हिंदी के बुद्धि‍जीवि‍यों में धर्म 'इस्‍तेमाल करो और फेंको' से ज्‍यादा महत्‍व नहीं रखता। अधि‍क से अधि‍क वे इसके साथ उपयोगि‍तावादी संबंध बनाते हैं। धर्म इस्‍तेमाल की चीज नहीं है। धर्म मनुष्‍यत्‍व की आत्‍मा है (Religion is the soul of humanity.)। मानवता का चरम है। जि‍स तरह मनुष्‍य के अधि‍कार हैं, लेखक के भी अधि‍कार हैं,वैसे ही धर्म के भी अधि‍कार हैं। धर्म और कलाएं मनुष्‍य के लि‍ए हैं। मनुष्‍य के बाहर इनका कोई अस्‍ति‍त्‍व नहीं है।

धर्म पर उदय प्रकाश की टिप्पणी Uday Prakash's comment on religion

एक जगह कथाकार उदयप्रकाश ने सही रेखांकि‍त कि‍या है कि‍ हमने धर्म की इकहरी और उपयोगितावादी भूमि‍का पर ही ज्‍यादातर समय ध्‍यान केन्‍द्रि‍त कि‍या है। धर्म के मर्म (quintessence of religion) को कभी समझने का प्रयास ही नहीं कि‍या। धर्म का उपयोगि‍तावाद कब से जीवन में आया यह ठीक ठीक बताना संभव नहीं है। धर्म का स्‍थान उपयोगि‍ता में नहीं मनुष्‍यत्‍व में है।‍

उदय प्रकाश ने लि‍खा है

"सचमुच ‘धर्म’ कहते ही हम स्वयं को उस प्रदूषित अवधारणा के बीचों-बीच पाते हैं, जिसे हमारे समय और निकट अतीत की राजनीति, सत्ता, पूंजी और मीडिया ने चौतरफा पैदा किया है।"

धर्म के मर्म को यहां से देखो

धर्म पर कोई भी बहस उपयोगि‍तावादी फ्रेमवर्क में नहीं की जा सकती। यह बहस का सीमि‍त दायरा है। धर्म को जब तक मनुष्‍य के अन्‍मर्ग्रथि‍त हि‍स्‍से के रूप में नहीं देखेंगे, मनुष्‍यत्‍व के नि‍र्माण के प्रकल्‍प के रूप में नहीं देखेंगे, धर्मवि‍ज्ञान के नजरि‍ए से नहीं देखेंगे, एक सर्जक के हृदय की नजर से जब तक नहीं देखेंगे तब तक धर्म के मर्म को पकड़ना संभव नहीं है।

धर्म पर रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के विचार Rabindranath Tagore's views on religion

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर आधुनि‍क धर्मनि‍रपेक्ष लेखक थे। अनेक मामलों में उनकी समझ अपने युग के सभी वि‍चारकों, आलोचकों, रचनाकारों और कला मनीषि‍यों के वि‍चारों की सीमाओं को भेदती हुई मनुष्‍यत्‍व के मर्म तक गयी है।

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर का जि‍क्र इसलि‍ए भी जरूरी है कि‍ उन्‍होंने एक परंपरा भी बनायी थी, जि‍से हिंदी वाले दूसरी परंपरा कहते हैं।

Rabindranath Tagore delivered a lecture in Brahma Samaj on 26 January 1912

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने एक व्‍याख्‍यान ब्रह्मसमाज में 26 जनवरी 1912 को दि‍या था, इस व्‍याख्‍यान का शीर्षक था 'धर्म का अधि‍कार' प्रत्‍येक भारतीय को यह लेख पढना चाहि‍ए। धर्मनि‍रपेक्ष हिंदी लेखकों खासकर प्रगति‍शीलों को तो जरूर पढना चाहि‍ए। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने लि‍खा है

"जि‍न महापुरूषों की वाणी आज तक पृथ्‍वी पर अमर है उन्‍होंने कभी दूसरों के मन को खुश करते हुए अपनी बात कहना नहीं चाहा।वे जानते थे कि‍ मनुष्‍य अपने मन से कहीं बड़ा है- मनुष्‍य अपने को जो समझता है वहीं उसकी समाप्‍ति‍ नहीं है। इसीलि‍ए महापुरूषों ने अपना दूत सीधे मनुष्‍यत्‍व के राज-दरबार में भेजा; बाहरी दरवाजे के चौकीदार को मीठी बातों से प्रसन्‍न करके अपने काम का मूल्‍य नष्‍ट नहीं कि‍या।"

