एय बे उसूल ज़िंदगी

फ़ाश कहाँ हुए तुझपे

अब तलक जन्नतों के राज़ ...

सय्यारों के पार रहते हैं जो

ज़मीन पर हमने तो नहीं देखे

हज़ारों साल से लगी है तू

अपनी पुरज़ोर कोशिशों में ...

मगर अब तक

धूल तक ना पा सकी है वहाँ की ...

देखा ...,

कितने परदों में संभाल रखा है

उन्होंने अपनी हर शय को

और एक तू और तेरा बेछलापन ...

एय ज़मीं .....

गैरतें क्या हुयी तेरी ?

हमने तो सयानों से सुना था

बहुत कशिश है तुझमें ...

खींचती है सबको तू ....

अपनी तरफ़ कूँ.....

मगर कब से देख रही हूँ

तेरी उकताई-उकताई तबियत ....

तेरे मुँह ज़ोर फ़ैसले ....

तेरी बेपरवाहियाँ ...

ना इत्तलाह, ना एलान,

ना कोई मुहर लगे काग़ज़,

सीधा फ़रमान .....

कैसे छाती पर से

उतार-उतार कर उछाले जा रही है

अपनी ही रौनकें

तारों की तरफ़ कूं....

डॉ. कविता अरोरा