हिन्दी को जनभाषा रहने दें, न इसे सत्ता की भाषा बनने दें और न हिंदुत्व की पहचान!
हिन्दी को जनभाषा रहने दें, न इसे सत्ता की भाषा बनने दें और न हिंदुत्व की पहचान!
लोग स्वाभाविक विकल्प बतौर मातृभाषा के साथ दूसरी भाषा बतौर हिंदी को अपनाते हैं, राजभाषा जबरदस्ती करके इस हिंदी प्रेम की हत्या की जा रही है।
पलाश विश्वास हम पुरुषकारों की रागनिती नहीं समझते और न इसके समीकरणों से हमारा कोई लेना देना है और न हम पुरुषकारों के दावेदादार हैं। मंगलेश दत्ता और वीरेंद्र दा जैसे आत्मीय कवियों को अकादमी पुरस्कार मिलने से जितनी खुशी हुई, उतनी ही खुशी अरुण कमल, राजेश जोशी और लीला धीर की पुरस्कार प्राप्त होने पर हुई। महाश्वेता देवी से तो अंतरंग संबंध रहे हैं और गिरीश कर्नाड की पहचान है, लेकिन दोनों को मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार से हमें सुकून जरूर मिला। अब केदारनाथ सिंह भी संजोयोग से परिचित हैं। प्रिय कवि भी हैं, उनको अबकी दफा ज्ञानपीठ मिला तो अच्छा लग रहा है।
इधर हिंदी को राजभाषा बनाने के फतवे से भारी बवाल मचा है और इस आलेख का प्रायोजन इस मुद्दे और इस संदर्भ पर तनिक संलाप हेतु है। हमारा भारत सरकार और हिंदी जनता से विनम्र निवेदन है कि हिंदी को जनभाषा रहने दें, न इसे सतता की भाषा बनने दें और न हिंदुत्व की पहचान!
इस हकीकत से शायद इस देश में किसी को इनकार हो सकता है कि संप्रदाय भाषा के बतौर हिंदी का कोई विकल्प है नहीं। इस बारे में तथाकथित हिंदी विरोधी भूगोल में हमारे निज़ी अनुभव बेहद सुखद हैं, जहां घोषित हिंदी विरोध के बावजूद आम जनता में हिंदी के जिरिए संवाद करने के...