धर्म के खि‍लाफ बोलना बहुत आसान है। धर्म के उपयोगी रूपों की हि‍मायत में पोंगापंथि‍यों, पंडि‍तों, महंतों आदि‍ की तरह बोलना और भी आसान है। लेकि‍न धर्म को मनुष्‍यत्‍व के नि‍र्माण के उपकरण के रूप में व्‍याख्‍यायि‍त करना बेहद मुश्‍कि‍ल काम है।

जि‍न लोगों ने धर्म की आलोचना (Criticism of religion) की, धर्म का शोषण कि‍या उन सभी के वि‍चारों का समाज में आज क्‍या स्‍थान है ? इस तरह के लोग सैंकडों सालों से धर्म के बारे में लि‍ख रहे हैं। उनके वि‍चार आज कहीं पर भी प्रभाव छोडते नजर नहीं आते।

जि‍नके लि‍ए धर्म मर चुका था, धर्म पोंगापंथ था,जनता के लि‍ए अफीम था। वे भी गुमनामी में जा चुके हैं। धर्म अभी भी सीना ताने खड़ा है। राज्‍य का धर्मनि‍र्मूल करने के लि‍ए जि‍न्‍होंने इस्‍तेमाल कि‍या आज वे कहां हैं ? धर्म कहां है ? इसे सहज ही अपनी आंखों से देख सकते हैं।

धर्म के उपदेश असाध्‍य प्रतीत होते हैं। लेकि‍न सच्‍चा मनुष्‍य वही है जो असाध्‍य की साधना करता है। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर लि‍खा है

"स्‍वल्‍पमप्‍यस्‍य धर्मस्‍य त्रायते महतो भयात्" अर्थात् अल्‍प-मात्र धर्म महाभय से रक्षा कर सकता है।

हिंदी में लेखकों के लीक से भि‍न्‍न वि‍चारों को, महान वि‍चारों को हमने कभी सम्‍मान की नजर से नहीं देखा। हिंदी लेखक बनि‍ए की गणि‍त लगाकर लि‍खता है, वह सच बोलते हुए हि‍चकता है। उसने लंबे समय से सच बोलना बंद कर दि‍या है। हिंदी लेखक ने सच बोलना जब से बंद कि‍या है, तब से हिंदी में वि‍चारों की कंगाली आ गयी है।

हिंदी लेखक लि‍खता खूब है कि‍ लेकि‍न मायावी संसार पर लि‍खता है। सत्‍य पर नहीं लि‍खता। यही वजह है कि‍ वह अंत में 'तू-तू मैं -मैं' करने लगता है। दुश्‍मनी ठान लेता है। इस प्रक्रि‍या में वह सोचता है महान हो गया, लेकि‍न होता एकदम उल्‍टा है। हिंदी लेखक महान होने की बजाय ओछा होता चला गया है। एक दूसरे को नीचा दि‍खाना, नुकसान पहुंचाना, फतवे जारी करना,सृजन नहीं है। यह तो वि‍ध्‍वंस है। मनुष्‍यत्‍व से पतन है।

भारतीय मार्क्‍सवादी जानते हैं मार्क्‍सवाद के वि‍कास के लि‍ए जि‍स एकांत साधना और ज्ञान के उच्‍चधरातल की जरूरत है वह उनके पास नहीं है। मार्क्‍सवाद सेमीनार और संगठनों की शाखाओ में पैदा नहीं हुआ था। महापुरूषों के वि‍चार अन्‍तरसाधना से पैदा होते हैं बाह्य साधना से पैदा नहीं होते।

जब भी कोई वि‍चार, शास्‍त्र, दर्शन, राजनीति‍क दर्शन, राजनीति‍क एक्‍शन, साहि‍त्‍य आदि‍ में भेद का शास्‍त्र बन जाता है तो वह अपने को बौना बना लेता है।

मार्क्‍सवाद को हमने एक-दूसरे को बौना दि‍खाने के अस्‍त्र के रूप में इस्‍तेमाल कि‍या और स्‍वयं बौने बनते चले गए।

