इस देश के बहुजन यानी जनसंख्या का अधिकाँश हिस्सा नहीं जानता कि भाजपा की वैचारिक आधारशिला क्या है ? इस बहुसंख्यक तबके के बड़े हिस्से ने शायद ही सावरकर, गोलवलकर,श्यामा प्रसाद मुखर्जी,दीनदयाल उपाध्याय जैसे ‘चिंतकों’ का नाम सुना होगा और उससे से भी कम ये जानते होंगे कि उनकी वैचारिक ‘शिक्षा-दीक्षा’ कहाँ और किन नरसंहार-प्रिय लोगों के बीच हुई है यानी फासीवाद और नाज़ीवाद किस चिड़िया का नाम है ? हिन्दू और हिंदुत्व का अंतर न तो उन्हें पता है और न ही बताया जाता है क्योंकि यही भ्रम तो सत्ता की कुंजी है.

नरेन्द्र कुमार आर्य
हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की वैचारिक हत्या/आत्महत्या, संदीप पांडे का बीएचयू से निकला जाना (बीएचयू के कुलपति कहते है केंद्र सरकार ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक की है और उसे जनता ने चुना है), दाभोलकर, पानसरे और कुल्बर्गी की हिंदुत्ववादियों द्वारा हत्या और अम्बेडकर-पेरियार अध्ययन चक्र पर अत्याचार – ये सभी घटनायें एक ही सूत्र से जुड़ी हैं। विकास और पूँजी के लिए पाश्विक हद तक पहुँचते भारत ने इनको पाने का उपाय ढूँढा एक आत्मघाती आविष्कार में। कांग्रेस के भ्रष्ट और मस्त कुशासन से त्रस्त भारतीयों ने सत्ता की बागडोर एक ऐसे व्यक्ति को दे दी, जिसके ऊपर राजनीतिक नरसंहार के आरोप लगे थे। बदलाव की प्रबल आकाँक्षा उन्हें एक ऐसी पार्टी में दिखाई देने लगी जिसके मुखौटे भर से वो परिचित थे। इस तथ्य से अनभिज्ञ कि उसका थिंक टैंक किस विद्या में पारंगत है और यकीन रखता है।

हिन्दू और हिंदुत्व का अंतर
इस देश के बहुजन यानी जनसंख्या का अधिकाँश हिस्सा नहीं जानता कि भाजपा की वैचारिक आधारशिला क्या है ? मैं उन लोगों की बात कर रहा हूँ, जिन्होंने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को भारत की सरकार और शासन चलाने का मौक़ा दिया है। मैं दावे के साथ कहा सकता हूँ इस बहुसंख्यक तबके के बड़े हिस्से ने शायद ही सावरकर, गोलवलकर,श्यामा प्रसाद मुखर्जी,दीनदयाल उपाध्याय जैसे ‘चिंतकों’ का नाम सुना होगा और उससे से भी कम ये जानते होंगे कि उनकी वैचारिक ‘शिक्षा-दीक्षा’ कहाँ और किन नरसंहार-प्रिय लोगों के बीच हुई है यानी फासीवाद और नाज़ीवाद किस चिड़िया का नाम है ? हिन्दू और हिंदुत्व का अंतर न तो उन्हें पता है और न ही बताया जाता है क्योंकि यही भ्रम तो सत्ता की कुंजी है. हिन्दू होने की अस्मिता कब हिंदुत्व की गुलाम बन जाती है उन्हें पता ही नहीं चलता? उन्हें पता नहीं चलता वास्तव में ब्राह्मणवादी रक्तपिपासु उन्हें एक मानवीय हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे होते हैं. हिन्दू और राष्ट्रवादी होने के गुमान में वो अपने ही जैसे लोगों का क़त्ल और खून पीने के लिए उकसाए जाते हैं। उन्हें लगता है भाजपा, आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल जैसे संगठन तो उन्हीं के और उन्ही के लिए हैं। आखिर वो भी तो हिन्दू ही हैं। हिन्दू होने में कहाँ कोई बुरी बात है?
मगर यही मनौवैज्ञानिक खेल तो ये संगठन खेलते हैं, उनके मस्तिष्क और मानसिकता के साथ। वो उनको इस बात का एहसास ही नहीं होने देते कि ‘अपनेपन’ की आड़ में वो भयंकर जातीय, नस्लीय और धार्मिक घृणा फैलाकर उनको हथियार की तरह इस्तेमाल कर उनका शोषण कर रहे होते हैं। उन्हें बताया जाता है कि सिर्फ वही नहीं हैं ‘उनके अलावा’ भी इस देश में ‘अन्य’ लोग रहते हैं। ये वे लोग हैं जो उनकी वर्तमान दुर्दशा के लिए जिम्मेवार हैं। ये ‘अन्य’ सदियों से उन्हें गुलाम बनाये रहे। इन्होंने उनके पूर्वजों को मारा, उनका बेरहमी से क़त्ल किया, उनके मंदिरों को तोड़ डाला और उन्हें हमेशा दबा कर रखा। इतिहास की गलतियों को सुधारने का वक्त अब आ गया है। उन्हें सिर्फ इतना ही बताया जाता है, इससे ज्यादा जानने का न तो उनके पास साधन हैं और न ही वो लोग जो असलियत जानते हैं इसको बताना जानते हैं।

