हथौड़ा : बुद्धिजीवियों की 'बौद्धिक सक्रियता' के बहाने
हथौड़ा : बुद्धिजीवियों की 'बौद्धिक सक्रियता' के बहाने
अंशुमाली रस्तोगी
उधर मिस्र में क्रांति हुई इधर बुद्धिजीवियों ने अपनी 'बौद्धिक सक्रियता' को बढ़ाना शुरू कर दिया है। बुद्धिजीवि कलम-दवात लेकर कमरों में कैद हो गए हैं। वहीं से मिस्र की क्रांति की गाथा को कह-लिख रहे हैं। भरी-भरकम शब्दों का तो उनके पास भंडार है। जिसके पास जितने शब्द हैं, उतने ही तर्क भी। सभी अपने-अपने तर्क-वितर्क को मिस्र की क्रांति के बहाने अपने मुल्क में खपाने की कोशिश कर रहे हैं। अभी एक बड़े बुद्धिजीवि को मैंने कहते सुना कि 'मिस्र की क्रांति वैचारिक क्रांति थी।' हो सकता है उनका कथन इसलिए भी सही हो क्योंकि जब पेट में भरपूर रोटी पड़ती होती है, तो हर क्रांति हमें वैचारिक ही नजर आती है।
विचार का बुद्धिजीवियों से पुराना नाता रहा है। बिना विचार बुद्धिजीवि कोई भी बात करना पसंद नहीं करते। अपने आस-पास जब भी कोई वैचारिक धारा को बहते देखता या सुनता हूं, तुरंत वहां से कट लेता हूं, क्या पता जाने-अनजाने मैं भी उसी में न बह जाऊं। वाकई बहुत कठिन होता है बुद्धिजीवियों की जटिल विचारधारा के साथ रहना व बहना। पल में कब और किधर बह जाएं इनका कुछ पता नहीं होता। अभी मिस्र की क्रांति के गीत गा रहे हैं, क्या पता थोड़ी देर में माओवादियों को क्रांतिकारी घोषित कर दें।
मिस्र की क्रांति का असर भारत पर कैसा हो सकता है, इसे किसी राजनीतिज्ञ से न पूछकर सीधा बुद्धिजीवि से पूछिए। फिर देखिए बुद्धिजीवि का जवाब। बंधु हैरान रह जाएंगे हैरान। उनके तर्क पर बार-बार अपनी बुद्धि के घोड़े को दौडाएंगे फिर भी बात पल्ले नहीं पड़ेगी। क्योंकि बुद्धिजीवि का तर्क हमेशा आम आदमी के तर्क से जुदा रहता है। यानी कुछ अलग हटकर।
अमां वो तो बस नहीं चलता, नहीं तो बुद्धिजीवि पलभर में मिस्र से भी 'विशाल क्रांति' यहां कर सकने का ख्वाब पाले रहते हैं। मजे की बात यह है कि बुद्धिजीवियों की आधे से ज्यादा क्रांतियां पन्नों पर ही सिमटकर रह जाती हैं। जिनका रसूख कुछ ऊंचा होता है, वे अपनी क्रांति की शान यहां-वहां मंचों पर भी झाड़ आते हैं। इधर जब से कुछ बुद्धिजीवि फेसबुक पर सक्रिय हुए हैं, पूछिए मत हर रोज न जाने कौन-कौन सी और किस-किस तरह की शाब्दिक क्रांतियां करने को कहते रहते हैं। मैं तो उनकी गली का रूख इसलिए करता ही नहीं अगर गलती से किसी बुद्धिजीवि का साया मुझ पर पड़ गया, तो यहां लेने के देने पड़ जाएंगे।
आज हुस्नी मुबारक जहां कहीं भी होंगे मन ही मन बुद्धिजीवियों को जरूर कोस रहे होंगे। उनके कोसने का संदर्भ संभवतः यही होगा कि बुद्धिजीवियों ने किया तो कुछ नहीं, बस बंद कमरों में बैठकर यहां की वहां लगा रहे हैं। वैसे लगाई-बुझाई का काम बुद्धिजीवि बेहद चपलता के साथ करते हैं। बुद्धिजीवि की जिस विचारधारा के साथ गोटी फिट बैठ गई समझिए उसका महिमागान शुरू। फिर वो किसी की नहीं सुनते। अपनी ढफली, अपना राग।
खैर, मिस्र की इस ताजा क्रांति का असर तो हमें आगे देखने को मिलेगा, मगर इस वक्त बुद्धिजीवियों के संदर्भ में जो मैं समझ पाया हूं, वो यही है कि उनकी शाब्दिक क्रांतिकारिता पर न जाएं जो हकीकत है उसका सामना करें। क्योंकि 'जड़ व्यवस्था' वो बदलने में बुद्धिजीवियों से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका आम जनता की रहती है। मिस्र का उदाहरण हमारे सामने है।


