आजकल ज्यादा बोलने लगे हैं ये आदिवासी …
आजकल ज्यादा बोलने लगे हैं ये आदिवासी …
आदिवासियों के विध्वंस से रची जाती है विकास गाथा। The development story is created by the destruction of tribals.
हमारा दुर्भाग्य है कि निग्रोइड रक्तधारा के वाहक होकर भी इस देश की गैर ब्राह्मणी, अनार्य, अश्वेत आम जनता के लिये इस देश के आदिवासी भिन्न ग्रह के लोग हैं और आदिवासी भूगोल से बाकी देश का कोई संवाद नहीं है। आदिवासी भूगोल में कहीं भी भारतीय संविधान लागू है ही नहीं। मसलन तेलंगाना के आदिवासियों ने जानकारी दी है कि वहाँ आदिवासी इलाकों में अब भी निजाम के जमाने के कानून लागू हैं।
राष्ट्र ने संविधान की पांचवी छठीं अनुसूचियों का इस्तेमाल सिर्फ जनादेश बनाने के काम में किया है और वह ऐसा जनादेश है, जो अस्पृश्य भूगोल के विरुद्ध अनवरत युद्ध का पर्याय है।
सत्ता का रंग कुछ भी हो राष्ट्र के इस अवस्थान में कोई परिवर्तन होता नहीं है। विकास के नाम पर आदिवासियों के विध्वंस से रची जाती है विकास गाथा।
अब आदिवासी बोलते हैं तो लोगों को शिकायत होती है कि आदिवासी बहुत बोलते हैं। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जिन्हें आदिवासी आवाज़ से सख्त नफ़रत है। अब विश्वविख्यात लेखिका अरुंधति राय आदिवासियों के हक में लिखती हैं तो अनुसूचित पिछड़े समुदायों के राजनीतिक लोग सीधे फतवा दे देते हैं कि वे तो ब्राह्मण हैं। हिमांशु कुमार निरंतर आदिवासियों के हक हकूक की लड़ाई लड़ रहे हैं तो उनके इस अथक अवदान को खारिज करने के लिये एक ही ब्रह्मास्त्र काफी है कि वे तो गांधीवादी हैं। साहित्य अकादमी पाने से पहले बंगाल का कुलीन विद्वत समाज महाश्वेता देवी के रचनाकर्म को साहित्य मानते ही नहीं थे। उनसे शिकायत रही है कि उनके लेखन में रचा कुछ नहीं गया बल्कि उनका समूचा लेखन डॉक्यूमेंटेशन है।
जब पहला खाड़ी युद्ध शुरु होते ही मैंने अमेरिका से सावधान लिखना शुरू किया तो लोगों ने लाउड बता दिया या फिर यह कहते रहे कि यह तो सूचनाओं का घटाटोप है। मेधा पाटकर लम्बे समय से नर्मदा बांध के डूब में समाहित हो रही आदिवासी भूगोल की लड़ाई लड़ रही हैं, वे और तमम लोग जो आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं, यहाँ तक कि जनयुद्ध में शामिल माओवादियों और नक्सलियों तक को ब्राह्मण बताकर खारिज कर दिया जाता है।
सवाल यह है कि आपको अन्ततः आपत्ति किस बात की है ?
आदिवासी भूगोल की हक हकूक, जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई से या फिर जो लोग उनकी आवाज उठा रहे हैं, उनके सामाजिक जाति परिचय से?
जाति वर्चस्व की मनुस्मृति व्यवस्था के मद्देनजर जाति परिचय का मुद्दा आपत्ति का कारण अवश्य होना चाहिये। क्योंकि राजनीति का अभिमुख यही है कि ब्राहमणवादी तंत्र यंत्र को न केवल सही सलामत रखकर बल्कि उसका हिस्सा बनकर सत्ता और बाजार में अपना अपना हिस्सा बूझ लेने के बाद अपने अंध भक्तों को जाति शत्रुओं को चिन्हाकर अपना जनाधार और कारोबार चालू रखा जा सकता है।
अब सवाल है कि जो आदिवासियों के हक हकूक की लड़ाई के ब्राह्मण स्वर के खिलाफ हैं, वे स्वयं आदिवासियों के सवाल पर किसके साथ खड़े हैं? वे खुद आदिवासी भूगोल में क्यों नहीं खड़े हैं?
