दिगंबर

चेर्नोबिल, थ्री माइल्स वैली और हाल-फिलहाल फुकुसीमा परमाणु संयन्त्रों में हुये खतरनाक रिसाव के बाद आज दुनिया के विकसित साम्राज्यवादी देश अपने-अपने परमाणु उर्जा संयन्त्रों को एक-एक कर को बन्द कर रहे हैं, तो हमारे देश के शासक इस खतरनाक विकल्प को गले लगाने की हड़बड़ी में हैं। जैतापुर, कुडानकुलम, गोरखपुर (हरियाणा) और अब गुजरात के मीठीविर्दी में परमाणु बिजलीघर लगाने की कार्रवाई ज़बरदस्त जनप्रतिरोध के बवजूद तेजी से आगे बढ़ाई जा रही है और उनके रास्ते में आने वाली हर रूकावट को हर कीमत पर हटाया जा रहा है।

मीठीविर्दी में नाभिकीय उपकरण की आपूर्ति करने वाली अमरीकी कम्पनियों ने नाभिकीय जिम्मेदारी कानून में छूट पाने के लिये ज़बरदस्त लॉबिंग शुरू की है और पूरी उम्मीद है कि नवउदारवादी-साम्राज्यवादपरस्त नीतियों के पैरोकार उनकी इस आकाँक्षा पर पूरी तरह खरे उतरेंगे। ओबामा शासन द्वारा लगातार पड़ रहे दबावों के प्रभाव में मनमोहन सिंह की सरकार नाभिकीय जिम्मेदारी कानून के बारे में भारत के महाधिवक्ता द्वारा दिये गये विकल्प का इस्तेमाल करने की तय्यारी में है। यह विकल्प नाभिकीय जिम्मेदारी कानून के तहत अमरीकी कम्पनियों को घटिया और दोषपूर्ण उपकरणों की आपूर्ति के कारण होने वाली दुर्घटना की जिम्मेदारी से बरी करने के लिये क़ानूनी छल-छिद्रों का लाभ उठाने का उपाय सुझाता है।

आणविक ऊर्जा विभाग द्वारा 4 सितम्बर को माँगी गयी राय के बारे में महाधिवक्ता गुलाम वाहनवती ने कहा है कि यह भारत में नाभकीय प्लान्ट का संचालन करने वाले पर निर्भर है कि वह नाभकीय क्षति के लिये नागरिक दायित्व की धारा 17 के अन्तर्गत ‘सहायता प्राप्ति के अधिकार’ का प्रयोग करने को इच्छुक है या नहीं।

हमारे देश की संसद में जो कानून पास किया गया है, उसके मुताबिक अगर विदेशी आपूर्तिकर्ता खराब और घटिया उपकरण देता है और उसके कारण दुर्घटना घटती है तो वह इस जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता। महाधिवक्ता द्वारा सुझाया गया विकल्प भारत में विदेशी रिएक्टर का संचालन करने वाली सरकारी संस्था भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम को उपर्युक्त कानून के उल्लंघन का रास्ता साफ करनेवाला है।

अमरीकी नाभिकीय उपकरण विक्रेता वेस्टिंग हाउस और जीई ने इस क़ानूनी अड़चन को दूर करने के लिये वाशिंगटन से ले कर नई दिल्ली तक जम कर लॉबिंग की और उसके नतीजे भी सामने आने लगे हैं। इससे पहले भारत सरकार ने नाभिकीय दुर्घटना की ज़िम्मेदारी से बचने के लिये उस कानून में किसी भी तरह की फेरबदल करने या उसे हटाने से इनकार किया था। महाधिवक्ता के इस नजरिये ने सरकार को अमरीकी कम्पनियों की इच्छा पूरी करने का दरवाज़ा खोल दिया। उनका कहना है कि यह भारतीय संचालक संस्था के ऊपर निर्भर है और अगर वह चाहे तो लिखित सहमति पत्र में इसका उल्लेख कर सकती है कि वह विदेशी आपूर्तिकर्ता से दुर्घटना की स्थिति में ‘सहायता प्राप्ति के अधिकार’ के प्राविधान को शामिल नहीं करना चाहती। यानी वह संस्था (भारतीय नाभिकीय ऊर्जा आयोग) खराब और घटिया उपकरण की आपूर्ति से होने वाली दुर्घटना के लिये खुद अपने ही ऊपर ज़िम्मेदारी ले सकती है। अब पूरी सम्भावना है कि 27 सितम्बर को मनमोहन सिंह और ओबामा के बीच होने वाली वार्ता में इसे अमली जामा पहना दिया जायेगा।

