मोहम्मद ज़फ़र

6 अगस्त, 1945, एक ऐसा दिन जिसे हम सब मानवता के एक काले दिन के रूप में याद करते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा जापान के शहर हिरोशिमा पर बम गिराए जाने की घटना राजनीति के साथ विज्ञान पर भी एक काला धब्बा लगाती है। इस दिन सुबह के समय लोग अपने अपने कामों में लगे हुए थे। कोई दफ्तर जाने की जल्दी में था तो कोई स्कूल, कोई फैक्ट्री, तो कोई दुकान। मगर तभी सवा आठ बजे के करीब एक सूरज जैसी रोशनी हुई और सब कुछ ख़ाक। अत्यधिक गर्म और भीषण तेज़ हवा से घर मलबों में बदल गए। कितने लोग झुलस कर भाप बन गए। कितनों की त्वचा उखड़ गई, कितनों के शरीर के हिस्से गायब हो गए। और जो बचे वे हमेशा हमेशा के लिए विकिरण यानि रेडिएशन के शिकार हो गए। रेडिएशन जो पीढ़ियों तक पीछा नहीं छोड़ता। मशरूम जैसे उठते बादल सब कुछ फना कर चुके थे। विज्ञान का ऐसा भीषण रूप कभी नहीं देखा गया था।

हिंदी के मशहूर रचनाकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" ने हिरोशिमा कविता में इस विभीषिका को पीड़ा से दर्शाया है जो सोचने पर भी मजबूर करती है कि मानव का बनाया सूर्य मानव को ही जला कर भाप कर गया। और उस इंसान की छाया जो भाप बन गया था वह इस बात की साखी है कि मानव किस दिशा में जा रहा है। युद्ध प्रेमी लोगों को सदा यह दिन ध्यान दिलाया जाना चाहिए कि युद्ध कभी भी किसी का भला लेकर नहीं आता। इससे होती है तो बस भीषण तबाही और बर्बादी। विज्ञान के शिक्षक, विद्यार्थियों और वैज्ञानिकों को भी यह दिन सोचने पर मजबूर करता है कि विज्ञान का असली काम क्या है? क्या इस तरह के आविष्कार विज्ञान की समाज की ज़िम्मेदारी दर्शाते हैं? क्या समाज और शांति के लिए विज्ञान को ज़िम्मेदार नहीं रहना चाहिए। साथ ही क्या वैज्ञानिक को राजनैतिक कठपुतली रहना चाहिए चाहे लालच या डर से।

इसी कड़ी में एक किताब याद आती है जिसका नाम है "मैं ढूंढ रहा हूँ।" आर्थर बिनार्ड द्वारा रचित, भोपाल के एकलव्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह किताब असल में कविताओं का संकलन है। ये कविताएँ इस दिन परमाणु हमले के बाद मर चुके लोगों के बचे हुए सामानों के मानवीकरण पर आधारित है जो अपने मालिकों को याद कर रहे हैं। ये सामान खुद भी टूट फूट गए हैं। और उस दिन की विभीषिका को बता रहे हैं। जैसे कि एक घड़ी अपने मालिक को याद कर रही है कि रोज़ वो उसके हाथ में बंधती थी लेकिन उस धमाके के बाद इसका वक्त वहीं रुक गया है। एक टूटा टिफिन बॉक्स याद कर रहा है कि कैसे उसमें रोज़ उसके मालिक बच्चे का खाना जाता था मगर अब यह कभी अपने पहले से रूप में नहीं आ पाएगा। इन कविताओं में भावनाओं का उभार है जिसे लेखिका तोमोको किकुची ने जापानी से हिंदी में अनुवादित किया है। इस किताब को ज़रूर पढ़ें। यह युद्ध की विभीषिका और परमाणु के किसी भी तरह से पक्षधर लोगों को और साथ ही परमाणु बम पर राष्ट्र गौरव देखने वालों को यह बताती है कि तुम किस पर इतरा रहे हो उस पर जो तुम्हीं को ख़ाक बनाने और भाप की तरह उड़ाने का अस्त्र है। हमें युद्ध पसंद मानसिकता से बाहर निकलने की ज़रूरत है और मानवता विरोधी सभी कार्यक्रमों के विरोध करने की ज़रूरत है वरना कितने ही हिरोशिमा और नागासाकी तबाह होते रहेंगे।