सवाल यह है कि जाति उन्मूलन के एजंडे के साथ भारत में आर्य आक्रमण के इतिहास के साथ जो अंबेडकरी आन्दोलन आजादी के बाद से निरन्तर जारी है, उसकी आदिवासियों के हक-हकूक की लड़ाई में अब तक कोई भूमिका क्यों नहीं बन पायी? और आदिवासी हक- हकूक की लड़ाई की बात होती है तो सामने ब्राह्मण ही क्यों नजर आता है?
ग्यारवीं सदी तक अरावली, विंध्य के उस पार आर्यों का राज प्राचीन भारत के सा्म्राज्यों के गौरवशाली इतिहास के बावजूद कहीं नहीं था। राजस्थान में तमाम किले आदिवासियों के ही बनाये हुये हैं, जिन्हें सारा देश राजपूत मानता है, उनके रक्त में आदिवासी खून है। समूचे पूर्वोत्तर में अहम जन समुदाय के ग्यारहवीं सदी में असम आगमन से पहले आदिवासी ही थे। पूर्वी भारत में धर्मस्थल का हिंदूकरण बहुत बाद में हुआ अनार्य और आदिवासी देव देवियों के हिंदूकरण के मार्फत। बंगाल तो ग्यारहवीं सदी तक बौद्धमय था और हिंदुत्व का कर्मकाण्ड यहाँ पन्द्रहवीं सदी में चैतन्य महाप्रभु और गौरांग के वैष्णव धर्म के तहत प्रारम्भ हुआ। नृतात्विक प्रमाण सिलसिलेवार हैं कि कैसे अनार्य नस्ल के मंगोलायड और निग्रोइड समुदायों के विभिन्न आदिवासी समूहों का हिंदूकरण हुआ और वे बाद में अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों में शामिल हैं।
अब भी विभिन्न राज्य में एक ही जाति के लोग मसलन गुज्जर कहीं अनुसूचित जाति, कहीं अनुसूचित जनजाति तो कहीं पिछड़ी जाति और कहीं-कहीं सवर्ण तक हैं। ब्राह्मणों के मुकाबले असवर्ण गैरब्राह्मणों के जिनिटेकेली आदिवासियों के साथ कहीं बहुत ज्यादा रक्त सम्बंध हैं। लेकिन अनुसूचित जातियाँ,पिछड़ी जातियाँ,उनके संगठन,उनके मसीहा आदिवासियों की लड़ाई में कहाँ हैं?
इस समस्या को अभी हमने सम्बोधित ही नहीं किया है।
अंग्रेजी शासकों के युद्ध इतिहास में जो मिलिटरी गजट के नाम से मशहूर है, आदिवासी विद्रोहों का सिलसिलेवार विवरण है। एक भी ब्योरा ऐसा उपलब्ध नहीं है जहाँ आदिवासियों की पीठ पर कोई घाव मिला है। उन्होंने हमेशा सारे वार अपने सीने पर झेले हैं और आखिरी आदमी के खेत होने से पहले तक उनकी लड़ाई कभी भी खत्म नहीं हुयी है। इस इतिहास को देश की बाकी जनता अपना साझा गौरवशाली इतिहास अगर नहीं मानता, अगर आदिवासियों के स्वतंत्रतता संग्राम के तमम अध्याय हमारे इतिहास से बाहर हैं, तो हम एक राष्ट्र होने का दावा कैसे करते हैं, इस पर भी विचारमंथन होना चाहिए।
गैर आदिवासी जनसंघर्षों में शामिल नेतृत्वकारी लोग हमेशा सौदेबाजी और समझौते के अभ्यस्त रहे हैं। गैर आदिवासी जनसंघर्षों में पलायन का लम्बा इतिहास है। तो क्या इस राष्ट्र में राष्ट्रीय जनआन्दोलन के लिये हम आदिवासी नेतृत्व को स्वीकार कर लेने की हद तक लोकतांत्रिक हो सकता है, यह संवाद अब चलना ही चाहिए!
