हम सांस्कृतिक से लेकर धार्मिक महाविनाश का पीपीपी माडल अपना रहे हैं
हम सांस्कृतिक से लेकर धार्मिक महाविनाश का पीपीपी माडल अपना रहे हैं
पलाश विश्वास
आज हम अपने बच्चों को संबोधित ही नहीं कर रहे हैं। न उनके शिक्षकों के साथ उनका वह अंतरंग संबंध है जो हमारे शिक्षकों का हमसे था।
गौतम बुद्ध ने धम्म के प्रचार में भिक्षुओं को हिदायत दी थी कि पंच शील के अनुशीलन और तात्विक बातों को सबसे पहले शिशुओं से साझा करें, जो निष्पाप और सही मायने में निरपेक्ष हैं। जो चीजों को उसकी हर बारीकी से पकड़ सकते हैं।
गौतम बुद्ध ने धम्म के प्रचार में भिक्षुओं को हिदायत दी थी कि पंच शील के अनुशीलन और तात्विक बातों को बच्चों के बाद फिर वृद्धों से साझा करें, जो संसार के सारे कष्ट झेल चुके हैं। क्योंकि अभिज्ञता की पूंजी के आधार पर उनका दिशानिर्देश ही समाज को बदलेगा।
गौतम बुद्ध ने धम्म के प्रचार में भिक्षुओं को हिदायत दी थी कि पंच शील के अनुशीलन और तात्विक बातों को बच्चों और वृद्धों को संबोधित कर लेने के बाद बाकी लोगों को। ताकि बदलाव के लिए पूरा समाज सक्रिय हो जाये।
आज शरदिंदु का छठीं में पढ़ने वाला बेटा जिस गंभीरता से सुबह ग्यारह बजे से लेकर पांच बजे तक एक जगह बैठकर अत्यंत गंभीर विचारमंथन में शामिल रहा, उससे तो यही लगता है कि बच्चे आज भी भविष्य के अग्रदूत हैं और हम हैं जो सिरे से बदल गये हैं।
आज एक बैठक में जो निष्कर्ष सबसे अहम है, वह लोक में वापसी का मुद्दा है।
हमारी सभ्यता का इतिहास उत्पादन संबंधों की नींव पर रहा है। उत्पादन संबंधों की नींव पर ही सामाजिक राजनीति व्यवस्था बनी है।
संगठनात्मक गतिविधियों की शुरुआत उन्हीं उत्पादन संबंधों की बहाली और वर्गीय ध्रुवीकरण से ही संभव है।
सिर्फ मुद्दे या सिर्फ विचारधारा से हम लोगों को एकताबद्ध नहीं कर सकते।
जितना जरूरी है अस्मिताओं को ध्वस्त करना, उससे ज्यादा जरूरी है लोगों की आजीविका से हमारी लड़ाई को जोड़ना।
उत्पादन प्रणाली में जो उत्पादक वर्ग है, उनके श्रम के बिना तकनीकी क्रांति का यह तामझाम और मुक्त बाजार का सारा बंदोबस्त बेकार है।
उत्पादन के लिए जो कच्चा माल है, वह भी इसी वर्ग के सहयोग बिना मिलना असंभव है। उत्पादों को अंतिम रूप देना और बाजार के लिए पैकेजिंग की व्यवस्था भी उन्हीं के हवाले। लेकिन बाजार पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है।
वे बाजार से बेदखल हैं। क्रय शक्ति से बेदखल हैं। और अपने ही उत्पाद के उपभोग के भी वे अधिकारी नहीं हैं। मुक्त बाजार का पूरा तिलिस्म इसी असमता और अन्याय के समीकरण पर टिका है। क्रयशक्ति की ट्रिंकलिंग से सत्तावर्ग का आधिपात्य श्रमजीवी वर्ग पर है और यही आर्थिक सुधारों, ग्लोबीकरण और मुक्त बाजार का पारस पाथर है।
बुनियादी मसला यही है कि हम अपने संसाधनों के मालिक क्यों नहीं हैं और बाजार हमें बहिष्कृत कैसे कर रहा है।
इस मसले को सुलझाये बिना मुक्तबाजार के प्रतिरोध की कोई संभावना नहीं है।
हमने बचपन में अपने गांवों में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था देखी है, वह सिरे से गायब है।
गांव जो अनंत संवाद का मंच हुआ करता था, अब ग्लोबल विलेज के ब्लैक होल में गायब है। तकनीक ने दूरियां घटाने की बजाय अलंघ्य दीवारें पैदा कर दी हैं।
घर के अंदरमहल में भी अब चहारदीवारी है और संवाद निषेध है।
उत्पादन संबंधों के अभूतपूर्व संकट ही इसके लिए जिम्मेदार हैं।
