हर दसवां आदिवासी अपनी जमीन से विस्थापित है

आदिवासी समाज की अस्मिता से जुड़े यक्ष प्रश्न

गणि राजेन्द्र विजय

आदिवासी समाज की अस्मिता और उत्थान वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है।

आजादी के सात दशक बाद भी देश का आदिवासी समुदाय जिन मानसिकताओं एवं समस्याओं से जूझ रहा है, वह एक गहन चिन्ता का विषय है।

आदिवासी समाज को एक नये मुकाम पर पहुंचाने एवं उनके समग्र विकास के लिये राजधानी दिल्ली में आदिवासी कार्निवल का आयोजन 26 अक्टूबर 2016 को किया जा रहा है। इन्दिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी इसका उद्घाटन करेंगे। इतने बड़े आयोजन से पहले और बाद में आदिवासी समाज की समस्याओं के समाधान की दिशा में ठोस चिन्तन, निर्णय और क्रियान्विति जरूरी है।

मैं आदिवासी समाज से दीक्षित जैन मुनि हूं। पिछले तीन दशक से मुनि चर्या का निर्वाह करते हुए मैंने आदिवासी समाज के उत्थान के लिये व्यापक प्रयत्न किये हैं। विशेषतः आदिवासी समाज को हिंसा से अहिंसा की ओर ले जाने में मेरे प्रयत्न कारगर रहे है।

यही कारण है कि गुजरात का आदिवासी समाज आज हिंसा को छोड़कर अहिंसा का जीवन जीते हुए आत्म-निर्भर हो गया है।

गुजरात के आदिवासी अंचल बलदगांव, कवांट, बोडेली, रंगपुर, छोटा उदयपुर आदि क्षेत्रों में हमने सुखी परिवार अभियान के अन्तर्गत अनेक शैक्षणिक, रोजगार, महिला विकास, कृषि विकास, संस्कार निर्माण, नशा मुक्ति की योजनाएं संचालित की है।

इसी क्षेत्र में श्री नरेन्द्र मोदी ने सुखी परिवार एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय का शिलान्यास किया, और इस आयोजन में हमारे प्रयास से करीब डेढ़ लाख आदिवासी उपस्थित थे। यह आयोजन आदिवासी समाज को एक दिशा देने का सशक्त माध्यम बना। बावजूद इसके आज भी यह और देश के अन्य आदिवासी क्षेत्र घोर उपेक्षा एवं राजनीतिक भेदभाव के शिकार है।
किसी भी देश-समाज में उभरने वाली लोकतांत्रिक राजनीति के लिए आवश्यक है कि राजनीतिक वैचारिकी का निर्माण हो।
जब हम दलितों से आदिवासियों के राजनीतिक नेतृत्व की तुलना करते हैं, तो स्पष्ट दिखाई देता है कि दलितों में मसीहा के रूप में बाबा साहेब आंबेडकर मौजूद हैं, जो संपूर्ण राष्ट्र के दलित समाज के वैचारिक महानायक हैं, जिनसे दलित समाज निरंतर प्रेरणा लेता रहता है।

आदिवासीजन के साथ स्थिति भिन्न है। यहां कोई प्रेरणादायक विभूति नहीं है।

रामायण के दौर बाल्मीकि ऋषि, सबरी आदिवासी चरित्र रहे हैं, झारखण्डी आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा, महानायिका सिनगी दई, राबिनहुड के नाम से जाने जाने वाले टंट्या भील, सिद्धू कान्हूं, तिलका मांझी, शहीद गैंदा सिंह जैसे अनेक आदिवासी मसीहा हैं।

ऐसे अनेक ऐतिहासिक या लोकतांत्रिक नायक उभरे, उनमें से कोई अपने अंचल की सीमाओं को पार नहीं कर सका। जबकि आज देश में बहुत बड़ा आदिवासी समाज है। उन्हें एक सक्षम महानायक की अपेक्षा है।
आदिवासियों के लिए सबसे बड़ी परेशानी की वजह क्या है?
इस बात के ढेरों जवाब हो सकते हैं लेकिन आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, गुजरात एवं मध्यप्रदेश के आदिवासियों की हालत देखें तो इसका सीधा जवाब मिलता है। जल, जंगल और जमीन।

आजादी के बाद से लगातार जल, जंगल और जमीन के कारण उन्हें बार-बार विस्थापित होना पड़ा है और भला अनचाहे विस्थापन से बड़ा दर्द क्या हो सकता है?

