पलाश विश्वास

संघ परिवार के सुप्रीमो से भारत के राष्ट्रपति की शिष्टाचार मुलाकात से एकात्मकता यात्रा के समापन पर नई दिल्ली पहुंचने के बाद संघ सुप्रीमो बालासाहेब देवरस की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अगवानी का इतिहास याद आ रहा है।

आपातकाल के दौरान आरएसएस पर रोक लगाने वाली इंदिरा गांधी का यह कदम भारत की राजनीति में हिंदुत्व के पुनरूत्थान का टर्निंग पाइंट कहा जा सकता है और इसके बाद आपरेशन ब्लू स्टार के साथ साथ राम जन्म भूमि आंदोलन के साथ संघ परिवार और कांग्रेस के चोली दामन के रिश्ते के साथ साथ कारपोरेट हिंदुत्व के शिकंजे में यह भारत राष्ट्र फंसता ही चला गया है।

गौरतलब है कि प्रणव मुखर्जी इंदिरा गांधी के खास सिपाहसालार और रणनीतिकार रहे हैं और हिंदुत्व के पुनरूत्थान के साथ ही मुक्तबाजारी कारपोरेट हिंदुत्व एजंडे में उनकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। इसी के साथ आधार परियोजना, कर सुधार से लेकर आटोमेशन और निजीकरण, विनिवेश से लेकर डायरेक्ट टैक्स कोड और जीएसटी जैसे आर्थिक सुधार उन्हीं के शुरु किये हैं, जिस पर संघ परिवार अब बेहद तेजी से अमल कर रहा है।

प्रणव मुखर्जी के बजट में इन्हीं सुधारों पर 2011 में मेरी एक किताब भी प्रकाशित हुई थीः प्रणव मुखर्जी का बजट = पोटाशियम सायनाइड।

इस शिष्टाचार मुलाकात के नतीजे भी दीर्घकालीन होंगे।

गौरतलब है कि भारत के राष्ट्रपति के लिए संवैधानिक पद पर बहाल किसी देशी विदेशी व्यक्ति के साथ शिष्टाचार मुलाकात के लिए न्यौता दिये जाने की परिपाटी है।

गौरतलब है कि संघ सुप्रीमो हमारी जानकारी के मुताबिक ऐसे किसी संवैधानिक पद पर नहीं हैं और न ही वे किसी लोकतांत्रिक संस्थान या किसी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इस शिष्टाचार का मतलब क्या है, यह समझना मुश्किल है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ घोषित तौर पर अराजनीतिक हिंदू सांस्कृतिक संगठन है जिसका राजनीतिक एजंडा हिंदू राष्ट्र का है और उसकी राजनीतिक शाखा भारत की सत्ता में बहाल होकर रंगभेदी मनुस्मृति राजकाज की नरसंहार संस्कृति का कारपोरेट एजंडा लागू कर रही है।

आज तक राष्ट्रपति भवन से पहले किसी संघ सुप्रीमो के साथ ऐसी शिष्टाचार मुलाकात के लिए किसी राष्ट्रपति के न्यौता दिये जाने की कोई घटना मेरी स्मृति में नहीं है। आज तक किसी भी दौर में संघ परिवार के मुख्यालय से भारत सरकार की नीतियां तय नहीं हो रही थी।

इस लिहाज से यह शिष्टाचार भेंट अभूतपूर्व है।

राष्ट्रपति की इस अभूतपूर्व पहल से संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा को वैधता मिली है क्योंकि भारत के राष्ट्रपति के संवैधानिक पद से लोकतंत्र, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता, विविधता, बहुलता, सत्य, अहिंसा जैसे तमाम मूल्यों के पक्ष में आज तक के सारे वक्तव्य रहे हैं, जिनका संघ परिवार के अतीत, वर्तमान और भविष्य से कोई नाता नहीं रहा है।

भारत के राष्ट्रपति ने संघ परिवार के राष्ट्रद्रोही एजंडा को इस शिष्टाचार मुलाकात से वैधता दी है और विडंबना है कि विचारधाराओं के धारक वाहक सत्ता वर्ग के विद्वत जन से लेकर राजनीति के तमाम खिलाड़ी इस प्रसंग में खामोश हैं।

क्या दोबारा राष्ट्रपति बनकर रायसीना हिल्ज के राजमहल में पांच साल और ठहरने के इरादे से संघ परिवार के समर्थन हासिल करने के लिए महामहिम ने यह न्यौता दिया है?

