हिंदी के अधिकांश सवर्ण कवि दलित कविता कर रहे हैं तो इसका श्रेय ढसाल को है
हिंदी के अधिकांश सवर्ण कवि दलित कविता कर रहे हैं तो इसका श्रेय ढसाल को है
नोबेल विजेता की खूबियों से लैस रहे नामदेव ढसाल
15 फरवरी, 1949 को पुणे के निकट ‘पुर’ ग्राम में जन्मे तथा मुंबई के ‘कमाठीपुरा’ और ‘गोलपीठा’ के रेड लाईट एरिया में पले-बढ़े विश्व कवि नामदेव लक्ष्मण ढसाल गत वर्ष आंत के कैंसर से जूझते हुए 15 जनवरी की सुबह मुंबई के बॉम्बे हॉस्पिटल में जीवन युद्ध हार गए थे। उनके परिनिवृत्त होने के बाद किस तरह मुंबई के लोगों ने शेष विदाई दिया था इसका आकलन चर्चित कवि विष्णु खरे द्वारा इस लेखक को भेजे गए उस इ-मेल सन्देश से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने लिखा था-
‘पता नहीं आपने नामदेव की शवयात्रा के चित्र देखे हैं या नहीं, किन्तु वह एक बड़े नेता के सम्मान जैसी निकली थी। उसमें करीब साठ हजार लोग शामिल हुए थे। मुंबई का ट्रैफिक रुक गया था। दिल्ली में हिंदी के साठ लेखकों की यदि एक साथ मृत्यु हो जाय तो उसमें 600 से ज्यादा लोग नहीं आयेंगे और जो आएंगे उनमें भी अधिकांश पारिवारिक लोग होंगे’।
तो यह थे अवाम पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ने वाले पद्मश्री नामदेव ढसाल जिनका जाना डॉ. आंबेडकर और कांशीराम के बाद दलित आन्दोलन की सबसे बड़ी क्षति थी। कारण, वे इन दोनों के बीच के सेतु थे। बहुतों को विश्वास नहीं होगा कि दलित राजनीति पर अविस्मरणीय छाप छोड़ने वाले कांशीराम ने कभी अपने से पन्द्रह साल छोटे ढसाल के नेतृत्व में कुछ समय काम किया था। बहरहाल उनकी बहुत बड़ी त्रासदी यह रही कि वे दलित और मुख्यधारा, दोनों ही समुदाय के बुद्धिजीवियों की उपेक्षा के बुरी तरह शिकार रहे। दलित बुद्धिजीवी जहां उनकी जीवन की शेष बेला में शिवसेना से बने रिश्तों के कारण उन्हें डॉ. आंबेडकर और कांशीराम की पंक्ति में स्थान देने में व्यर्थ रहे, वहीँ जिस-तिस को गाँधी-जेपी बना देने वाले मुख्यधारा के बुद्धिजीवी भी उनको योग्य सम्मान न दे सके। उन्होंने जिस तरह नोबेल विजेता टैगोर और नायपाल इत्यादि के मुकाबले अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में रहकर साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में विश्व स्तरीय कार्य किया था, उसे अगर सही तरीके से सामने लाया गया होता, अवश्य ही भारत के खाते में एक और नोबेल विजेता का नाम जुड़ जाता।
वैसे तो विषम परिस्थितियों में रहकर ढेरों लोगों ने अपनी प्रतिभा से दुनिया को विस्मित किया है, पर, ‘कमाठीपुरा’ और ’गोल पीठा’ जैसे धरती के नरक से निकल कर ढसाल जैसी कोई अन्य विश्व स्तरीय शख्सियत शायद ही सामने आई। एक बूचड़खाने के साधारण कर्मचारी की संतान ढसाल ने रेड लाईट एरिया में रहते एवं टैक्सी ड्राइवरी से लेकर छोटी-मोटी नौकरियां करते हुए अपना कविता कर्म जारी रखे। जिस रेड लाईट इलाके में ढसाल पले-बढ़े थे, वहां रहते हुए अंततः सब कुछ तो बना जा सकता था, पर विश्व स्तरीय कवि नहीं। खुद ढसाल ने लिखा है कि अगर कविता मुझे नहीं खींचती तो मैं टॉप लेवल का गैंगस्टर या स्मगलर होता या फिर किसी चकला घर का मालिक। किन्तु उनके अन्दर का कवि जीत गया और महानगरीय अधोलोक ने उन्हें एक ऐसे विद्रोही कवि के रूप में जन्म दिया, जिसने अभिजनों की भाषा और व्यवस्था पर शक्तिशाली प्रहार किया।
उनकी कविता की शायद इन्ही खूबियों ने कुछ साल पहले कवि विष्णु खरे को यह उद्गार व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया था –