हमेशा झूठ की शहतीरों पर टिकी होती हैं फ़ासीवादी शक्तियां
फ़ासीवादी शक्तियां हमेशा झूठ की शहतीरों पर टिकी होती हैं. आज इन शक्तियों के पास पूंजीपतियों की ताकत है जिससे उन्होंने जनसंचार के परंपरागत और नए माध्यमों पर एकाधिकार कर रखा है.

इतिहास के लिखित सफहों पर ख़ूनी स्याही फेर रहे हैं हिंदुत्ववादी
सत्ता ने उन्हें इतिहास को पुनर्रचित करने की क्षमता दे दी है. न सिर्फ वो इतिहास के लिखित सफहों पर ख़ूनी स्याही फेर रहे है. बल्कि वो ऐसे कारनामों को भी अंजाम दे रहे हैं ताकि वो इतिहास में दर्ज हो सकें। अपनी वैचरिक तलवारों और भालों से वो अब तक नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पंसरे और कुल्बर्गी जैसे तर्कविदों की हत्या कर चुके हैं। और वो लेखक और बुद्धिजीवी जो उनके समर्थन में उतरे उन्हें ‘वामपंथी’ और सरफिरे लोकप्रियता/पैसे के लिए भूखे लोग कह कर ख़ारिज किये जा चुके हैं।
सन्देश बहुत साफ़ है अपने दिमाग को या तो हमारे तमीरदारी में लगा दो या उसे सड़ने और जंग खाने के लिए छोड़ दो। हमें सवालों से सख्त नफरत है, खासतौर से वो जो हमारी विचारधारा के ऊपर खड़े किये जाएँ। हमारे पास अक्षय और अनश्वर ज्ञान की ब्रह्मवादी थाती और विरासत है जिसे हमने फ़ासीवादी खाद और रक्तमज्जा से पुष्ट किया है। हमारे विचार,ज्ञान और विचारधारा अपौरुषेय और परासंदेह है। चुनौती और सवालों को तर्क से समाप्त नहीं किया जा सकता उसके लिए जीवन का बलिदान आवश्यक है। ‘राष्ट्र’ और ‘धर्म’ की रक्षा के लिए लिए गए ‘बलिदान’ और किये गए नरसंहार सर्वथा न्यायसंगत और कौटिल्यात्मक हो कर भी राजधर्म के अनुकूल है. ये सोच के आधार है इनके।

दलितों और पिछड़ों से नफ़रत है हिंदुत्ववादियों को
इन्हें मुस्लिम नापसंद है. इसाई और बौद्ध भी इन्हें पसंद नहीं हैं। इन्हें वर्णाश्रम और मनुस्मृति पसंद है। इन्हें दलितों और पिछड़ों से नफ़रत है। इन्हें नफरत है इनसे क्योंकि इनकी अस्मिता का सत्ताशास्त्र इनके कारण विकृत हो रहा है। संसाधनों पर उनका सदियों का एकाधिकार समाप्त हो रहा है। सैकड़ों साल से उनके अधीन गुलामों की तरह लोग अब शिक्षित होंगे, भौतिक और मानसिक बराबरी करेंगे। ये देश अब मनुस्मृति सरीखी गन्दी किताबों की जगह संविधान से चलेगा। यहाँ जातियों की हायरार्की की जगह लोकतांत्रिक मूल्य और विचार पसारेंगे। एक दलित एक ब्राह्मण की बराबरी करेगा. औरत आदमियों की बराबरी करेगी तो गुलामी कौन करेगा उनकी। इस तरह तो पूरी पुरातन ब्राह्मणवादी व्यवस्था ही नष्ट हो जायेगी। सदियों से अटूट उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। सबसे ज्यादा डर इन्हें इन्हें बहस और तार्किकता से लगता है। इसलिए इसको वो समूल नष्ट कर डालना चाहते हैं। इन्हें व्यक्ति और समुदाय नहीं भीड़ और उन्मादी चाहिए जो उनके एजेंडे को आसानी से क्रियान्वित कर सकें।
अभी हमने बहुत कम देखा है, मुझे इससे भी और भयावह परिणामों की अपेक्षा है। यदि हम सिर्फ भीड़ की तरह उनके इशारों पर नाचते रहेंगे। यदि हम अपने ही बनाये छद्म घेरों और संकीर्ण दीवारों से बाहर नहीं आयेंगे।
डॉ. नरेन्द्र कुमार आर्य, युवा लेखक, कवि एवं स्वतंत्र शोधकर्ता
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