हाई कोर्ट का हस्तक्षेप है – छात्र हित... खतरनाक है यह उत्साह
हाई कोर्ट का हस्तक्षेप है – छात्र हित... खतरनाक है यह उत्साह
कन्हैया कुमार और उनके साथियों पर हाई कोर्ट का निर्णय छात्रों में न्यायालय के प्रति विश्वास के साथ ही शिक्षण संस्थानों द्वारा न्याय और मौलिक अधिकारों के दमन की कहानी को भी उजागर करता है. भारतीय संविधान से प्राप्त भारतीय नागरिकों के अधिकारों के दमन की इस कहानी की सबसे बड़ी त्रास्दी यह है कि ऐसा करते वक़्त आधार रूप में संस्थानों द्वारा संविधान की गलत व्याख्या की जाती है. इसलिए संस्थानों द्वारा लिए गए ऐसे निर्णय को संविधान-विरोधी समझते हुए न्यायलय से कड़ी सजा के लिए अपील किया जाना भी आवश्यक हो जाता है. उच्च न्यायलय के फैसले को गंभीरता से देखा जाए तो हमें इन संस्थानों की सच्चाई का पता चलता है. निर्णय में एक बिंदु ऐसा भी है जिसमें कहा गया है कि –
“The university did not give them due opportunity to defend themselves against the charge of indiscipline.”
इसका सीधा अर्थ है मौलिक अधिकारों का हनन और दुर्भाग्य यह है कि यह कार्य देश के सर्वोच्च शिक्षा संस्थान जे. एन. यू. के द्वारा हुआ. सेक्शन 226 और 227 में इन समस्याओं का जिक्र है जिसे प्रत्यक्ष रूप में अस्वीकृत किया गया. संवैधानिक नियमों के प्रति यह अस्वीकृति बेहद गंभीरता से लेने की आवश्यकता है. उच्च शिक्षा संस्थानों में अपने छात्रों के प्रति इस प्रकार के रवैये को नजर अंदाज करना आज इतना ख़तरनाक हो गया है कि भारी संख्या में छात्रों का जीवन तबाह किया जा रहा है. इस तबाही को रोकने के लिए विश्वविद्यालयों के तानाशाही रवैयों पर यदि लगाम नहीं लगाया गया तो मुश्किलें और बढ़ेंगी. इन मुश्किलों से लड़ना सिर्फ़ छात्रों के लिए ही आवश्यक नहीं है बल्कि साथ ही उन एक्टिविस्टों के लिए भी जरुरी है जो समस्याओं को रेखांकित कर नियमों की मांग अथवा संशोधनों की आवश्यकता को उजागर करते हैं.
ज्युडिशयरी सिस्टम के प्रयोग की इजाजत संस्थानों को कई कारणों से मुहैया करवाई जाती है. देश में मुकदमों की संख्या और उसके निवारणों के लिए संस्थागत व्यवस्था की कमी से हम सभी परिचित हैं. ऐसे में जब मौलिक अधिकारों की हत्या कर संस्थाओं में व्यक्तिगत हित-अहित के आधार पर निर्णय होने लेगे तो बेहतर है कि संस्थाओं से किसी के जीवन पर निर्णय करने के अधिकार को छीन लिए जाए. कन्हैया कुमार का संबंध जे. एन. यू. से है और जे. एन. यू. देश की राजधानी होने के नाते मीडिया के केंद्र में. अगर भौगौलिक आधार पर ऐसा नहीं होता तो शायद संभव है कि संस्थागत प्रताड़नाएँ उन्हें रोहित वेमुला का रास्ता अपनाने के लिए विवश कर देती. इसलिए उनके छूटने पर जश्न नहीं हमें चिंतन की प्रक्रिया में होना चाहिए.
