हत्या एक कुंठित विचारों से लदे समूह का सांस्कृतिक अपराध है

सच्चा लेखक क्या लिखता है? (What does a true writer write?)

किसी लेखक को मार दिया जाना सामंती सोच का नतीजा है। सच्चा लेखक वही लिखता है जो जनता के पक्ष में लिखा जाना चाहिए। और हत्या करने वाला उसकी कलम तोड़ने के लिए ही हत्या करता है। इसी देश में इंकलाब की लड़ाई लड़ने वालों को भी सजा-ए-मौत देकर न्यायायाधीशों ने इन्साफ की कलम की नोक तोड़ दी। हत्या एक कुंठित विचारों से लदे समूह का सांस्कृतिक अपराध है।

एक लेखक जब मरता है तब क्या होता है? हत्यारे कैसे लेखक से डरते हैं?

एक सच्चे लेखक की हत्या इंसानियत का कत्ल करना है। लेखक जब मरता है तब अच्छे समाज को रचने वाले विचारों की भी हत्या की जाती है। मगर विचार किसी एक शरीर के भीतर तक ही सीमित या बंधे नहीं रहते वो जनचेतना का हिस्सा होते हैं। जनता के भीतर लड़ने की असल ताकत लेखक की कलम होती है। जो क्रान्ति को जन्म देती है। हत्यारे क्रान्ति से डरते हैं। हत्यारे ऐसे लेखक से डरते हैं जो सत्ता की साजिशों को बेनकाब करता हैं।

साम्राज्यवादी सत्ता हत्यारों की फ़ौज होती है। जो जनता को गुलाम बनाए रखना चाहती है। जनता के भीतर सत्ता, धर्म, और राजनीति की बुराइयों को उजागर करने वाला सिर्फ लेखक ही होता है। जिसके विचारों की मशाल लेकर जनता इन्कलाब करने से नहीं घबराती।

लेखक की हत्या करना इस बात का सुबूत है कि जनता को डराया जा रहा है जिससे वह क्रान्ति-पथ पर चलने की हिम्मत न करे। मगर ऐसा होता है क्या? कितने लेखक मारे गये। कितने मारे जा रहे हैं। कितने ही मारे जायेंगे मगर इन्कलाब और जनता की गुलामी के खिलाफ लिखने वाला कोई एक व्यक्ति नहीं समाजवादी और साम्यवादी विचारों का एक बड़ा समुच्चय है। जैसे एक अणु अनगिनत परम अणुओं से मिलकर बनता है। वैसे ही एक विचार जो गुलामी से मुक्त करने का जरिया है वह केवल चंद मार दिए गये लेखकों के भीतर ही जिन्दा नहीं रहता। एक लेखक की मौत की भरपाई कोई दूसरा नहीं क्र सकता मगर एक विचार को अपनाने वाले और भी न जाने कितने लेखक जीते आये हैं। कल को फिर कोई लेखक तानाशाही और साम्राज्यवादी ताकतों के सामने खड़ा होगा। कितने लेखक मारेगे वर्णव्यवस्था और साम्प्रदायिक ताकतें?

हत्यारों के पास इतनी भी ताकत नहीं कि वह अपने विचारों के साथ लेखक और समाज के बीच खड़े होकर चुनौती देते हुए सार्वजनिक तौर पर हत्या करके शान से जायें क्योंकि वे जनता से डरते हैं। वे गुलामों से डरते हैं। वे सच्चे लेखक के विचारों को पढ़ने और समझने वालों से डरते हैं। यह डर उन्हें हत्या करने को मजबूर करता है। अगर हिम्मत हैं तो यही साम्प्रदायिक ताकतें समाजवादी और साम्यवादी ताकतों से आमना सामना करें। सांस्कृतिक बहसें आयोजित करें। मगर उन्हें डर है कि जनता के भीतर उनके यह विचार कोई जगह नहीं बना सकते। हाँ अभी हर जनतंत्र में इतनी समझदारी विकसित नहीं हुई कि वह हत्यारों को सार्वजनिक स्थान पर टांगकर उसे रोज़ प्रताड़ित कर सकें।

आतंकवादी, साम्प्रदायिक, दंगाई, और क्रूर, हिंसक ताकतें इस वक्त जनता को गुमराह करने के लिए हर तरह से कोशिशें करने में लगी हैं। इन्हीं ताकतों ने हिन्दू-मुसलमान के बीच रंजिश बोई, दलितों को समाज से बहिष्कृत करने का राजनीतिक ग्रन्थ रचे। महिलाओं को निजी संपत्ति बताया। अल्पसंख्कों को आतंकवादी कहा। आदिवासियों को नक्सली और माओवादी कहा। और भी न जाने कितना कुछ किया। सिर्फ इसलिए कि जनता उनकी गुलाम बनी रहे।

ये कौन सी ताकतें हैं इन्हें पहचाना सबसे आसान है। ये श्रीराम सेना, विहिप, हिन्दू सेना, बजरंग दल, आदि आदि सैकड़ों नाम हैं, जो हर प्रदेश में फैले हुए हैं। इनमें भर्ती बच्चों के भीतर राष्ट्रवाद और धर्म को लेकर झर बोया जाता है, ताकि यही आगे जनता के बीच साम्प्रदायिक हिंसा, सामूहिक हत्याएं, कर सकें।

एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में एक ही धर्म का तांडव करने वाले लोग अपने सांस्कृतिक दलों के साथ आज लाखों की संख्या में हुड़दंग मचा रहे हैं, कहर बरपा रहे हैं, लोगों को डरा रहे हैं, जनवादी लेखकों की हत्या कर रहे हैं। हर आदमी इस हत्या की राजनीति के खिलाफ है। हम ऐसा नहीं होने देंगे। यह शपथ लेते हैं।

उदय प्रकाश जैसे तमाम लेखकों का शुक्रिया कि वह लेखक की हत्या के विरोध में हमारे साथ इस मुहिम में शामिल हुए। और उदय प्रकाश ने साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाकर यह बता दिया कि जो साहित्यिक संस्था अपने ही लेखक के कत्ल पर कोई बयान नहीं दे सकती, बड़ा कार्यक्रम आयोजित नहीं कर सकती ऐसे अपंग, अपाहिज, कुंठित, संस्था की नींव में बदलाव करना जरूरी है। ऎसी तमाम हिंदी सेवी संस्थाएं जो कलबुर्गी की हत्या के बाद विरोध प्रदर्शों और लिखित बयान नहीं देतीं, उन्हें जनता को बहिष्कार करना पड़ेगा। यह मान लेना चाहिए कि साम्प्रदायिक विचार इन संस्थानों में साहित्यिक सांस्कृतिक तरीके से शामिल हो चुके हैं होने की वजहें मौजूद हैं।

साहित्यकार भले ही कितना इंकलाबी क्यूँ न लिखे अगर उसे सम्मानित करने वाली संस्था जनता के लेखक की हत्या पर विरोध नहीं करती तो ऐसे संस्थानों को जनवादी लेखकों और बुद्धिजीवियों द्वारा बहिष्कृत कर देना चाहिए। यह समय की मांग है।

अब संस्थाएं तय करें कि वे जनता के साथ हैं, जनवादी ताकतों के साथ हैं या साम्प्रदायिक विचारों के साथ हैं।

अनिल पुष्कर

अनिल पुष्कर कवीन्द्र, प्रधान संपादक अरगला (इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका)