हम सर्जिकल स्ट्राइक की बात करने वाले महान राष्ट्र हैं जो अपने जवानों को कायदे का खाना भी नहीं देते
हम सर्जिकल स्ट्राइक की बात करने वाले महान राष्ट्र हैं जो अपने जवानों को कायदे का खाना भी नहीं देते
हम सर्जिकल स्ट्राइक की बात करने वाले महान राष्ट्र हैं जो अपने जवानों को कायदे का खाना भी नहीं देते
मुझे इस जमीं पर रहने दो और हो सके तो इस जमीं को रहने लायक बनाओं
विक्की कुमार
नवंबर का महीना था। साल 2015। मैं, पापा और माँ एक सवारी गाड़ी से पटना जा रहे थे। माँ की तबियत थोड़ी ज्यादा ख़राब थी। वैसे तो पापा कई डॉक्टरों से मिल माँ का इलाज करवा चुके थे किंतु माँ की तबियत में कोई सुधार नजर नहीं आ रहा था। माँ भी अजीब है। वो अपने तकलीफ को छुपाती है। चाहे उसे लाख तकलीफ हो। कारण का तो पता नहीं लेकिन ऐसी ही है मेरी माँ। उस दिन भी वो अपनी तकलीफ को छुपा ही रही थी किन्तु पापा ने ठाना अब पटना दिखाना है।
पापा ने एक ऐसे डॉक्टर से संपर्क किया जिनकी नौकरी सरकारी अस्पताल में तो थी किन्तु साथ में उनकी प्राइवेट क्लीनिक भी।
उस सरकारी अस्पताल का नाम मैं नहीं बता सकता और न ही डॉक्टर का नाम क्योंकि मेरा मकसद उनके नाम को उजागर करना नहीं है।
सुबह की गाड़ी थी, जिसने हम सभी को 8 बजे के आस-पास पटना पहुंचा दिया। सारी दुकाने, सारे रास्ते सुनसान पड़े थे क्योंकि पटना जैसे शहरों के लिए 8 बजे की सुबह कुछ ज्यादा सुबह होती है।
पटना पहुंचते ही पापा ने उस डॉक्टर से संपर्क किया जिससे माँ का इलाज करवाना था। डॉक्टर से बात हुई और उन्होंने कहाँ फिलहाल मैं अपने सरकारी अस्पताल में मरीजों को देख रहा हूँ। आप मेरे प्राइवेट क्लीनिक पर मेरा इंतजार कीजिये।
माँ की तबियत बिगड़ती जा रही थी सो पापा ने उनसे अनुरोध किया। मैं वही आकर दिखा लेता हूँ क्योंकि इसकी (माँ) तकलीफ बहुत ज्यादा बढ़ गई है। उन्होंने इसकी इजाजत दे दी। मैं, पापा और माँ एक ऑटो को रिजर्व कर उनके सरकारी अस्पताल पहुँच गये।
ऑटो ने 200 रुपये का किराया लिया। वहां पहुँच पापा ने पुनः उसी डॉक्टर से संपर्क किया। उन्होंने कहा आप अंदर आ जाइये। हम सभी अस्पताल के प्रवेश द्वार से अंदर जाने लगे।
गेट पर गार्ड ने अपना फर्ज निभाते हुए हमलोगों को रोकता है और पूछता है। क्या काम है ? किससे मिलना है ?
पापा ने उसी डॉक्टर का नाम लेते हुए सारी बाते बताई। सारी बातों को सुनकर गार्ड ने अंदर जाने की अनुमति दी साथ में डॉक्टर किस कमरे में है वो भी बताया।
उसके बाद की सारी घटनाओं को लिखते हुए एक- एक हलचल मेरी आँखों के सामने झलक रहा है।
सादे कपड़ो में लिपटा वो डेड बॉडी जो मेरे जाने तक वही पड़ा था। उस डेथ बॉडी को क्रॉस कर लोगों के साथ अस्पताल के कर्मचारी आते - जाते रहे। किन्तु उस डेड बॉडी को कोई पूछने वाला नहीं था। हम सभी ने भी डेड बॉडी को क्रॉस कर डॉक्टर के कमरे की तरफ निकल पड़े।
कुछ दूर चलने के बाद हम सभी ने डॉक्टर वाले कमरे में प्रवेश किया जिनसे हम सभी को मिलना था।
पतला चेहरा, लंबी नाक, आँखों पर चौकर चश्मा, सर पर काले बालों के बीच झांकते उजले बाल उनकी उम्र को बता रहे थे। शरीर पर सफ़ेद कोर्ट, जिसके ऊपर लटकता आला और हाथों में मरीज की फाइल लिए डॉक्टर मरीजो का हाल-चाल पूछ रहे थे। उस मरीज से जिसके बेड पर शायद एक मरीज भी ठीक तरह से करवट नहीं बदल सकता उस बेड पर दो-दो, तीन- तीन मरीज लेटे हुए थे। एक का पैर दूसरे के सर के पास और दूसरे का का सर एक के पैर के पास।
कमरे में शायद 20- 25 बेड होंगे और सारे बेडों की हालत ठीक वैसे ही थी। मरीजों का इलाज तो हो रहा था किंतु एक ऐसा इलाज जो मज़बूरी में किया जा रहा था। मरीज ठीक होने के लिए और डॉक्टर ठीक करने के लिए। भरसक कुछ दिनों बाद मरीज ठीक हो जाते हो किन्तु जितने दिन वह वहां रहते है उनका अपनी बीमारी से ज्यादा वहां का इंफ्रास्ट्रक्चर उनके लिए तकलीफ देह साबित हुआ होगा।
कमरे में लगा बिजली का कनेक्शन तो ठीक था किंतु लगे बल्ब फयूज थे तो किसी में बल्ब थे ही नहीं। चार - पांच बल्बों में से एक दो जल रहे थे। इलाज का जो नजारा मैंने वहां देखा था वो कभी - कभी भूले - बिसरे गीतों की तरह न्यूज़ चैनलों और अखबारों में अपनी जगह बना लेता है।
खैर जो हो माँ का इलाज हुआ और वो ठीक भी हो गई। आप सोच रहे होंगे मैंने यह बात क्यों बताई ?