जाति और पहचान पुराने पारंपारिक गांवों में रिश्तों को बिगाड़ने का काम उस तरह नहीं कर रही थीं जो आज राजनीति जाति और अस्मित में तब्दील हो जाने से हो रहा है।
सारे साझे चूल्हे तोड़ दिये गये हैं।
दंगों की आग जो शहरों को घेरे हुए थी, आज गांवों को लील रही है। कहां तो हम गांवों के जरिये शहरों को घेरने चले थे, विडंबना यह है कि अब मुक्तबाजारी गांवों को शहरों ने घेर लिया है और गांव तेजी से खत्म हो रहे हैं। अभूतपूर्व हिंसा के समय पर हम जमीन पर नहीं, आग पर चल रहे हैं और रस्मोरिवाज के मुताबिक आंच महसूस होती नहीं है।
साझा खेती, साझा श्रम की परंपरा खत्म है तो उत्पादन संबंधों में अनिवार्य विमर्श भी खत्म है। उत्पादन प्रणाली भी खत्म है।
हमने चौपाल में, रसोई घर में किसानों को बीज, बुवाई, निराई, कटाई के फैसले करते देखे हैं। अब हम मोनसेंटों द्वारा हमारी उपज का फैसला करते देखने को अभिशप्त हैं।
खेती के तमाम फैसले, सिंचाई के बंदोबस्त कारपोरेट बंदोबस्त के तहत है और भारतीय कृषि व्यवस्था दम तोड़ चुकी है।
आज तमाम विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री यह चरम सत्य भूल रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था अनिवार्यतः कृषि व्यवस्था है।
कृषि खत्म तो अर्थव्यवस्था का कोई वजूद ही नहीं है।
सेवाक्षेत्र और अंधाधुध शहरीकरण, विनिवेश, विदेशी पूंजी, विनियंत्रण, विनियमन से अर्थव्यवस्था की उस स्थाई समस्या का समाधान नहीं होता जिससे बहुसंख्य अपढ़ अधपढ़ अदक्ष श्रमशक्ति को नैसर्गिक रोजगार का इंतजाम किया जा सके।
आटोमेशन और रोबोटिक्स से रोजगार पैदा नहीं होते। न रोजगार नालेज इकनामी की उपज है और न आईटी और आउटसोर्सिंग से हर युवा हाथ को काम मिला है।
नैसर्गिक रोजगार, अदक्ष अशिक्षितों को रोजगार और स्थानीय रोजगार के बदले हम सांस्कृतिक से लेकर धार्मिक महाविनाश का पीपीपी माडल अपना रहे हैं और यह अधर्म, धर्म के धर्मोन्मादी पुनरूत्थान के नाम पर हो रहा है। विकास दर के नाम पर हो रहा है।
कैपिटल गुड्स, शेयर सूचकांक, उपभोक्ता बाजार, विदेशी पूंजी निवेश और सेवा क्षेत्र के विस्तार के आकड़ों से जो विकास दर का प्रोजेक्शन है, वह हालीवुडी वैज्ञानिक संक्रमण से समाज वास्तव से दूर भारतीय फिल्मों के रैंप शो में बदल जाने की कथा है, जिसमें न जीवन कोई है और न कथा कोई। सिर्फ स्टार हैं, कलाकार कोई नहीं। शवेत श्याम कुछ भी नहीं, सब कुछ रंगीन है। दृष्टि कोई नहीं है और न कोई जीवन दर्शन है, सिर्फ प्रोमो है।
हिंदी हिंदू हिदुस्तान के नारों के बीच जो विकास गाथा है, उसमें बोलियों और क्षेत्रीय भाषाओं का विलोप हो रहा है।
लोक के विज्ञापन की भाषा बदल जाने से हमें तकलीफ कोई होती नहीं है।
विदेशी अबाध पूंजी से हमारे पेट में दर्द होता नहीं है।
डालर और येन के लिए देश भर में बेदखली और सैन्यतंत्र सैन्य शासन के विस्तार से हमारी नींद हराम होती नहीं है।
विधाओं के समाज वास्तव से कटकर देह उत्सव और भोग में बदल जाने से भी हमारे अंतःस्थल से कुछ रिसता नहीं है।
देश बेचने के राजकाज के खिलाफ हमारी भाषा और अभिव्यक्ति बांझ है तो निंरतर मनुस्मृति राज के जरिये स्त्री आखेट और प्रकृति से जुड़े समुदायों और प्रकृति पर्यावरण के सर्वनाश के आपदा प्रबंधन से हम स्वदेशी जागरण करने चले हैं।
और न हमें उत्पादन प्रणाली की कोई परवाह है और न उत्पादन संबंधों की। लेकिन बिन पंचशील बिना धम्म हम गौतम बुद्ध के बाजारू अवतारों की दृष्टि से क्रांति और परिवर्तन का दिवास्वप्न देख रहे हैं।