अभी हाल में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने लोकमत में एक आलेख लिखा है. इस आलेख में उन्होंने ‘मानसिक स्वास्थ्य’ पर विस्तार से बात की है. लेकिन इस लेख में उन्होंने छात्रों के मानसिक तनाव के मूल कारणों को पकड़ने की कोशिश नहीं की. निराशा, आत्महत्या, चिंता आदि का संबंध क्या सिर्फ़ व्यक्तिगत संदर्भों में ही देखा जाना चाहिए? और यदि ऐसा है तो स्वाभाविक है कि ऐसे आलेखों की आलोचनाओं को भी व्यक्तिगत आधार पर ग्रहण किया जाए और आलोचकों को जैसे-तैसे दण्डित किया जाए. इससे स्वस्थ चिंतन की प्रक्रिया कैसे बढ़ेगी? जब स्वस्थ चिंतन की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ेगी तो संभव है कि विश्वविद्यालय का उत्पादन भी स्वस्थ नहीं होगा. आज लगभग विश्वविद्यालयों में छात्रों के क़ानूनी आधार प्रशासनों की मर्जी पर टिका हुआ है. मानसिक शांति और स्वास्थ्य पर लगातार चिंतित रहने वाले कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र जी ने कभी इस पर विचार करना जरुरी क्यों नहीं समझा कि उनके विश्वविद्यालय में क्या छात्रों के मौलिक अधिकार सुरक्षित हैं? क्या उनके अधिकारी और वे स्वयं उन नियमों का पालन करते हैं, जिनका पालन नहीं करना उन्हें घोषित रूप में असंवैधानिक अधिकारी घोषित कर सकता है? और यदि ऐसा है तो क्या कारण है कि उनके यहाँ जितनी भी अनुशासनात्मक कारवाई हेतु कमिटी बनाई गई उसमें मर्यादाओं और नियमों का खुले आम उल्लंघन किया गया. इन उल्लंघनों का एक ही लक्ष्य रहा—‘छात्रों को उनके अध्ययन के अधिकार से दूर रखना’. इस क्रम में उन अधिकारियों को भरपूर सहयोग और मौका दिया गया जो अपने अपने विषय में तो अध्ययनहीन रहे ही साथ ही जिन्होंने नियमों को उठाकर पढने तक की कोशिश नहीं की. जो कानूनी जानकार थे उन्हें किसी तरह कुलपति के हस्तक्षेप से साइड करवा दिया गया. क्या ऐसी परिस्थिति में विश्वविद्यालयों के अधिकार क्षेत्र से न्यायिक-प्रक्रिया को हटाने की सोच को ताकत नहीं मिलती है? अफ़सोस की बात यह है कि बहुत कम लोग जानते हैं कि इस प्रकार से न्यायिक प्रक्रिया और अधिनियमों के उल्लंघन करने पर ऐसे भी प्रावधान हैं कि विश्वविद्यालय से यह अधिकार छीन लिए जाएँ.
इस क्रम में यदि विशाखा गाइड लाइन (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल) के नियमों पर विचार किया जाए तो इस तरह नियमों के उल्लंघन करने पर विश्वविद्यालय पर कारवाई के स्पष्ट निर्देश हैं.
पार्ट-3, सेक्शन-4 के 12 में कार्यवाही के कई निर्देशों में दण्डित करने का प्रावधान है. इसमें मुख्य है—12. 1. (a). विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 की धारा 12 (b) के अंतर्गत की गई घोषणा जो पात्रता दिए जाने के संदर्भ में है, उसका आहरण किया जाना.
12. 1. (c). संस्थान को आबंटित किसी भी अनुदान को रोक देना.
12. 1. (d). किसी भी सहायता के लिए संस्थान को अपात्र घोषित किया जाना.
12. 1. (g). यदि वह एक मानित विश्वविद्यालय है तो केंद्र सरकार से उस मानित विश्वविद्यालय के आहरण की अनुशंसा करना.
इस तरह के अनेकों नियम हैं जिनके आधार पर संस्थानों पर कार्यवाई की जा सकती है बावजूद इसके खुल कर नियमों का उल्लंघन किया जाता है. संभव है कि अन्य गाइड लाइन्स में भी ऐसे नियम हों. अब सवाल यह उठता है कि क्या इन बातों की जानकारी के वगैर अधिकारी नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं या उनके पास जानकारी नहीं है. दोनों स्थितियां भयावह हैं और इससे भी अधिक भयावह है ऐसे माहौल में ‘मानसिक शांति’ की तलाश करना जहाँ एक दो नहीं बल्कि 10-10 अधिनियमों का उल्लंघन हो रहा हो. यह भी संभव है कि छात्रों के बारे में यह धारणा बन गई हो कि छात्र इस तरह की लडाई में इतनी दूर तक नहीं जा सकते. ऐसा सोचना एक हद तक ठीक भी है लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि धारणाओं के टूटने से पहले आंधी या तूफ़ान नहीं आया करती है.