आज हम सभी यह भी जानते हैं कि अमेरिका का कितना झूठ छिपा है इस बात में कि उसे परमाणु बम युद्ध रोकने के लिए इस्तेमाल करना पड़ा। असल में अगर ऐसा होता तो फिर दूसरा बम नागासाकी पर क्यों गिराया जाता? तब जबकि हिरोशिमा से तबाही मच ही चुकी थी। खैर कोई भी तर्क मासूम नागरिकों को निशाना बनाने में और जीव जंतुओं को भी ना बख्शने की निर्दयता को छिपा नहीं सकता। आज हम अगर अमेरिका के पीछे पीछे विकास का रास्ता देखते हैं या अमेरिका जैसे देश शांति और आतंकवाद के दुश्मन के रूप में खुद को पेश करते हैं तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि उनके द्वारा कितने निर्दोषों का खून बहाया गया है। और किस तरह वे आज भी युद्ध की विभीषिका पर अपने झूठ का पर्दा डालने पर लगे रहते हैं। एक पहलू यह भी है कि अमेरिका को अपने नए और महाघातक बमों का परीक्षण भी असली रूप में करना था जो उसने किया भी। इस कृत्य के लिए उस वक्त की अमेरिकी सरकार कभी माफ़ नहीं की जाएगी और साथ ही वे लोग भी जो इस फैसले के हक़ में खड़े दिखते हैं। और वे वैज्ञानिक भी नहीं जो छद्म राष्ट्रवाद या डर से इस अभियान में हिस्सेदार थे। भले ही वे लाख बोलते रहे कि नाज़ी से पहले उन्हें इसे बनाने की जल्दबाजी थी।

अगर ऐसा आगे भी होता रहा तो वैज्ञानिकों के लिए बहुत बड़ा सवाल है कि वे मानवता के साथ हैं या फिर सरकारों के तानाशाही रवैयों के। हालाँकि बाद में मैनहट्टन प्रोजेक्ट (परमाणु बम बनाने का खूफ़िया कार्यक्रम) के मुखिया जे. रॉबर्ट ओपेन्हेइमेर ने भी अपने बाद के वक्तव्य में कहा था कि उन सभी का मानना था कि जंग जल्दी ख़त्म हो और उनको ये भी डर था कि कहीं अमेरिका से पहले दूसरे इसे बना ना लें क्योंकि इसके निर्माण की सम्भावना तो विज्ञान दे ही चुका था तो इसलिए भी इसके निर्माण की जल्दी थी। मशहूर भौतिकविद रिचर्ड फ़ाईनमेन ने अपनी किताब द प्लेशर ऑफ़ फाइंडिंग थिंग्स आउट में भी लिखा है कि वे जब भी कोई निर्माण कार्य देखते थे तो वे सोचने लगते थे कि यह सब क्यों? एक दिन यह सब ख़ाक में मिल जाएगा। परमाणु बम जैसे आविष्कार पर सोचकर वे हमेशा वैज्ञानिकों को भी इसका बड़ा ज़िम्मेदार समझते थे। वैसे लियो ज़िलार्ड जैसे वैज्ञानिकों ने इसका जंगी इस्तेमाल करने से रोकने के लिए अमेरिकी सरकार से काफी प्रयास किए मगर सब असफल रहे।

