकी क्रांति में भी उसी धर्मोन्माद का जयघोष।
आज मुक्तिबोध के जन्मदिन पर गुजरात विशेषज्ञ भाजपा के संघी प्रधान का लंबा चौड़ा साक्षात्कार छपा है अंग्रेजी अखबारों में, जिसमें केसरिया राज्यतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्थि लव जिहाद मध्ये कारपोरेट कार्निवाल बताया गया है।
इसी के मध्य ओएनजीसी, कोल इंडिया और एनएचपीसी को बेचकर 45 हजार करोड़ रुपये की कमाई का ब्यौरा है तो भारत में बोफोर्स तोपों की नया जन्म वृत्तांत भी है और शारदा पोंजी अर्थव्यवस्था का तमाझाम भी है।
मैंने इन मुद्दों पर अंग्रेजी और बांग्ला में विस्तार से लिखा है, जो मेरे ब्लागों पर उपलब्ध है। हम इस अश्वमेध की बारीकियों पर फिलहाल इस आलेख में नहीं लिख रहे हैं।
प्रबल स्मृति निर्भर मुक्तिबोध का साहित्य जनसाहित्य भी इसीलिए है कि वह स्मृतियों का कोलाज है।
स्मृति लोप से तात्पर्य मस्तिष्काघात है।
धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता स्मृतिलोप का सबसे बड़ा विपर्यय है।
इसका तात्पर्य समाज और जनता को मस्तिष्काघात का शिकार बनाकर मुक्त बाजार।
2008 में बामसेफ के जयपुर राष्ट्रीय सम्मलेन के मौके पर जयपुर हाईकोर्ट के परिसर में मनुमहाराज की मूर्ति की तस्वीरें खींचकर लाये थे अनेक कार्यकर्ता। मुझे आज भी मालूम नहीं है कि वहां वास्तव में मनुमहाराज की कोई मूर्ति है या नहीं।
अब भारतीय संविधान और भारतीय लोकत्ंत्र भी स्मृति मात्र हैं और उनका तेजी से विलोप हो रहा है। अदालती फैसले भी मनुस्मृति का हवाला देकर होने लगे हैं।
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