हर दसवां आदिवासी अपनी जमीन से विस्थापित है

देश में लगभग 11 करोड़ आदिवासियों की आबादी है और विभिन्न आंकड़ों की मानें तो हर दसवां आदिवासी अपनी जमीन से विस्थापित है।

पिछले एक दशक में ही आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा में जो 14 लाख लोग विस्थापित हुए, उनमें 79 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है।
जंगल को अपना घर समझने वाले जनजातियों के विस्थापन के दर्द को किसी मुआवजे से दूर नहीं किया जा सकता।
आदिवासी, अपने जीवन, आजीविका और सांस्कृतिक पहचान के लिए जंगलों पर निर्भर हैं। जंगलों से दूर होते ही विस्थापित आदिवासी समुदाय कई अन्य समस्याओं की गिरफ्त में आ जाता है।

दुर्भाग्यजनक ये है कि आदिवासियों के विस्थापन का यह सिलसिला अनवरत जारी है। विस्थापन के साथ-साथ जिन बड़ी समस्याओं से आदिवासी समाज जूझ रहा है, उनमें मुख्य है शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य एवं राजनीतिक भेदभाव।

छत्तीसगढ़ सघन एवं प्राचीन आदिवासी क्षेत्र है।

छत्तीसगढ़ की पहचान उसके जंगल और आदिवासियो के लिए है। पर, पिछले कुछ वर्षों में इस्पात, लोहा संयंत्र और खनन परियोजना ने आदिवासियों का जीवन संकट में डाल दिया है। बस्तर, दंतेवाड़ा जिलों में जहां नक्सलवाद के कारण आदिवासियों का जीवन दूभर हो गया है, तो सरगुजा और जशपुर जिले में खनिज संसाधनों का दोहन और सरकारी उपेक्षा आदिवासी समाज के लिए खतरा बन चुका है।
आदिवासी समाज अपनी जड़ों से जुड़कर ही अपना विकास चाहता है।
आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता, आत्मसम्मान, संस्कृति और विकास ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर अराजनीतिक चिन्तन अपेक्षित है। इस परिप्रेक्ष्य में जब स्वायत्तता की बात की जाती है तो यह राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति सभी स्तरों पर प्रासंगिक दिखाई देगी।

आदिवासी समाज बहुत लंबे समय तक अपनी ही दुनिया में स्वायत्त और स्वावलंबी जीवन जीता रहा, उसके पीछे अस्मिता और आत्मसम्मान की समृद्ध परंपरा रही है।

इस स्वायत्तता के साथ आदिवासी बहुत मुश्किल से समझौता कर रहे हैं, चाहे वह उनके लिए लाभकारी ही क्यों न हो। इसकी वजह दीर्घकालीन मानसिकता होती है, जिसमें परिवर्तन बाहर से संभव नहीं होगा, इसलिए सकारात्मक परिवर्तन के लिए उनकी सहमति लेनी होगी। इस सहमति के बिना परिवर्तन मानसिक तनाव को जन्म देगा, जो उस समाज के लिए सदा पीड़ा का कारण बना रहेगा और उसके विकास, अस्मिता और मौलिक मानवाधिकारों के संरक्षण में बाधा उत्पन्न करेगा।

जंगलों पर आधारित आर्थिक जीवन को प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने बुरी तरह प्रभावित किया है। नतीजतन आदिवासी जीवन भी प्रभावित हुआ और पारिस्थितिकी संतुलन बुरी तरह बिगड़ा। भारत की वन नीति और संवैधानिक प्रावधान इसकी छूट नहीं देते, लेकिन चीजों को तोड़-मरोड़ कर सब कुछ किया जाना संभव हो जाता है।

सामाजिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, जो आदिवासी अस्मिता से सीधे-सीधे संबंध रखते हैं।
आदिवासी समाज के लिए शिक्षा का अधिकार अत्यंत मूल्यवान है।
इसी पर उनके व्यक्तित्व का विकास, उनकी राष्ट्र निर्माण में भागीदारी और स्वयं आदिवासी समाज का विकास आधारित है।

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग ने यह स्वीकार किया है कि जब तक शिक्षा के अभाव से पैदा होने वाले आदिवासियों के शोषण को नहीं रोका जाएगा तब तक उनके कल्याण की बात नहीं बन सकती।

सरकारी योजनाएं आदिवासी शिक्षा के लिए स्कूलों, छात्रवृत्ति और अन्य सुविधाओं की कोई कमी नहीं है। यहां प्रश्न इन सुविधाओं के अलावा दृष्टिकोण और शिक्षा के माध्यम का है, जिस पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए।

आदिवासी समुदाय का एक बड़ा संकट ये भी है कि जंगल के इलाकों में रहने के कारण आमतौर पर सरकार संचालित योजनाएं इन तक नहीं पहुंच पाती।
केंद्र और राज्य सरकार की रोजगार गारंटी योजना सहित दूसरी योजनाओं से ये आदिवासी पूरी तरह दूर हैं।
जंगलों में भोजन की उपलब्धता के कारण कुपोषण और बीमारी इनके लिए जानलेवा साबित हो रही है। ऊपर से इलाके में होने वाला औद्योगीकरण की मार इन पर पड़ रही है और इन्हें अपनी जमीन और परंपरागत व्यवसाय से विस्थापित होना पड़ रहा है।

आदिवासियों को विशेष शैक्षणिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अवसरों में प्राथमिकता मिलना चाहिए जिससे आदिवासियों द्वारा सहे गये पहले के अन्याय और उपनिवेश के प्रभावों का प्रतिकार किया जा सके।

आदिवासी सामुदायिक व्यवहारों की सुंदरता, उनकी मिल-बांटने एवं सब के लिए आदर की संस्कृति, गूढ विनम्रता, प्रकृति प्रेम और सबसे उपर उनकी समानता तथा नागरिक समन्वय की गहन अनुरक्ति से देश बहुत कुछ सीख सकता है।

ऐसी ही चर्चाओं से दिल्ली का आदिवासी कार्निवल मील का पत्थर साबित हो, यह अपेक्षित है।

गुजरात से जुड़ा होने के कारण मेरे सम्मुख वहां के आदिवासी समाज की समस्याएं सर्वाधिक चिन्ता का कारण है।

इन दिनों गुजरात में आदिवासी समुदाय में असन्तोष का बढ़ना बड़ी मुसीबत का सबब बन सकता है। सत्तारूढ़ भाजपा के लिए पाटीदारों और दलितों के बाद अब आदिवासी समुदाय मुसीबत खड़ी कर सकता है।
राज्य के आदिवासी इलाकों में भीलिस्तान आंदोलन रफ्तार पकड़ रहा है।
अगले साल विधानसभा चुनावों से पहले आदिवासी नेता विद्रोह करने की तैयारी कर रहे हैं। इसके पीछे कुछ और लोग भी हैं जो अपने राजनीतिक हितों के लिए उन्हें बढ़ावा दे रहे हैं।

गुजरात में भाजपा लगभग तीन दशक से सत्ता में है लेकिन पहली बार उसके लिए राजनीतिक जमीन बचाना मुश्किल होता दिख रहा है। इसका कारण कुछ आदिवासी राजनीतिक चेहरों के भेदभाव की स्थितियां है, हाल में केन्द्र में जनजाति राज्यमंत्री श्री मनसुख भाई वसावा को हटना हो या रामसिंह भाई राठवा की उपेक्षा का मसला हो, अभी छोटी दिखाई देने वाली बातें आगे नासूर न बन जाये?

प्रस्तुति- ललित गर्ग