भारत में भी परमाणु शक्ति बनने को हम लोगों ने और सरकारों ने बड़े गर्व की बात माना है। आज भी हम ऐसे अस्त्रों को हमारे गौरव के रूप में देखते हैं। विभिन्न देशों में परमाणु हथियार बनाने की होड़ मची हुई है। आनंद पटवर्धन की फिल्म वार एंड पीस इस दिशा में सोचने को भी मजबूर करती है कि ऐसे हथियारों के निर्माण में, रखरखाव में और रक्षा में जितना खर्च होता है वह देश के लाखों गाँवों में बिजली, पानी, स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ देने में मददगार हो सकता है। मगर युद्ध की होड़ में लगे इस विश्व में रोज़ सुविधाओं के अभाव में मरते तमाम लोगों पर ध्यान की जगह युधास्त्रों के निर्माण पर अधिक ज़ोर है। शायद इतने करोड़ों वर्षों से मानव का जैवविकास इसलिए तो नहीं हुआ कि वह एक दूसरे को मिटाता रहे और उसकी चेतना ना सिर्फ खुद उसके लिए बल्कि प्रकृति के अन्य जीव जंतुओं के लिए भी काल बन जाए। मानवता के लिए सभी सरकारों व हम सबको एक बार ध्यान से सोचना होगा।

Hiroshima.कुछ लोग परमाणु बम और ऊर्जा को एकदम अलग करके देखते हैं। जबकि कुछ परमाणु ऊर्जा पर भी सवाल उठाते हैं और उसे फ्रेंकेंसटीन के राक्षस जैसा समझते हैं जो कभी गड़बड़ हुई तो सम्भाले नहीं सम्भलेगा। पर जो इसे शांति की उर्जा बताते हैं उन्हें भी यह सोचना होगा कि देश की उर्जा में कितने प्रतिशत ऊर्जा परमाणु ऊर्जा की देन है? और कितनी प्राकृतिक स्त्रोतों की ऊर्जा है। जैसे पवन ऊर्जा, बहते पानी की ऊर्जा और सबसे महत्वपूर्ण सौर ऊर्जा। यह भी सोचने की बात है कि जितना खर्चा परमाणु ऊर्जा में किया गया उतना खर्चा क्या सौर ऊर्जा के विकास में लगाया गया है? या क्या उतना ध्यान, अनुसन्धान या मेहनत भारत में सौर ऊर्जा के विकास लिए की गई? सरकारें सौर ऊर्जा के संयत्रों को खर्चीला व जगह घेरने वाला बताती हैं तो क्या परमाणु ऊर्जा के प्लांट्स कम खर्चीले हैं। या उन्होंने कुडनकुलम जैसी जगहों पर कम जगह घेरी है? या फिर अगर परमाणु ऊर्जा स्वच्छ ऊर्जा है जैसा कि हमारी किताबें हमेशा पढ़ाती आई हैं तो फिर कर्नाटका के गोगी तथा बंगाल के जादूगोड़ा जैसी खनन की जगह पर प्रदूषण क्या है? जिस तरह गांधी के स्थानीय और गैर-केन्द्रीय विकास को नीति निर्धारक नकारते आए ठीक उसी तरह डी. डी. कौसाम्बी जैसे विद्वानों के सौर ऊर्जा के छोटे छोटे ग्राम स्तर के संयंत्रों के विचार को और प्रत्येक ग्राम को आत्मनिर्भर बनाने के विचार को भी नकार दिया गया। क्या ये सब सवाल हमें ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते सोचने को मजबूर नहीं करते। हमें शांति के साथ साथ ऐसी नीतियों पर भी सोचना चाहिए जो बड़े प्लांट, बड़े सौदे और बड़े भ्रष्टाचार को जन्म देने के लिए गढ़ी और जस्टिफाई की जाती हैं। माना कि परमाणु बम और परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में अंतर है मगर फिर भी चेर्नोबिल, थ्र्री माइल्स और फुकुशिमा जैसे उदाहरण अभी बहुत पुराने नहीं हुए हैं।

चित्र साभार: द अटलांटिक

मोहम्मद ज़फ़र