मेरे ख्याल से फिजूल के जाति विमर्श से ज्यादा जरूरी मसला यह है कि आदिवासी समुदायों को राष्ट्र की मुख्यधारा में कैसे लाया जाये और राष्ट्र के साथ उनकी युद्ध परिस्थितियाँ कैसे खत्म की जायें और भारतीय जनगण के जीवन मरण के जनसंघर्षों में हम आदिवासियों को कैसे नेतृत्वकारी भूमिका में लायें! जो लोग आदिवासियों के हकहकूक की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनको गरियाते रहने से ज्यादा कारगर पहल यह होगी कि गैरब्राह्मण जातियाँ खुद आदिवासियों की लड़ाई में शामिल हों! यह आर्थिक अश्वमेध के वैदिकी हिंसा के समय सबसे बड़ी चुनौती है।
आज वर्षों बाद हमारी पत्रकारिता की शुरुआत के दो मुख्य जिम्मेदार लोगों में से एक कवि मदन कश्यप से फोन पर लम्बी बात हुयी। उर्मिलेश से बीच बीच में बातें होती रही हैं। मदन जी से भी आदिवासियों और झारखंड आन्दोलन के फर्मैट पर सिलसिलेवार बातें हुयीं। हमें खुशी हैं कि आदिवासियों के मामले में, राष्ट्रीयताओं के प्रश्नों प्रतिप्रश्नों पर आज भी करीब पूरे तैंतीस साल बाद भी हमारे विचार समान हैं।
कवि मदन कश्यप भी मानते हैं कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाये बिना इस देश में परिवर्तन की कोई बात बेमानी है।
अब यह भी साफ कर दें कि जाति से मदन कश्यप भूमिहार हैं। अब अगर संयोगवश अरुंधति राय, पी साईनाथ रोमा, इरोम शर्मिला, विनायक सेन, लेनिन रघुवंशी, अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अखिलेंद्र प्रताप, शमशेर सिंह बिष्ट, राजीव लोचन साह, जोशी जोसेफ, सीमा आजाद, नंदिता दास, अभिराम मलिक, राम पुनियानी, इरफान इंजीनियर, शबाना आजमी, दारापुरी जी, आनंद स्वरूप वर्मा, पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, नीलाभ, सुधीर सुमन, हिमांशु कुमार, आनंद पटवर्धन, मेधा पाटकर, विजय कुजुर, प्रमोद कांवड़े, ताराराम मेहना, भास्कर वाखड़े, पाणिणि आनंद, साहिल, आलोक पुतुल, रविभूषण, रियाजुल हक, अभिषेक श्रीवास्तव, अजय प्रकाश, वीरेन डंगवाल, उत्तम सेनगुप्त, एचएल दुसाध, उदित राज जैसे तमाम लोग इस बिन्दु पर सहमत हो जाते हैं तो क्या इस मुद्दे पर विवेचन इन लोगों की जाति के मद्देनजर किया जाना चाहिए?
क्या हम इस समाज वास्तव को खारिज कर देंगे, पहेली यह है।
विचार कहीं से आयें, अगर वे मूलनिवासी बहुजनों, देश के निनानब्वे फीसद आम जनता को गोलबंद करने में कामयाबी का रास्ता बतायें, तो उस विचार को खारिज करना आत्मघात के सिवाय कुछ नहीं है।
हमने कैडर बेस संस्थागत लोकतांत्रिक संगठनात्मक मार्क्सवादी संगठनात्मक ढाँचा अपनाकर फासीवादी जायनवादी हिंदू राष्ट्र के पैरोकार संघ परिवार की पूरे देश को नमोमय बनाने के करतब की चर्चा की है। वे मार्क्सवाद और वर्ग संघर्ष के सबसे प्रबल प्रतिपक्ष हैं लेकिन फिर भी वे मार्क्सवादियों, माओवादियों, नक्सलवादियों की तुलना में भारतीय परिस्थितियों में मार्क्सवादी रणकौशल को बेहतर ढँग से आजमाकर दिखा चुके हैं। इसे क्या आप उनके द्वारा मार्क्सवाद की स्वीकार कह सकते हैं, सोचिये!
