हिंदुत्व सब एकेसार : न कोई हाशिया, कोई मुध्य धार!
0 राजेंद्र शर्मा
बिहार के पांच चरण के चुनाव के चौथे चरण का प्रचार खत्म होते ही, राज्य की सत्ता के दावेदार दोनों मोर्चे दिल्ली में चुनाव आयोग के दरवाजे पर पहुंचे। लेकिन, इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। इस बार बिहार के चुनाव ने जिस तरह महज एक राज्य के चुनाव के कहीं बढक़र महत्व हासिल कर लिया है और जिस तरह इस चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिष्ठा और महागबंधन की राजनीतिक प्रासंगिकता, दांव पर लगी हुई है, उसे देखते हुए दोनों मोर्चे अगर इस पूरे चुनाव के दौरान अपनी शिकायतें लेकर, चुनाव आयोग के सामने नहीं पहुंचते तो ही अचरज की बात होती। अलबत्ता यह जरूर थोड़ा विचित्र है कि दोनों पक्ष चुनाव आयोग के सामने एक जैसी शिकायत लेकर पहुंचे थे-विरोधी सांप्रदायिकता का सहारा ले रहा है। महागठबंधन की ओर से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की ‘तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे’ की टिप्पणी के सांप्रदायिक इशारों की शिकायत की गयी और पिछड़ों-दलितों से छीनकर पांच फीसद आरक्षण मुसलमानों को देने के खुद प्रधानमंत्री मोदी समेत भाजपा नेताओं द्वारा लगाए गए आरोपों और नितीश कुमार तथा महागठबंधन के मुस्लिम आतंकवादियों पर नरम होने के भाजपा के आरोपों की भी शिकायत की गयी। एक तरह से इसके जवाब में ही भाजपा की ओर से कांग्रेस नेताओं की इस आशय की टिप्पणी के सांप्रदायिक होने की शिकायत की गयी कि भाजपा, ‘हिंदुओं और मुसलमानों को लड़ाकर’ फायदा उठाना चाहती है।
बहरहाल, कम से कम चुनाव आयोग के व्यावहारिक निर्णय से इतना तो नतीजा निकाला ही जा सकता है कि उसने दोनों पक्षों की इन एक जैसी शिकायतों को, एक जैसा वजन दिया नहीं है। आयोग के फैसले के व्यावहारिक हिस्से में भाजपा के दो विज्ञापनों/ पोस्टरों पर रोक लगा दी गयी है, जिनका सीधा संबंध महागठबंधन की उक्त शिकायतों से है। इनमें एक तो प्रतिद्वंद्वी गठबंधन पर ‘आतंकवाद के मुद्दे पर नरम’ होने का आरोप लगाने वाला विज्ञापन ही है। दूसरा विज्ञापन, दलितों-पिछड़ों से छीनकर पांच फीसद आरक्षण मुसलमानों को देने के ‘षडयंत्र’ का आरोप लगाने वाला है। अगर महागठबंधन चुनाव आयोग के उक्त कदम को अपनी शिकायत के सच माने जाने के रूप में व्याख्यायित करे, तो पूरी तरह से अनुचित नहीं होगा।
बहरहाल, चुनाव आयोग के उक्त निर्णय की व्याख्याओं की बहस अपनी जगह, इस पूरे प्रसंग में दो चीजें अधिकांश तटस्थ टिप्पणीकारों ने दर्ज की हैं। इनमें पहली चीज है, खासतौर पर भाजपा अध्यक्ष की ‘पाकिस्तान में पटाखे’ वाली टिप्पणी का सरासर अनुचित होना।
बेशक, शाह की टिप्पणी पर चौतरफा शोर मचने पर भाजपा ने इसे बिहार के चुनाव के नतीजों से नरेंद्र मोदी के कमजोर/ मजबूत होने पर, पाकिस्तान की खुशी/नाखुशी की ओर इशारे के रूप में व्याख्यायित करने की कोशिश की है। लेकिन, खींच-तानकर दी जा रही ऐसी सफाई अपनी जगह, भाजपा ने इस टिप्पणी से खुद को अलग करने की कोशिश हर्गिज नहीं की है। यहां तक कि पार्टी में अपेक्षाकृत नरमपंथी माने जाने वाले सुशील मोदी ने भी बाद में ट्वीट कर के अमित शाह की उक्त टिप्पणी को एक तरह दोहराया ही है। यह तब है जबकि उदार से उदार व्याख्या करें तब भी, यह टिप्पणी कम से कम भाजपा गठबंधन के विरुद्ध वोट डालने को ‘पाकिस्तान को खुश करने वाला’ और इसलिए राष्ट्रविरोधी कृत्य तो ठहराती ही है। जनतांत्रिक व्यवस्था, चुनाव में लोगों के किसी भी निर्णय को इस तरह ‘राष्ट्रविरोधी’ मानने या बताने की इजाजत नहीं दे सकती है। मतदान के जरिए चुनी या हटायी जा सकने वाली सरकार और राष्ट्र का इस तरह ‘मिलाया’ जाना,तानाशाही के मिजाज का ही लक्षण है, जनतंत्र का नहीं।
लेकिन, वास्तव में यह सिर्फ जनतांत्रिक बनाम तनाशाही के मिजाज का ही मामला नहीं है। प्रत्यक्ष रूप से न सही, इस पाकिस्तान कनैक्शन में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की ओर इशारा जरूर छुपा हुआ है। यह बात संघ-भाजपा के पाकिस्तान के जिक्र के मामले में खासतौर पर सच है। संघ-भाजपा के जानकारों ने बार-बार इस बात को रेखांकित किया है कि उनकी भाषा में भारतीय मुसलमान, भारत में पाकिस्तान का प्रवेश हैं और पाकिस्तान, भारतीय मुसलमानों का विस्तार। यहां आकर दोनों समानार्थी हो जाते हैं। प्रकटत: एक पर हमला, दूसरे के लिए धमकी हो सकता है। ऐसा ही इशारा नितीश कुमार और महागठबंधन को ‘आतंकवाद पर नरम’ बताए जाने में छुपा है। गिनाए गए नामों से इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता है कि प्रकटत: आतंकवाद का जिक्र होते हुए भी, इशारा अल्पसंख्यकों की ओर ही है। यह संयोग ही नहीं है कि संघ-भाजपा यह दोहराते नहीं थकते हैं कि ‘हिंदू तो आतंकवादी हो ही नहीं सकता है।’