इन समस्याओं का दूसरा पक्ष भी है जिसका संबंध हमारे समाज के विमर्शकारों से जुड़ा है. विमर्श और उसके प्रभाव से तैयार होती व्यवस्था यदि एक रेखीय होगी तो स्वाभाविक है कि शोषण के ख़िलाफ संगठन कभी मजबूत स्थिति में नहीं पहुँच सकते हैं. अगर ऊपर दिए गए गाइड लाइन के संदर्भ में ही विचार किया जाए जिसका संबंध स्त्री-विमर्श से है तो इन समस्याओं को समझा जा सकता है. नियम और कानून सकारात्मक आधार पर परिवर्तनशील भी होने चाहिए. विशाखा गाइड लाइन पर विश्वविद्यालयों में आए दिन नए-नए जागरूकता संबंधी कार्यक्रम होते रहते हैं लेकिन इसके साथ ही इन नियमों का गलत प्रयोग कौन-कौन सी चुनौती और समस्या खड़ी कर सकती है क्या इसपर विचार करना आवश्यक नहीं? अगर दोषी पर दोष साबित और सजा के लिए 90 दिन तय किए गए हैं तो क्या इस 90 दिन के बाद के 90 या 100 ऐसे दिन जिसमें आरोपी खुद को निर्दोष साबित कर सके या अन्य ऐसी व्यवस्था के प्रति चिंता क्यों नहीं? अगर कोई आरोपी सजा पाता है जिसकी अवधि तीन महीने है, यदि वह निर्दोष साबित होने में कई वर्ष गँवा देता है तो क्या स्त्री-अधिकारों के प्रति या सम्मान के प्रति भविष्य में उससे सामाजिक सहयोग की अपेक्षा की जा सकती है? तो क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए कि इन नियमों के तहत सजा दिलवाना ही आखिरी प्राथमिकता है? यदि ऐसा है तो इस बात को दावे के साथ साबित किया जा सकता है कि स्त्री-अधिकारों के प्रति संगठन जितना मजबूत होगा उससे कहीं अधिक मजबूत स्त्री-विरोधी संगठन होंगे. सड़कों पर लड़कियों को छेड़ते पुरुष या बालात्कारियों से क्या उनलोगों की तुलना की जा सकती है जिन्हें नियमों का दुरूपयोग कर फंसाया गया हो? और यदि यह सब किया जा सकता है तो फिर जाने-अनजाने हम प्रतिक्रियावादी समाज की निर्मिती के स्वयं जिम्मेदार होंगे.
अकेले वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय में उच्च न्यायलय द्वारा वर्षों खर्च कर न्याय पाकर लौटे छात्रों ने स्त्री-विरोधी मानसिकता के पक्ष में एक फ़ौज खड़ी कर दी. यह फ़ौज भले घातक न हों लेकिन अब समर्थक भी नहीं रहे और न होने की संभावना बची. राज्य अधीन विश्वविद्यालय ने लोकतांत्रिक अधिकारों की हत्या कर एक छद्म स्त्री-पक्ष पेश किया जो वास्तविक रूप में स्त्री-विरोधी है. लेकिन हमारी दिक्कत यह है कि हम सजा दिलवाने और जीतने के प्रति इतने उत्साहित होते हैं कि सामाजिक परिणामों की चिंता ही नहीं करते हैं. यह उत्साह खतरनाक है. यह उत्साह वंचित तबकों से जुडी पत्रकारिता में भी खूब देखा जा रहा है. इसका एक मात्र कारण राज्य से दुश्मनी ही नहीं होता है. इसके कई कारणों में कुछ ऐसे भी कारण होते हैं.