बाबासाहब ने स्वीकृत वैज्ञानिक अकादमिक संवाद की पद्धति अपनायी। बाबासाहब ने कभी कोई प्रवचन नहीं दिया। बाबा साहब ने लिखित सुनियोजित वक्तव्य ही पेश किया हमेशा। बाबा साहब ने गम्भीर मुद्दों पर विमर्श में विदूषक मनोरंजन का कारोबार नहीं किया। विचार और पद्धति, साझा मोर्चे की रणनीति की तमीज के बिना अंबेडकरी आन्दोलन, मसीहावाद, व्यक्ति पूजा, कारोबार, सत्ता में भागेदारी और स्थानीय क्षेत्रीय समीकरण के अलग-अलग ब्रांड के आशाराम मंडप हैं या फिर कारपोरेट शॉपिंग मॉल।
किसी गम्भीर मुद्दे या समस्या को सम्बोधित करने और सत्ता में, अवसरों में अपना हिसाब समझ लेने के सिवाय व्यापक जनता की गोलबंदी करने में नाकाम अंबेडकरी आन्दोलन ने अंबेडकर के तिरोधान के बाद उन्हें ईश्वर और अवतार जरूर बना दिया है, स्वाभिमान का साइक्लोन जरूर पैदा कर दिया है, लेकिन अंबेडकर अनुयायी भी आपस में संवाद करने की स्थिति में नहीं हैं।
दरअसल व्यक्ति केन्द्रित तानाशाही से चलने वाले अंबेडकरी संगठनों में संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है।
सर्वोच्च शिखर से प्रवचित हुक्मनामा के तहत निरंतर भेड़ धंसान है। भेड़ों के समूह में किसी मनुष्य को बोलने की इजाजत नहीं हैं। इतिहास गवाह है कि जो संगठन लोकतंत्र और संवाद से परहेज करते रहे हैं, जनसंघर्षों और जनसरोकारों से उनका दूर-दूर का कोई नाता नहीं है। हालिया उदाहरण बंगाल में वामपंथी आन्दोलन की आत्महत्या है। किसी भी स्तर पर संवाद से परहेज करते रहने से कब लाल जनाधार छीज गया, कब जन सरोकारों के बजाय कॉरपोरेट हितों का पर्याय बन गया संगठन, बूढ़़े ब्राह्मण नेतृत्व को पता ही नहीं चला।
उसी तरह किसी को खबर नहीं है कि अंबेडकर का नाम जापते जापते कब हमने अंबेडकर की विचारधारा और आन्दोलन दोनों को तिलांजलि दे दी। बंगाल में सबसे ज्यादा अंबेडकरी विचारधारा के सक्रिय कार्यकर्ता हैं और सबसे ज्यादा संगठन हैं, जिनके किसी दो समूहों के भी एक साथ बैठने का इतिहास नहीं है। नतीजा है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मण वर्चस्व का रोना रोने के बावजूद बंगाल शायद एक मात्र राज्य है भारत भर में, जहाँ आजादी के बाद से अब तलक जीवन के किसी भी क्षेत्र में कोई अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़ी जाति का कोई प्रथम पुरुष या प्रथम नारी नहीं है।
परिवर्तन आता है तो हमारे ही मूलनिवासी बहुजन लोग, हमारे मतुआ संप्रदाय के लोग, दलित मुसलमान, पिछड़े और आदिवासी मिलकर बुद्धदेव भट्टाचार्य के बदले ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री चुन लेते हैं। ये तमाम समुदाय अपने में से किसी को नेता मानने या अपने में से किसी की सुनने के लिये भी तैयार नहीं हैं। कुल मिलाकर बाकी देश में भी यही किस्सा है।
बहुजन राज में उत्तर प्रदेश में जाति के आधार पर सबसे ज्यादा उत्पीड़न हुये तो अंबेडकर जन्मदिन और अंबेडकर तिरोधान दिवस को गणेशोत्सव की तर्ज पर धूम धड़ाके से मनाने वाले मराठी मूल निवासी रिपब्लिकन पार्टी और बामसेफ के हजार धड़ों के अलावा हजारों संगठनों में खंडित विखंडित हैं।
हालत यह है कि सभी अंबेडकरी संगठनों के संयुक्त मोर्चा बनने के बजाय वहाँ शिवशक्ति और भीमशक्ति की युति बनते। बाबा साहेब अगर जिंदा होते तो इतना शर्मिंदा होते कि बिना मधुमेह चुल्लू भर पानी में डूब जाते कि क्या समझकर उन्होंने मूक भारतीयों के हक हकूक की आवाज उठायी, जिन्हें अपनों से ही लड़ने से फुरसत नहीं मिलती!
मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों, सामाजिक शक्तियों, पेशेवर समूहों, आदिवासियों, पिछड़ों और आदिवासी समूहों के साथ दलितों का साझा मोर्चा बनाने का जिम्मा तो हमीं लोगों ने वामपंथियों के हवाले कर दिया है और उनके ब्राह्मण नेताओं के मातहत संगठित हो जाने में हमें कोई दिक्कत नहीं होती। फिर भी हम सवाल खड़े करने वाले अपने ही लोगों को कम्युनिस्ट, कारपोरेट, संघी, ब्राह्मण, दलाल, कुछ भी कहकर उसकी अलग आवाज तानाशाह ढँग से दबाने में कोई परहेज नहीं करते।
मसीहागिरि और प्रवचन के अंध भक्त भी हमीं तो। एक दूसरे की खुफिया निगरानी,एक दूसरे के खिलाफ आरोप गढ़ने और उन्हें साबित करने में ही खप जाती है सारी ताकत। दरअसल हालत तो यह है कि भारत में ब्राह्मण अपने जाति संस्कारों से ऊपर उठकर भी अगर ब्राह्मणवाद के खिलाफ खड़े हो सकते हैं, तो हमारे लोग मूलनिवासी बहुजन और अंबेडकर के अनुयायी लोग ही हर कीमत पर ब्राह्मणवाद कोजिंदा रखने पर उतारू हैं क्योंकि इसी जुगाड़ से उनका कारोबार और धंधा चलता है, ब्राह्मणों की सत्ता में भागेदारी मिल सकती है। क्योंकि मुश्किल यह है कि अनुसूचित जातियों, पिछड़ों,अल्पसंख्यकों और यहाँ तक कि जो आदिवासियों के संगठन चला रहे हैं, वे इस विचार से हमारी जानकारी के मुताबिक कतई सहमत नहीं हैं और न कोई पहल इस दिशा में करने के लिये वे सात दशकों की हिमालयी भूल के बावजूद तैयार हैं।
अजब पाखंड है कि जिन्हें आप मूलनिवासी, बहुजन आबादी की मुख्य शक्ति वैचारिक स्तर पर मानते हैं और उनसे अपना इतिहास और रक्त संबंध जोड़ते हैं, हकीकत में आप अपनी बिरादरी में उन्हें शामिल करने को कतई तैयार नहीं हैं।
संगठन चाहे जो बने हों, आप हमें एक उदाहरण देकर बतायें कि गैरब्राह्मण तमाम जनसमुदायों ने देश में कभी कोई साझा आन्दोलन किया हो। यूं तो मसीहा संप्रदाय के लोग मुझे पहले से कारपोरेट एजंट और रामदास अठावले का अवतार बता रहे हैं।
इस यक्ष प्रश्न के बाद अगर देश भर में मुझे ब्राह्मण घोषित कर दिया जाये तो ताज्जुब न होगा। इसी तरह जाति अस्मिता के संकीर्ण दायरे में हम अपने सरोकारों और बेहद जरूरी मुद्दों को अतिसरलीकृत फासीवादी रवैये के तहत तिलांजलि देकर वैश्विक त्रिइब्लिसी शैतानी तिलिस्म में माथा कूटते रहेंगे, प्रश्न यह भी है।
नियमगिरि पर सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला (Supreme Court's decision on Niyamgiri) आया है या खनिज मामले में जैसे जमीन मालिक के अधिकारों को सुप्रीम कोर्ट ने स्थापित किया, उसके तहत भारतीय संविधान लागू करने के आदिवासियों के आन्दोलन में हां, ब्राह्मण वर्चस्व को दरकिनार करके कोई साझा आन्दोलन मुक्तिकामी बहुजन मूलनिवासी अंबेडकरी कोई संगठन कब शुरु करें, मुझे बेसब्री से इसका इंतजार है। आदिवासी मुद्दों पर गैर ब्राह्मण भारतीय जनांदोलन में बतौर कार्यकर्ता खपने में मुझे गौरव महसूस होगा।
पलाश विश्वास