भारत में धर्म के वि‍चारकों ने भेद के सभी कि‍स्‍म के रूपों की मुखालफत की है। उन्‍होंने सत्‍य को छोटा करके नहीं देखा है। सत्‍य को दैनंन्‍दि‍न प्रयोजनों से दूर रखकर चर्चा की है। सत्‍य को हमारे हिंदी आलोचकों और अध्‍यापकों ने प्रयोजन के खूंटे से बांध दि‍या है।

सत्‍य को हमने समझा नहीं है सत्‍य के साथ हमने समझौते कि‍ए हैं।

सत्‍य के साथ समझौतों का ही दुष्‍परि‍णाम है कि‍ आज हम डरपोक और आत्‍मवि‍श्‍वासवि‍हीन हो गए हैं। हमारी आत्‍मा को कोई लल्‍लू-पंजू वि‍चारक, आलोचक, लेखक, राजनेता अपहृत कर लेता है।

धर्म के बारे में हमारी कभी भी सही समझ नहीं रही है। हमने पूजा-पाठ को ही धर्म मान लि‍या है। धर्म के आलोचकों ने इसी को धर्म मानकर इस पर वैचारि‍क हमला बोला है। भारत के धर्मनि‍रपेक्ष और मार्क्‍सवादी वि‍मर्श की यह सीमा है। धर्म पर मार्क्‍सवादि‍यों ने प्रयोजन के दायरे के परे जाकर कभी वि‍चार ही नहीं कि‍या।

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने लि‍खा है

"जो मनुष्‍य ब्रह्म को न जानकर केवल जप-तप में समय काटता है, 'अन्‍तवदेवास्‍य तद्भवति '- उसका सारा जप-तप नष्‍ट हो जाता है।"

रवीन्द्रनाथ टैगोर पर महात्मा बुद्ध का गहरा असर था।

गौतम बुद्ध की समस्‍त साधना का मूलाधार है सत्‍य की खोज। सत्‍य को पाने की आकांक्षा का ही सुपरि‍णाम है कि‍ आज मानव सभ्‍यता इतने ऊंचे धरातल तक अपने को वि‍कसि‍त कर पायी है। सत्‍य की खोज ही वह बिंदु है जहां पर लेखक भी मनुष्‍यत्‍व के वि‍कास में अपना महत्‍वपूर्ण योगदान करता है। लेखक के पास सत्‍य न हो तो लेखक नहीं बन सकता। मनुष्‍यता की कुंजी सत्‍य के पास है अन्‍य कि‍सी के पास नहीं है।

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने लि‍खा है

"धर्म में ही मनुष्‍य का श्रेष्‍ठ परि‍चय मि‍लता है। धर्म का मनुष्‍य पर जि‍स मात्रा में अधि‍कार होता है उसी के अनुसार मनुष्‍य अपने आपको पहचानता है। सम्‍भव है कोई व्‍यक्‍ति‍ राजपुत्र होने पर भी अपने आपको भूल जाय। लेकि‍न देश के लोगों की ओर से बार-बार ताकीद की जानी चाहि‍ए। उसके पैतृक गौरव की याद दि‍लाना आवश्‍यक है; उसे लज्‍जि‍त करना,यहां तक कि उसे दण्‍ड देना भी आवश्‍यक हो सकता है। लेकि‍न उसे मूर्ख कहकर समस्‍या को आसान करने की कोशि‍श वृथा है। यदि‍ वह मूर्ख की तरह व्‍यवहार करे तो भी सत्‍य को उसके सामने स्‍थि‍र करके रखना है। इसी तरह धर्म मनुष्‍य से कहता है: 'तुम अमृत के पुत्र हो,यही सत्‍य है'।‍ धर्म मनुष्‍य को कि‍सी तरह राह भूलने नहीं देता कि‍ 'मनुष्‍य' शब्‍द से कि‍तनी बड़ी -बड़ी बातों का बोध होता है। यही धर्म का प्रधान कार्य है।"

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने यह भी लि‍खा,

"शरीर के लि‍ए जैसे मस्‍ति‍ष्‍क है वैसे ही मानव समाज के लि‍ए धर्म है। धर्म का आदर्श ही मानव-प्रकृति‍ को अन्‍दर -अन्‍दर से सारी वि‍कृति‍यों के वि‍रूद्ध लडाई करने के लि‍ए प्रवृत्‍त करता रहता है।"