बहरहाल, दलित-पिछड़ों से छीनकर आरक्षण का एक हिस्सा मुसलमानों को देने के ‘षडयंत्र’ के आरोपों के सांप्रदायिक निहितार्थ और भी मुखर हैं। याद रहे कि यह आरोप खुद प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लगाया गया और चुनाव आयोग के उक्त निर्णय के बाद की अपनी चुनाव सभाओं में भी दोहराया गया है। ऐसे किसी षडयंत्र में कोई तथ्य होने न होने से अलग, खुद प्रधानमंत्री द्वारा दुहराए जाने को देखते हुए इस दावे के एक निहितार्थ की ओर ध्यान खींचना जरूरी है। इस पूरे विवाद के बीच आरक्षण की व्यवस्था पर ही पुनर्विचार की जरूरत के आरएसएस प्रमुख भागवत के बयान पर यह सफाई आयी है कि संघ, संविधान में स्वीकृत आरक्षण के पक्ष में है और सिर्फ धर्म पर आधारित आरक्षण के खिलाफ है। भाजपा के नेता भी, जनता के दो हिस्सों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने वाले अपने उक्त दावे के बचाव में किसी न किसी रूप में इसी सिद्घांत की शरण लेते हैं।
लेकिन, मुद्दा यह है कि जब सच्चर कमेटी तथा रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपार्टों में मुसलमानों के पिछड़ेपन की सचाई को अकाट्य तरीके से सामने लाया जा चुका है और रंगनाथ मिश्र आयोग सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन के पैमाने से, जाहिर है पिछड़ी मुसलमान जातियों को ही आरक्षण दिए जाने की सिफारिश कर चुका है, देश का प्रधानमंत्री कैसे मुसलमानों के किसी भी तबके के लिए आरक्षण की मांग को, दूसरे पिछड़ों के लिए आरक्षण को ‘छीनना’ कह सकता है और उसका मुकाबला करने के अपनी जान की बाजी लगा देने के दावे कर सकता है! यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस तरह का दावा वास्तव में धार्मिक आधार पर आरक्षण का विरोधी नहीं है बल्कि धार्मिक आधार पर ही आरक्षण का समर्थक है। बस वह दूसरे समुदायों के पिछड़ों का हक मारकर, आरक्षण का विशेषाधिकार हिंदुओं तक ही सीमित रखना चाहता है।
दूसरी चीज, जिसकी ओर अधिकांश टिप्पणीकारों ने ध्यान खींचा है, भाजपा के प्रचार में चुनाव के अंतिम चरण में इन सांप्रदायिक इशारों का सहारा लिया जाना है। ऐसा माना जा रहा है कि पहले तीन चरणों में हुए मतदान में अपेक्षित कामयाबी न मिलती नजर आने से, अंतिम दो चरणों पर भाजपा के

नेतृत्व वाले गठबंधन की निर्भरता और ज्यादा बढ़ गयी है। इसलिए, वह इन चरणों में कामयाबी के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। अंतिम दो चरणों में से भी अंतिम यानी पांचवे चरण में, जिसमें ज्यादा बड़ा हिस्सा मुस्लिम बहुल सीमांचल का ही है, सामान्यत: भाजपा अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद नहीं कर सकती है। ऐसे में अंतिम दो चरणों में अल्पसंख्यक विरोधी स्वर तेज कर, बहुसंख्यक वोट का ध्रुवीकरण करने में ही भाजपा को निस्तार दिखाई दे रहा लगता है।
खैर! बिहार की जनता का क्या फैसला है, इसका पता तो 8 नवंबर को मतगणना के बाद ही चलेगा। इस चुनाव के नतीजों का शेष देश पर क्या असर पड़ेगा, यह और भी ज्यादा भविष्य के गर्भ में है। फिर भी बिहार के चुनाव के अंतिम चरण में भाजपा की प्रचार रणनीति के इस बहुसंख्यकवादी मोड़ से दो सवाल तो उठते ही हैं। क्या आने वाले समय में राजनीतिक चुनौतियों के सामने भाजपा ऐसे ही विकास के सवालों को पीछे कर, बहुसंख्यकवादी मुद्रा का ज्यादा से ज्यादा सहारा ले रही होगी? दूसरा इसी से जुड़ा सवाल यह कि ऐसा हुआ तो हिंदुत्ववादी ‘हाशिए’ और मुख्यधारा में क्या अंतर रह जाएगा? और यह अंतर नहीं रहा तो ‘विकास’ के नारों का क्या होगा? देश के बुद्धिजीवियों-सृजनकर्मियों के बाद, अब तक तो मूडीज़ ने भी बता दिया है कि हिंदुत्ववादी हाशिया न सिर्फ असहिष्णुता बढ़ा रहा है बल्कि उसने ‘विकास’ की राह रोकना भी शुरू कर दिया है। बिहार चुनाव के बाद ‘विकास’ का रास्ता बंद ही न हो जाए!
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