क्योंकि अपने लंबे राजनीतिक अनुभव के मद्देनजर उन्हें मालूम है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए आम सहमति का उम्मीदवार खोजना संघ परिवार के लिए मुश्किल है और मोहन भागवत को सीधे राष्ट्रपति बनाकर कोई बड़ा राजनीतिक जोखिम संघ परिवार उठाने नहीं जा रहा है और संघ परिवार समर्थन कर दें, तो विपक्ष उनके नाम पर सहमत हो सकता है।

क्या भारत के राष्ट्रपति भवन से निकलकर प्रणव मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय प्रचारक बनकर गायत्री मंत्र जाप का प्रशिक्षण देंगे?

गौरतलब है कि शिवसेना भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए शुरू से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत को राष्ट्रपति बनाने की मुहिम छेड़ी हुई है। इस बीच राष्ट्रपति चुनाव के लिए चुनाव आयोग ने अधिसूचना जारी कर दी है और समूचा विपक्ष अब भी संघ परिवार के उम्मीदवार का नाम घोषित किये जाने का इंतजार कर रहा है ताकि सहमति से नया राष्ट्रपति का चुनाव हो सके।

इसी परिदृश्य में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने मोहन भागवत से मुलाकात कर ली है। मीडिया के मुताबिक राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने शुक्रवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत को राष्ट्रपति भवन में दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया।

गौर करें कि संघ के स्वयंसेवक शिक्षण और प्रशिक्षण शिविर से लौटकर मोहन भागवत सीधे राष्ट्रपति भवन गये। जिसका महिमामंडन का यह शिष्टाचार है।

बहरहाल राष्ट्रपति चुनाव से ऐन पहले हुई इस मुलाकात ने राजनीतिक हलकों में अटकलों को हवा दी है। इस पर संघ परिवार की सफाई है कि यह पूर्व निर्धारित शिष्टाचार भेंट थी और इसके कोई निहितार्थ नहीं निकाले जाने चाहिए।

क्या इस मुलाकात के बाद संघ परिवार के अनुमोदन पर प्रणव मुखर्जी को दोबारा राष्ट्रपति चुनने के किसी प्रस्ताव पर विपक्ष समहत हो जायेगा?

गौरतलब है कि कांग्रेस जमाने में तमाम घोटालों में महामहिम के नाम नत्थी हैं।लेकिन भारत के राष्ट्रपति होने की वजह से संवैधानिक रक्षाकवच के चलते उनपर कोई मामला बनता ही नहीं है और उनकी भूमिका की जांच पड़ताल हो सकती है।

उनके इस संवैधानिक रक्षा कवच का लाभ पक्ष विपक्ष के राजनेताओं और सत्ता वर्ग को भी मिली है जिसकी वजह से वे राष्ट्रपति लगभग आम सहमति से बन गये।अब भी वही स्थिति जस की तस है।

वैसे भी अपनी दिनचर्या गायत्री मंत्र से शुरू करने वाले प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन को हिंदुत्व का धर्मस्थल में तब्दील कर दिया है और वे अपने कार्यकाल के दौरान अपने पैतृक गांव जाकर दुर्गा पूजा करते रहे हैं।

वे न सिर्फ बंगाल के ब्रह्मणवादी वर्चस्व के बल्कि भारतीय ब्राह्मणवादी मनुस्मृति कुलीन निरंकुश रंगभेदी सैन्यतंत्र के भीष्म पितामह हैं। इस हैसियत से उनकी संघ सुप्रीमो के साथ शायद शिष्टाचार मुलाकात बनती है और इसलिए सत्ता वर्ग को इससे खास ऐतराज भी नहीं है।