जो लोग आए दि‍न धर्म की आलोचना करते हैं, उन्‍हें ध्‍यान में रखकर रवीन्‍द्रनाथ ने लि‍खा था

"हि‍साब-कि‍ताब करके धर्म को छोटा नहीं बनाया जा सकता, कोई उसे कि‍सी परि‍माण में माने या न माने, उसी को एकमात्र 'मानवीय' बताकर पूर्ण रूप से सामने रखना होगा।"

हिंदी के लेखकों और आलोचकों की मुश्‍कि‍ल यह है कि‍ वे धर्म और साहि‍त्‍य को अलग -अलग खांचों में रखकर देखते हैं। वे धर्म, मनुष्‍य और साहि‍त्‍य के बीच के अन्‍तस्‍संबंध (Inter-relation between religion, man and literature) को अभी तक देख ही नहीं पाए हैं। आदि‍कवि‍ से लेकर भक्‍ति‍ आंदोलन के कवि‍यों तक यह अन्‍तस्‍संबंध साफ दि‍खाई देता है। यहां तक कि‍ भारतेन्‍दु के यहां भी इसकी छाप नजर आती है। उसके बाद पता नहीं कबसे यह संबंध टूट गया।

धर्म, मनुष्‍य और साहि‍त्‍य को अलग कर दि‍या गया। हम साहि‍त्‍य से प्‍यार करने लगे और धर्म से नफरत। इस प्रक्रि‍या में पहले हाथ से धर्म गया अब साहि‍त्‍य भी जा रहा है। रह गयी हैं कुछ कि‍ताबें, संपादक, अध्‍यापक, आलोचक और साहि‍त्‍य गायब है। साहि‍त्‍य का वि‍मर्श गायब है।

धर्म हाथ से जाएगा तो कलाएं भी जाएंगी।

हिंदी में कलावंतों और कलाबोध की क्‍या दशा है यह हम सब अच्‍छी तरह जानते हैं। हिंदीभाषी शहरों में कला के ट्यूटर तक नहीं मि‍लते। आस्‍वाद करने वाले तो दूर-दूर तक नजर नहीं आते और कला दीर्घाएं हजारों कि‍लोमीटर दूर जा चुकी हैं। साहि‍त्‍य की अवस्‍था इससे बेहतर नहीं है।

इस समूची प्रक्रि‍या का दयानंद सरस्‍वती के सुधार आंदोलन और उपयोगि‍तावाद के साथ गहरा संबंध है।

Leaving religion means abandoning humanity

धर्म को हमने पहले त्‍यागा। धर्म को त्‍यागने का अर्थ है मनुष्‍यता को त्‍यागना। धर्म को त्‍यागकर कोई लेखक मनुष्‍यत्‍व के मर्म को नहीं पकड सकता। धर्म बैर की नहीं प्‍यार की चीज है, घृणा की नहीं मोहब्‍बत की चीज। धर्म की सतही और पोंगापंथी बातें धर्म का सही रूप नहीं हैं। प्रत्‍येक समझदार व्‍यक्‍ति‍ ने धर्म के दुरूपयोग, पाखंड, कर्मकांड आदि‍ का वि‍रोध कि‍या है। धर्म का अर्थ बाह्याचार नहीं है।धर्म अंदर की चीज है।धर्म हमारे अन्‍त:करण में होता है। धर्म हमारी प्राणवायु है। साहि‍त्‍य हमारे हृदय से नि‍कलता है और मनुष्‍य के हृदय को ही सम्‍बोधि‍त करता है। लेखक हृदय के आदेश पर ही लि‍खता है। पार्टी, वि‍चारधारा, राष्‍ट्र आदि‍ के आदेश पर नहीं लि‍खता।

धर्म का बाह्याडंबर (bombast of religion) अन्‍त:करण को सम्‍बोधि‍त नहीं करता फलत: अन्‍त:करण को बदलने की उसमें क्षमता नहीं है।

धर्म स्‍वभावत: प्रगति‍शील है, मानवीय है। हमें सोचना चाहि‍ए धर्म से कटने के कारण कहीं समाज और सभ्‍यता से हमारा संबंध वि‍च्‍छेद तो नहीं हो गया ?