दरअसल पत्रकारिता का छात्र होने के नाते मैं अक्सर अखबारों का संपादकीय पढ़ता हूँ। दो दिन पहले भी मेरे हाथ में प्रभात खबर की एडिटोरियल पेज ही थी। जिसमें आकार पटेल जी ने ब्रिटिश में व्यतीत जीवन की अपनी आप - बीती बताई थी। उन्होंने ब्रिटेन की स्वास्थ्य सेवाओं की तुलना भारत के स्वास्थ्य सेवाओं से की थी। उन्होंने अपनी बात रखते हुए लिखा था कि ब्रिटेन प्रतिवर्ष राष्ट्रीय स्वास्थ सेवाओं पर 9.3 लाख करोड़ रुपये व्यय करती है जो प्रति नागरिक औसतन 1.5 लाख रुपया पड़ेगा। वहीं भारत का केन्द्रीय स्वास्थ बजट प्रतिवर्ष 33,000करोड़ रुपया खर्च करती है।
इसका मतलब हुआ कि हमारे यहाँ प्रति नागरिक मात्र 260 रूपया ही खर्च किया जाता है।
बेशक हमारा देश गरीब है, लेकिन हम वही गरीब देश हैं जिसने पिछले वर्ष लड़ाकू विमान की खरीद पर 59,000 करोड़ रुपया खर्च किये थे और इस वित्त वर्ष हम बुलेट ट्रेन पर 99,000 करोड़ रुपया खर्च कर रहे है क्योंकि हमारे लिए महाशक्ति का मतलब है लड़ाई लड़ने के योग्य होना, जापानी तकनीक का दिखावा करना और विशाल मूर्तियां बनाना।
ब्रिटेन में सभ्य देश का मतलब है - ऐसी दक्ष कार्यप्रणाली विकसित करना जो मिलजुल कर लोगों की देख- रख करे और उन्हें पोषित करे। यहां तक कि गैर ब्रिटिश नागरिकों को भी। मेरा भी यही कहना है - हमें सोचना होगा हम कहाँ है ?
एक तरफ हम मंगल पर पहुँचने की योजना बना रहे हैं तो दूसरी तरफ पृथ्वी को रहने लायक नहीं बना पाये हैं। आज हम बुलेट की बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ भारतीय रेल की दुर्दशा को सुधार नहीं पाये।
एक तरफ हम सर्जिकल स्ट्राइक की बात करते हैं तो दूसरे तरफ जवानों के खाने को खाने लायक बनाने में असफल। एक तरफ स्मार्ट सिटी की बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ सिटी की नाली - गली को सुधारने में विफल।
एक तरफ नए अस्पताल खोल कर उसका गुणगान करते हैं तो दूसरी तरफ अस्पतालों की दुर्दशा पर चुप। एक तरफ किसानों की बात करते है तो दूसरी तरफ किसानों की आत्महत्या की घटना को कम करने में विफल।
एक तरफ मेक इन इंडिया की बात करते हैं तो दूसरी तरफ एफडीआई में खुली छूट।
एक तरफ गंगा की सफाई की बात करते हैं तो दूसरी तरफ प्रति दिन 3000 MLD गंदा कचड़ा को गंगा में जाने से रोकने में विफल।
एक तरफ हम स्टार्ट अप, स्टैंड अप की बात करते हैं तो दूसरी तरफ लघु बिज़नेस को नुकसान।
एक तरफ हम भ्रष्टाचार पर चिल्लाते हैं तो दूसरी तरफ करोड़ो के राजनीतिक चंदे पर चुप।
एक तरफ हवा में सफर तो दूसरी तरफ सड़कों की बदहाली पर चुप। एक तरफ हम बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ कहते हैं, तो दूसरी तरफ उसके ऊपर के अत्याचारों पर चुप।
एक तरफ हम संसद आदर्श ग्राम पर सुर्खियां बटोरते हैं तो दूसरी तरफ उसकी दुर्दशा पर चुप। क्यों भाई ? क्यों ?
क्या हम मंगल पर जाने से पहले पृथ्वी को रहने लायक बना पाएंगे ? जहाँ सरकारी अस्पतालों में एक बेड पर दो- तीन मरीजों का इलाज जैसी कई अन्य बुनियादी समस्या मौजूद हैं। अर्थात एक तरफ हमें हवा में उड़ने का सपना दिखाया जा रहा है जबकि दिखाने वाले जमीन को रहने लायक नहीं बना सके हैं।
सोचिये। सोचने में हर्ज क्या है। सोच कर देखिये क्या मैंने कुछ गलत बोला क्या ? आप बोले या न बोले मैं तो हवा में उड़ने का सपना दिखाने वालों से अनुरोध करता हूँ मुझे हवा में मत उड़ाओ। मुझे इस जमीं पर रहने दो और हो सके तो इस जमीं को रहने लायक बनाओ।