भारत-अमरीका नाभिकीय समझौता 2008 में भारत सरकार ने अमरीकी कम्पनियों को 10,000 मेगावाट का नाभकीय संयंत्र लगाने का ठेका देने का वादा किया था। पाँच साल बाद अब मीठीविर्दी में भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम और वेस्टिंगहाउस के बीच समझौता होना लगभग तय है। पहली किस्त के रूप में अमरीकी कम्पनी को लगभग एक करोड़ पचहत्तर लाख डॉलर का भुगतान करना होगा।

अमरीकी कम्पनियों द्वारा भारत सरकार पर दबाव डाल कर अपने अनुकूल व्यापारिक शर्तें मनवाने की यह अकेली घटना नहीं है। हाल ही में हुयी एक बैठक में ज़लवायु परिवर्तन के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ में अमरीकी प्रतिनिधि ने भारतीय अधिकारियों पर फ्रीज में इस्तेमाल होने वाली गैस खरीदने का दबाव बनाया है। इस गैस पर अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का एकाधिकार है। इसकी तकनीक अभी पूरी तरह परीक्षित और सुरक्षित भी नहीं है।

रेफ्रीज़रेटर में इस गैस के इस्तेमाल पर आज की तुलना में बीस गुना अधिक लागत आयेगी। एशिया-प्रशांत में इसका बीस अरब डॉलर का बाज़ार है, जिस पर अमरीका की गिद्ध दृष्टि लगी है।

अमरीका ने तर्क यह दिया है कि इससे कार्बन उत्सर्जन कम होगा। ज़हाँ तक कार्बन उर्सर्ज़न का प्रश्न है, इसके लिये मुख्यतः धनी देश जिम्मेदार हैं और अंतरराष्ट्रिय समझौतों में इसकी भरपाई करने का दायित्व भी उन्हीं देशों पर सौंपा गया है।

मज़ेदार बात यह कि 1912 में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था, जिसका हवाला देते हुये पर्यावरण और विदेश मंत्रालय ने उस अमरीकी अधिकारी की बात नहीं मानी। उस अमरीकी ने दबाव डालते हुये कहा कि यह सौदा न केवल अमरीकी प्रशासन के लिये बल्कि ओबामा के लिये भी राजनीतिक प्राथमिकता है। इससे भी मज़ेदार बात यह कि हाल में सम्पन्न समूह- 20 के सम्मेलन में ऐसी तकनोलॉजी को बढ़ावा देने के लिये साम्राज्यवादी देशों द्वारा तैयार की गयी एक विज्ञप्ति पर प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने दस्तखत किये हैं। यह केन्द्रीय मंत्रिमण्डल द्वारा 1912 में लिये गये फैसले का उल्लंघन है, जिसने मोट्रियाल ज़लवायु सम्मेलन से ही, आज तक ऐसी तकनोलॉजी पर सहमति देने से इनकार किया था।

अब इसमें कोई संदेह नहीं कि मनमोहम सिंह की वाशिंगटन यात्रा में इन दोनों मामलों में अमरीकी कम्पनियों की मनोकामना तो पूरी होनी ही है, हर बार की तरह इस बार भी वे ओबामा की झोली में ढेर सारे तोहफे डाल कर आयेंगे। नवउदारवादी अर्थनीति की ये अदाएँ हमारे देश की जनता के लिये जानलेवा हैं।