सभ्‍यता वि‍मर्श धर्म में मि‍लता है,सृजन का वि‍मर्श भी धर्म की गोद में बैठकर ही आया है। जि‍तने भी क्‍लासि‍क हैं वे धर्मवि‍मुख होकर नहीं लि‍खे गए, हमारे पास जि‍तने भी बेहतरीन लेखक, महापुरूष, दार्शनि‍क आदि‍ हैं वे सभी धर्मप्राण थे।

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर का नि‍बंध 'सत्‍य का आह्वान‘

इस प्रसंग में रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के 29 अगस्‍त 1921 को पढे गए नि‍बंध 'सत्‍य का आह्वान‘ का हवाला देना चाहूंगा। तमाम कि‍स्‍म के क्रांति‍कारी असहयोग आंदोलन की आलोचना कर रहे थे, और अलग से क्रांति‍ का बि‍गुल बजाए हुए थे,बंग भंग का राजनीति‍क वातावरण था।

इस प्रसंग में टैगोर ने लि‍खा

"जब तक राष्‍ट्र तैयार नहीं है तब तक क्रान्‍ति‍ का प्रयत्‍न करना गलत मार्ग पर चलना है। यह मार्ग उचि‍त मार्ग की तुलना में छोटा है, लेकि‍न उस पर चलकर हम लक्ष्‍य तक नहीं पहुँचते, रास्‍ते में दोनों पाँव कांटों से जख्‍मी हो जाते हैं। प्रत्‍येक वस्‍तु का पूरा दाम देना होता है -यदि‍ आधा ही दाम दि‍या गया तो रूपया भी जाता है और वस्‍तु भी नहीं मि‍लती। वे दु:साहसी युवक समझते थे कि‍ सारे देश के लि‍ए यदि‍ कुछ लोग आत्‍मोत्‍सर्ग करें तो क्रांति‍ सफल होगी। उनके लि‍ए यह सर्वनाशा था,देश के लि‍ए एक सस्‍ती बात।देश का उद्धार समस्‍त देश के अन्‍त:करण से होना चाहि‍ए, उसके एक अंश से नहीं।"

एक अन्‍य चीज जि‍से ध्‍यान में रखना चाहि‍ए।

टैगोर के ही शब्‍दों में

"मनुष्‍य मधुमक्‍खी की तरह नहीं है जो एक ही तरह का छत्‍ता बनाती है, न वह मकड़ी की तरह है जो एक ही 'पैटर्न' का जाल बुनती है। उसकी सबसे बड़ी शक्‍ति‍ है उसका अन्‍त:करण। मनुष्‍य का पूरा दायि‍त्‍व अन्‍त:करण के सामने है। अभ्‍यासपरता के सामने नहीं।"

धर्म डरने, दुत्‍कारने अथवा बहि‍ष्‍कार करने की चीज नहीं है। हजारों वर्षों से धर्म का दुरूपयोग, बहि‍ष्‍कार, दुत्‍कार आदि‍ सब कुछ चल रहा है, इसके बावजूद धर्म का प्रवाह अव्‍याहत बना हुआ है। इसका अर्थ है कि‍ कहीं कोई ऐसी शक्‍ति‍ जरूर होगी जो धर्म को आगे ले जा रही है। इस पहलू का रवीन्‍द्रनाथ ने बड़ा ही सुंदर वि‍वेचन कि‍या है। लि‍खा है,

"मनुष्‍य की शक्‍ति‍ के दो पक्ष हैं : एक पक्ष का नाम है 'कर सकता है' और दूसरे पक्ष का नाम है 'करेगा'। पहला पक्ष उसके लि‍ए सहज है, लेकि‍न उसकी तपस्‍या दूसरे पक्ष की ओर है। धर्म मनुष्‍य के 'करेगा' पक्ष के सर्वोच्‍च शि‍खर पर खड़ा होकर उसके समस्‍त 'कर सकता है' को पुकारता है; उसे वि‍श्राम नहीं करने देता; उसे कि‍सी सामान्‍य लाभ से ही सन्‍तुष्‍ट नहीं होने देता। जहाँ मनुष्‍य का 'कर सकता है' इसी 'करेगा' के नि‍र्देशन में आगे बढ़ता जाता है वहीं मनुष्‍यता की वीरता है - वही उसका सत्‍य -रूप से आत्‍मलाभ है।"

