हिंदू साम्राज्यवाद का पुनरूत्थान का समय है कारपोरेट मुक्तबाजार
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हाल में कारपोरेट साहित्य उत्सव के मुख्य मेहमान बने नोबेलिया अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने जयपुर के मंच से ज्ञान विज्ञान विकास के लिए संस्कृत के अनिवार्य पाठ की वकालत की थी।
संविधान की आठवीं सूची में भारतीय भाषाओं को मान्यता दी गयी है, लेकिन हिंदुत्व के राजकाज में उन भाषाओं, उनसे जुडी बोलियों और संस्कृतियों के सत्यानाश की कोई कसर बाकी नहीं रही कभी।
अब संस्कृत अनिवार्य भाषा बनने वाली है तो नरेंद्रभाई मोदी के व्यक्तित्व कृतित्व का अनिवार्य पाठ शुरु हो गया समझो।
इसी के साथ लालकिले के प्राचीर से हिंदुत्व के एजेण्डे का जयघोष का कार्यक्रम भी भागवत गीता उत्सव के तहत हो रहा है।
हम बार-बार कहते रहे हैं कि संविधान से ही राष्ट्र की रचना हुई है।
हम बार-बार कहते रहे हैं कि संविधान ही रक्षा कवच है।
हम बार-बार कहते रहे हैं कि अच्छा हो या बुरा, बिना राज्यतंत्र में बदलाव उसे बदलने की कोई भी कोशिश कारपोरेट मनुस्मृति स्थाई बंदोबस्त में खुदकशी का फैसला होगा।
हम बार-बार कहते रहे हैं कि संविधान में दिये गये हक हकूक और संविधान के तहत मिले देश के लोकतंत्र के आधार पर ही, इसी जमीन पर हम इस कारपोरेट केसरिया कयामत का मुकाबला कर सकते हैं।
दरअसल अस्मिताओं को तोड़कर जाति- धर्म- नस्ल- भाषा- क्षेत्र अस्मिता निरि विशेष मेहनतकश तबके की गोलबंदी बिलियनरों-मिलियनरों की सताता जमात के खिलाफ जब तक नहीं होगी, हम कयामत के शिकंजा में कैद रहेंगे और वहीं दम तोड़ते रहेंगे।
इसे यूं समझिये कि धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस समाते तमाम दलों उपदलों के समर्थन या तठस्थता के सहारे श्रम के सारे अधिकार छीन लिये गये और अब बीमा बिल भी कांग्रेस समेत समूचे धर्मनिरपेक्ष खेमे के समर्थन से पास होना है।
ऐसे ही जनसंहारी तमाम कानून बन बिगड़ रहे हैं। ऐसा ही है नरमेध महोत्सव।
विदेशी अबाध पूंजी और नवउदारवाद और पूना समझौते की अवैध संतानें अब अरबपति करोड़पति हैं और वे हमारे कुछ भी नहीं लगते।
हमें क्यों मनुष्यता के विरुद्ध युद्ध अपराधियों को अपना प्रतिनिधि मानकर खुद को युद्ध अपराध की हिस्सेदारी लेनी चाहिए, दिलोदिमाग को एकात्म विपाश्यना में डालकर सोचें जरूर।
जो मु्क्त बाजार में साँढ़ संस्कृति है और धर्म के बहाने जो पुरुषतंत्र है, उसमें समूची स्त्री देह एक अदद योनि के अलावा कुछ भी नहीं है और सारा अनुशासन उस योनि की पवित्रता के लिए है। वही दरअसल धर्म कर्म आस्था है। जो स्त्री देह का शिकार है।
स्त्री के बाकी शरीर, उसके मन मस्तिष्क को लेकर पुरुषतंत्र की कोई चिंता नहीं है। यह निर्लज्ज वर्चस्ववाद है। योनि के अधिकार का गृहयुद्ध है, युद्ध है और कुछ नहीं।