आज ‘द वायर’ संस्था दिक्कत में है, कल को नेशनल दस्तक दिक्कत में हो सकती है या परसो स्त्री-काल के किसी सही रिपोर्ट पर हमलों में वाजिब सहायता न मिले? जिनमें वगैर विचार के, व्यक्तिकता के आधार पर एक पक्षीय रिपोर्ट भी होते हैं. ऐसे रिपोर्ट अक्सर उनलोगों के संदर्भ में होता है जिनकी पहुँच से ये क्रांतिकारी पत्र-पत्रिकाएं बेसुध होती हैं. परिणाम यह निकलता है कि वह बिना पहुँच का व्यक्ति अपने हिस्से का विरोध अपने समाज में करता है और जिससे पक्ष की संख्या घटती है. ऐसे में हमारा अंतिम रोना राज्य की मजबूती को लेकर होता है. राज्य बेहद मजबूत तो है ही लेकिन इस आड़ में अपनी कमज़ोर नीतियों को नहीं छुपाया जा सकता है. मैं इस छोटी बात को मजबूत उदाहरण के साथ रखना चाहूँगा. विश्वविद्यालय के किसी मुद्दे पर जांच के बीच में निर्णयात्मक रिपोर्ट छपे गए. इसमें दो धाराएँ थी एक राईट ओरिएंटेड तो दूसरा ‘अगेंस्ट ऑफ राईट’. दोनों की भाषा और रिपोर्ट एक जैसी एक रेखीय थी. मैंने दोनों पक्षों के संपादकों से बात की—‘दूसरा पक्ष कहाँ है’. सभी का जवाब एक ही था. ‘संपर्क नहीं हो पाया’. अब सवाल यह उठता है कि विपत्ति के समय में संपर्क कैसे होगा खासकर तब जब आप राज्य से लड़ रहे होंगे. संभव है तब आपका नारा होगा—‘ हमें आपसी दुश्मनी भूला कर एक होकर राज्य से लड़ना चाहिए’. यह तार्किक नारा है. लेकिन वह आदमी या समूह यह कैसे भूलेगा कि जिसके विरोध के लिए आप संघ के साथ एक हुए रहते हैं, वह आपके साथ हो जाए? क्या यह शिक्षा आपसे ही उसे नहीं मिलती है कि ख़राब समय में संघ से मिलने में कोई खराबी नहीं है? कितने अविवेकी हो गए हैं हम. यह अविवेकी उत्साह घातक है.
यही वह उत्साह था जो केदार मंडल से अजीबो-गरीब भाषा का निर्माण करवाता है. यह भाषा केदार का चाहे जितना नुकसान कर रही हो उससे कहीं ज्यादा नुकसान उन कार्य-कर्ताओं को हो रहा है जो धुर-विरोधी और परंपरागत सोच रखने वालों को एक युग से समझाते-बुझाते प्रगतिशीलता की ओर ले जाते हैं. केदार की भाषा उस राह को तोड़ देती है.
मिथक का जवाब इतिहास से दिया जा सकता है और उसकी हजारों किस्म की भाषा हो सकती थी. इसका एक परिणाम यह भी निकला कि वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय के भी कई छात्रों ने उस भाषा को ग्रहण किया और परिणाम भयावह निकला. अब यहाँ भी विश्वविद्यालय की भूमिका देखी जा सकती है. विश्वविद्यालय ने रजनीश आंबेडकर की पी-एच.डी पर आपत्ति शुरू कर दी. और क्या रजनीश अम्बेडकर के साथियों और मित्रों में तथाकथित मार्क्सवादियों ने लम्बे समय से उन जातिवादी शिक्षकों को अपना भगवान घोषित नहीं किया हुआ है, जिनकी भूमिका छात्रों को अध्ययन से दूर करने के साथ कैंपस से निकलवाने की रही. यह कैसी आइसा है जो ‘मुलायमी’ मार्गदर्शक से संचालित होती है. अपने मन में भले यहाँ के क्रांतिकारी भगत सिंह से भी आगे हों लेकिन रजनीश अम्बेडकर की गिरफ़्तारी के तुरंत बाद पार्टी में हृतिक रोशन के ठुमके लगाने में भी पीछे नहीं.
यह कैसा विश्वविद्यालय है? क्या इसका आविष्कार सिर्फ इसलिए हुआ है कि यह दिन भर यह तय करे कि कब किसको पढाई-लिखाई से मुक्त करना है? क्या इसकी अपनी योग्यता के लिए कोई कार्यक्रम नहीं? फिर नॉन-परफोर्मिंग यूनिवर्सिटी के लिस्ट में आने पर इतना विलाप क्यों? अभी तो शुक्र है कि आप किसी लिस्ट में हैं अन्यथा यही हाल रहा तो एक दिन किसी लिस्ट में ही नहीं होंगे.
ऐसे भी अनेक कारण होते हैं जिससे ‘मानसिक शांति’ और ‘स्वास्थ्य’ख़राब हो जाता है. यदि संवैधानिक अधिकारों का इसी तरह उल्लंघन होता रहा तो स्वास्थ्य के और भी बिगड़ने की आशंका बनी रह सकती है.
(इस आलेख में लिखे हरेक शब्द की जिम्मेदारी लेखक की होगी).
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