धर्म की मूल क्षमता क्या है - What is the basic strength of religion

धर्म की मूल क्षमता (What is the basic strength of religion) यह है कि‍ वह मनुष्‍य को असाध्‍य कार्य करने में सक्षम बनाता है। मनुष्‍य की अक्षमता, मूर्खता, दुष्‍टता, शैतानि‍यों आदि‍ को अस्‍वीकार करता है और सि‍र्फ मनुष्‍यता पर बल देता है। धर्म बंदी नहीं बनाता, धर्म वि‍चारों की गुलामी भी नहीं थोपता। धर्म कहीं से भी अंधवि‍श्‍वास, पुनर्जन्‍म आदि‍ की हि‍मायत नहीं हैं। अंधवि‍श्‍वास, पुनर्जन्‍म आदि‍ की बातें उन लोगों ने की हैं जो धर्म को अन्‍त:करण से काटकर बाह्याचारों के रूप में देखते हैं।

एक मायने में धर्म और कला सृजन एक ही लक्ष्‍य की पूर्ति करते हैं। दोनों मनुष्‍यत्‍व का संदेश देते हैं। दोनों हृदय के साथ संवाद करते हैं, अन्‍त:करण की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ करते हैं। दोनों से पुण्‍य मि‍लता है। हृदय को शांति‍ मि‍लती है। तनाव दूर होता है। दोनों सर्जनात्‍मक हैं, ऊर्जा से भरे हैं। दोनों मनुष्‍य को और भी बेहतर मनुष्‍य बनाते हैं। दोनों के बि‍ना मनुष्‍य अधूरा है। इनमें से कि‍सी भी एक त्‍यागा नहीं जा सकता।

धर्म का स्‍तर उठाने के लि‍ए हमें वहां से आगे सोचना चाहि‍ए जहां पर हमारे पूर्वज धर्म के वि‍मर्श को छोड़ गए थे। हमने इस वि‍मर्श को आगे नहीं बढाया है बल्‍कि‍ और भी पीछे की ओर, सतही चीजों की ओर ले गए हैं। इससे हमारा धर्मबोध वि‍कृत हुआ है।

धर्म और कलाओं के प्रति‍ हमें पुराने नुस्‍खे को अपनाना होगा, पुराना नुस्‍खा था "अभी और", हम जहां थे उससे आगे के बारे में सोचें।

कला और धर्म जहां है उससे आगे के बारे में सोचें। इस प्रक्रि‍या को जि‍तनी दूर तक ले जा सकें, ले जाएं। इससे मानवीय चेतना के नए दि‍गंत खुलेंगे।

हमें धर्म के बारे में सहजबुद्धि‍ के धरातल पर खड़े होकर नहीं सोचना चाहि‍ए। हमें धर्म को वि‍श्‍वास के आधार से भी नहीं देखना चाहि‍ए। धर्म अंदर की चीज है, मनुष्‍यत्‍व का मर्म है। उसे सहज, सस्‍ता, चमकीला बनाने से वह सामाजि‍क तकलीफ देता है। जो लोग ऐसा करते हैं वे धर्म नहीं 'ठगी धर्म' करते हैं।

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने लि‍खा है

"धर्म मनुष्‍य की पूर्ण शक्‍ति‍ की अकुण्‍ठि‍त वाणी है। उसमें कोई द्वि‍धा नहीं है। वह मनुष्‍य को मूर्ख कहकर स्‍वीकार नहीं करता, और न दुर्बल कहकर अवज्ञा करता है। वह मनुष्‍य को पुकारकर कहता है- 'तुम अजेय हो, अभय हो, अमर हो।' धर्म की शक्‍ति‍ से ही मनुष्‍य असंभव लगने वाले कामों में जुट जाता है, और ऐसे स्‍तर पर पर पहुँच जाता है जि‍सकी वह स्‍वप्‍न में भी कल्‍पना नहीं कर सकता। इसी धर्म के मुख से कहलाएं : 'तुम मूढ़ हो, समझ न सकोगे' तो फि‍र मनुष्‍य की मूढ़ता कौन दूर करेगा ?यदि‍ धर्म से ही हम कहलाएं: 'तुम अक्षम हो,कुछ न कर सकोगे', तो मनुष्‍य को शक्‍ति‍ कौन देगा ?" " वास्‍तव में हीन-से -हीन मनुष्‍य के लि‍ए सम्‍मान का एकमात्र स्‍थान धर्म ही है।"

जगदीश्वर चतुर्वेदी

Humanity, literature and religion