धर्म और आस्था के बहाने इस उपमहादेश में धर्म जाति नस्ल निर्विशेष स्त्री शूद्र है और यौन क्रीतदासी भी।
अवसर उसके लिए जो हैं, जो उच्चपद हैं, पुरुषतंत्र उसके एवज में उस पर अपना ठप्पा लगाता रहता है।
ठप्पा लगाने से इंकार करने वाली स्त्रियाँ वेश्या बना दी जाती हैं, बलात्कार की शिकार होती हैं, प्रताड़ना और उत्पीड़न के मध्य जीने को विविश कर दी जाती हैं और ज्यादा बागी हो गयीं तो मार दी जाती हैं।
उसी स्त्री के विरुद्ध युद्ध और मनुस्मृति शासन अनुशासन ही संघ परिवार का एजेण्डा है।
गौहर खान के गाल पर तमाचा हो या बापुओं का बलात्कार या धार्मिक फतवा या आनर किलिंग या आइटम कन्याओं को वेश्या कहना, या प्रेम प्रदर्शन के खिलाफ नैतिकता पुलिस बाजार के व्याकरण के मुताबिक है।
क्योंकि बाजार में स्त्री का स्टेटस चाहे कुछ भी हो वह एक उपभोक्ता सामग्री है और पुरुषतांत्रिक धर्मराज्य के मुक्तबाजार में उसकी योनि का नीलाम होना अनिवार्य है।
यही संघ परिवार का एजेण्डा है और हिंदू साम्राज्यवाद का पुनरूत्थान भी।
ध्यान दें कि संघ परिवार अब महज ब्राह्मणवाद का वर्चस्व नहीं है।
सिर्फ ब्राह्मणवाद के बहाने ब्राह्मणों के खिलाफ युद्धघोषणा की जुबानी जमाखर्च से पुरुषातात्रिक यह मुक्तबाजारी मनुस्मृति व्यवस्ता का राज्यतंत्र बदलेगा नहीं।
इंडियन एक्सप्रेस में हाल में छपे सर्वे के मुताबिक दलितों के विरुद्ध अस्पृश्यता का आचरण करने वालों में ब्राह्मणों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है तो उसके तुरंत बाद ओबीसी हैं। आदिवासी और विधर्मी लोग भी हिंदुत्व के शिकंजे में हैं और वे भी दलितों के खिलाफ छुआछूत मानते हैं। और तो और दलित जातियाँ भी एक दूसरे के खिलाफ छुआछूत का बर्ताव करती हैं।
कांशीराम और मायावती के आंदोलनों की आंशिक सफलता के बावजूद हकीकत यह है कि जिस बहुजन समाज की परिकल्पना के तहत वे भारत में समता और सामाजिक न्याय के आधार पर नया समाज और राष्ट्र बनाना चाहते हैं, सामाजिक यथार्थ उसके उलट हैं। जिसे हम देखते हुए देखने से इंकार कर रहे हैं।
मसलन संसद में जिस साध्वी के रामजादा बयान पर बवाल है, वे खुदै दलित हैं और मनुस्मृति के अनुशासन मुताबिक जो शब्द वे दूसरों के लिए इस्तेमाल कर रही है, उसी शब्द से उनकी अस्मिता है।
घृणा अभियान चाहे संघ परिवार का हो या चाहे उनके विरोधियों का, इससे राजनीति भले सधती हो, धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण मार्फत कारपोरेट और सत्ता हित जरूर सधते हों, देश लेकन पल छिन पल छिन टूटता है। जो अब पल छिन टूट रहा है। माफ करना दोस्तों कि अब हमारा कोई देश नहीं है और हम किसी मृत भूगोल के अंध वाशिंदे हैं।