“अगर कविता का लक्ष्य मानव जाति की समस्यायों का समाधान ढूंढना है तो ढसाल, टैगोर से ज्यादा प्रासंगिक और बड़े कवि हैं। अंतर्राष्ट्रीय कविता जगत में भारतीय कविता के विजिटिंग कार्ड का नाम नामदेव ढसाल है। उन्होंने कविता की संस्कृति को बदला है; कविता को परम्परा से मुक्त किया एवं उसके आभिजात्यपन को तोड़ा है। संभ्रांत कविता मर चुकी है और इसे मारने का काम ढसाल ने किया है। आज हिंदी के अधिकांश सवर्ण कवि दलित कविता कर रहे हैं तो इसका श्रेय ढसाल को जाता है। ढसाल ने महाराष्ट्र के साथ देश की राजनीति को बदलकर रख दिया है। ऐसा काम करनेवाला भारत में कोई और कवि नहीं हुआ। लेकिन क्या सिर्फ भारत! नहीं, दुनिया में एक से बढ़कर एक कवि हुए पर, किसी भी विश्वस्तरीय कवि ने दलित पैंथर जैसा उग्र राजनीतिक संगठन नहीं बनाया। अवश्य ही वैचारिक लेखन करने वाले कुछ लेखक स्वतंत्र रूप से ऐसा संगठन बनाने में सफल रहे, पर अपवाद रूप से ढसाल को छोड़कर कोई अन्य बड़ा कवि नहीं। उन्होंने कैसा संगठन खड़ा किया था, उसका जायजा लेने के लिए हमें एक बार दलित पैंथर की भूमिका का सिंहावलोकन कर लेना चाहिए।
अब से चार दशक पूर्व जब भारत के पूर्वी हिस्से में नक्सलवाद सुविधासंपन्न वर्ग में भय का संचार कर रहा था, उन्ही दिनों 9 जुलाई 1972 को पश्चिम भारत में 23 साल के युवा ढसाल ने ‘दलित पैंथर’ जैसे विप्लवी संगठन की स्थापना की। इस संगठन ने डॉ. आंबेडकर के बाद मान-अपमान से बोधशून्य दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया। इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलितों में नया जोश भर दिया जिसके फलस्वरूप उनको अपनी ताकत का अहसास हुआ तथा उनमें ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई। इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही ढसाल ने यह घोषणा कर- ‘यदि विधान सभा या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे’-शासक दलों में हडकंप मचा दिया।
दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था। उस आन्दोलन का ढसाल और उनके क्रन्तिकारी साथियों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ‘ब्लैक पैंथर’ की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम ‘दलित पैंथर’ रख दिया। जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैन्थरों ने डॉ. आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी के अनुसार संगठन का निर्माण किया। यद्यपि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं। बकौल चर्चित मार्क्सवादी चिन्तक आनंद तेलतुंबडे,-
’इसने देश में स्थापित व्यवस्था को हिलाकर रख दिया और संक्षेप में बताया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है। इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी थी। अपने घोषणापत्र पर अमल करते हुए पैन्थरों ने दलित राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थो में नई जमीन तोड़ी। उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की तथा उनके संघर्ष को दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्ष से जोड़ दिया।’
बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज कर सकता है किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी भूमिका को नज़रंदाज़ करना संभव नहीं है।
दलित पैंथर और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलूँ हैं। इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही साहित्य से जुड़े हुए थे। दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया । परवर्तीकाल में डॉ. आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित पैन्थरों का मराठी दलित साहित्य हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया। दलित साहित्य को इस बुलंदी पर पहुचाने का सर्वाधिक श्रेय ढसाल को ही जाता है। धरती के नरक में रहकर उन्होंने जीवन के जिस श्याम पक्ष को लावा की तरह तपती कविता में उकेरा, वह दलित ही नहीं, विश्व साहित्य की अमूल्य धरोहर है।
एच एल दुसाध


