मीडिया, पुलिस, जांच एजंसियों ने एक अघोषित युद्ध मुसलमानों के खिलाफ छेड़ रखा है
क्योंकि तुम ‘मोहम्मद महरूफ’ नहीं ‘निलेश पाटिल’ हो
वसीम अकरम त्यागी
चुनावों के एन मौके पर कोल्हापुर जिले के कागल में पुलिस ने चार बम बरामद किए हैं। साथ ही बम बनाने वाले चार आरोपियों को भी गिरफ्तार किया है। कागल शहर से सटे एमआईडीसी के लक्ष्मी टेक इलाके में कागल पुलिस ने छापामारी कर कार्रवाई की। बम मिलने की घटना से कोल्हापुर में खलबली मची है। सवाल यह पैदा होता है कि मुख्यधारा का जो मीडिया है, चाहे वह इलैक्ट्रॉनिक मीडिया हो, प्रिंट हो या फिर वेब मीडिया ही क्यों न हो कहीं पर कोई हलचल इन गिरफ्तारियों को लेकर नहीं हो रही है, उसकी क्या वजह है ? http://www.thehindu.com/news/cities/mumbai/four-live-bombs-seized-in-kolhapur-four-arrested/article5879713.ece
कागल पुलिस ने जिन चार आरोपियों को गिरफ्तार किया है उनकी शिनाख्त निलेश पाटिल (20) अनिकेत माली (22) अजिन्कया भोपले (22) अनिल खाडसे (26) के रूप में हुई है। मगर मुख्यधारा के मीडिया विशेषकर हिंदी मीडिया के लिये यह कोई खबर ही नहीं है। एक बड़े प्रतिष्ठित अखबार दैनिक भास्कर ने तो इस खबर को सिंगल कॉलम में देकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया मगर चारों आरोपियों के नाम प्रकाशित न करके अखबार ने अपना नजरिया भी साफ कर दिया कि आतंकवादी सिर्फ वही है जिसके चेहरे पर दाढ़ी और सर पर टोपी है।
बीते महीने जब जयपुर से इंडियन मुजाहिदीन के चार संदिग्ध को दिल्ली स्पेशल सेल ने गिरफ्तार किया था तब इसी अखबार ने लिखा था, कि (इंडियन मुजाहिदीन के चार आतंकवादी गिरफ्तार। मकान मालिक के सामने पढ़ते थे कुरआन)। इतना ही नहीं तेज तर्रार पत्रकारों ने उन चारों की कुंडली तक खंगाल डाली थी। क्या खाते थे, क्या पहनते थे, कहाँ जाते थे, किसको मारने आये थे आदि। अगले दिन वह खबर राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों में पहले पृष्ठ पर थी और न्यूज चैनलों का हाल तो आप सभी जानते हैं कि किस तरह एंकर चीख- चीख कर इंडियन मुजाहिदीन का खौफ पैदा कर रहे थे।
अब जबकि चार जिंदा बमों के साथ उनको बनाने के आरोपी इंजीनियरिंग के छात्रों को गिरफ्तार किया जा चुका है, कहीं भी किसी तरह की कोई हलचल कोई वार्ता, होती नहीं दिख रही है। आखिर यह दोगलापन नहीं है तो और क्या है ? एक तरफ यही मीडिया केवल शक के आधार पर उठाये गये किसी मोहम्मद उजैर, अल्ताफ, खालिद आदि को तुरंत देश-विदेश में आतंकवादी बना देता है। साल दस बाद जब उन पर लगाये गये आरोप सिद्ध नहीं हो पाते और वे बरी हो जाते हैं। तब यही मीडिया न तो उनसे माफी माँगता और उनकी रिहाई की खबर को भी एक कोने में लगाकर आजाद हो जाता है।
यह है भारतीय मीडिया का दोहरा चरित्र जो हिंदुत्ववादियों से भी ज्यादा खतरनाक है। जरा सी देर में पूरे मुस्लिम समुदाय को कटघरे में खड़ा करने वाला मीडिया, भगवा आतंकवाद पर खामोश हो जाता है जिसकी खामोशी से साफ जाहिर होता है कि हिंदी मीडिया कितना निष्पक्ष है ? और किस कदर क्रूर, सांप्रदायिक, कुंठित, और गंदी मानसिकता से ग्रस्त है ? लेकिन उससे भी ज्यादा तकलीफ इस बात की है कि समाज का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग भी मीडिया के इस दुष्प्रचार पर खामोशी का ताला लगा लेता है, जिससे सांप्रदायिक मीडिया को और अधिक बल मिलता है, संप्रदाय विशेष को बदनाम करने के लिये। लानत है ऐसी गटरछाप और गंदी पत्रकारिता पर जिसकी नजर में मोहमम्द महरूफ तो आतंक का सरगना है और निलेश पाटिल जो बम बनाता है वह एक निर्दोष छात्र यह कब तक तक चलेगा ? मानना होगा कि मीडिया, पुलिस, जांच एजंसियों ने एक अघोषित युद्ध मुसलमानों के खिलाफ छेड़ रखा है। जो आंतकित करके संप्रदाय विशेष को मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रही हैं। एक लोकतांत्रिक सेक्यूलर देश में इस तरह की घटनाओं का होना फासीवादी ताकतों के लिये रास्ता साफ करने जैसा है। क्योंकि फासीवादी ताकतों का जो कार्य है उसकी तर्जुमानी हिंदी मीडिय कर रहा है।
वसीम अकरम त्यागी, लेखक साहसी युवा पत्रकार हैं।