दलितों के सारे राम अब हिंदुत्व के हनुमान हैं और सारे शूद्र संघ परिवार के क्षत्रप हैं जिनमें प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक केसरिया कारपोरेट क्षत्रप हैं और उन्हें सत्ता का जायका ऐसा भाया है कि वे बाकी बिरादरी और बाकी समुदायों और नस्लों को निर्मम तरीके से साफ करने में दिन रात एक किये हुए हैं।
शूद्र यानी ओबीसी कम से कम 42 प्रतिशत है।
दलितों का ब्राह्मणवाद विरोधी बंगाल के किसान आंदोलन की बहुजनसमाजी मतुआ आंदोलन अब केसरिया है।
और बाबासाहेब की पार्टी रिपब्लिकन पार्टी की भीमशक्ति अब शिवशक्ति में समाहित है तो मायावती का सोशल इंजीनियरिंग फेल है।
जाहिर है कि अस्मिता आधारित सत्ता की भागेदारी हमारी वंचनाओं, हमारी बेदखली के प्रतिरोध की कोई जमीन तैयार नहीं कर ही है।
किसी पहचान के जरिये चाहे वह धार्मिक हो या जातिगत या नस्ली या भाषाई या क्षेत्रीय, सत्ता में भागेदारी तो संघ परिवार खुद दे देगा, लेकिन कयामत के इस मंजर के बदलने के आसार नहीं है।
हम बंगाल में पिछले तेइस साल से रह रहे हैं और इसके अभ्यस्त हैं कि नवंबर से ही सिर्फ ईसाई ही नहीं, सारा बंगाल क्रिसमस के बड़े दिन का कैसे इंतजार करता है।
अभी से केक की आवक होने लग गयी है और तमाम दुकानें सजने लगी हैं। बंगाल के केसरियाकरण के बाद यह नजारा सामने आयेगा या नहीं, हमें नहीं मालूम।
यही नहीं, एनआईए वर्धमान में बम धमारके के मद्देनजर अब मदरसा आईन की भी पड़ताल करेगा। हमें नहीं मालूम कि संसद और सुप्रीम कोर्ट के अलावा किसी और संस्थान को देश के संविधान और कायदा कानून और खासतौर पर अल्पसंख्यकों के निजी कानूनो में ताक झांक की कितनी इजाजत है।
ये खबरें तब आ रही है जबकि राजधानी नई दिल्ली में प्रधानमंत्री के पूर्व और पूर्वोत्तर के अनार्यभारत को जीतने के अश्वमेधी अभियान और नेपाल में राजतंत्र की वापसी के संघी अंतरराष्ट्रीय एजेण्डा के बीच नस्ली भेदभाव के तहत पूर्वोत्तर के वाशिंदों पर हमले जारी हैं। जो थमने के आसार भी नहीं हैं।
और वहॉँ बाकी हिमालय यानी कश्मीर, हिमाचल, गोरखालैंड, उत्तराखंड के लोग भी हिंदुत्व की सुगंधित पहचान के बाद अव्वल दर्जे के हिंदू के बजाय बंधुआ मजदूर माने जाते हैं। फांकसी का फंदा उन्ही के गले के माफिक है।
दोयम दर्जे के या तीसरे दर्जे के नागरिक भी नहीं है वे, सवर्ण होंगे तो होंगे।
इन्हीं खबरों के मध्य अब ओड़ीशा के आदिवासी बहुल आरण्यक अंचल में नही, राजधानी के दिन दूना रातचौगुणा तेजी से विकसित सीमेंट के जंगल और उसके मध्य मेट्रो नेटवर्क और तमाम राष्ट्रनेताओं और इतिहासपुरुषों के समाधिस्थलों के मध्य विधर्मी धर्मस्थलों के विध्वंस का महोत्सव शुरु हो चुका है।
और फिलहाल एक चर्च ही जलाया गया है।
अब बाकी विधर्मी धर्मस्थलों की बारी।
होश में आओ दोस्तों कि फिजां अब कयामत है।
(पिछली किस्त यहां पढ़ें- हिंदू साम्राज्यवाद का पुनरूत्थान का समय है कारपोरेट मुक्तबाजार)
O- पलाश विश्वास