एल.एस. हरदेनिया

उत्तर प्रदेश के दंगा पीड़ित मुसलमान पिछले तीन महीने से शिविरों में नारकीय जीवन बिता रहे हैं। इन शिविरों में रह रहे अनेक बच्चों की मृत्यु हो चुकी है। चूँकि अब कड़ाके की ठण्ड प्रारम्भ हो चुकी है जिससे इन शिविरों में रहने वाले मुसलमानों की पीड़ा में और इजाफा हो गया है। इन शिविरों की नारकीय स्थिति का विस्तृत विवरण इंटरनेशनल 'न्यूयार्क टाइम्स' में भी प्रकाशित हुआ है। सबसे दु:ख की बात यह है कि यह सब उस प्रदेश में हो रहा है जिसमें एक ऐसी पार्टी का शासन है जो स्वयम् को मुस्लिम हितैषी होने का दावा करती है। एक समय ऐसा था जब समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो को मौलाना मुलायम सिंह कहा जाता था।

पिछले सितम्बर में हुये सांप्रदायिक दंगों में 60 लोग मारे गये थे और 50,000 मुसलमान अपने गाँवों से भाग गये थे। इसके बाद इन्हें शिविरों में रखा गया था। शिविरों में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान अपने गाँवों को वापिस नहीं जाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें संदेह है कि वे वहाँ सुरक्षित नहीं रह सकेंगे। इन शिविरों में रहने वालों को क्षतिपूर्ति के रूप में जो भी दिया गया है वह उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये यथेष्ट नहीं है। क्षतिपूर्ति के लिये इतना कम पैसा मिलने के बाद भी अनेक लोग शिविरों को छोड़कर चले गये हैं। परन्तु 10 से 20 हजार पीड़ित अभी भी इन शिविरों में रह रहे हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिनके बारे में राज्य सरकार की सोच है कि वे वास्तव में दंगा पीड़ित नहीं हैं और क्षतिपूर्ति के पैसे पाने के लिये शिविरों में रह रहे हैं। उनके बारे में यह भी कहा जा रहा है कि भले ही वे वास्तव में सांप्रदायिक हिंसा के शिकार न हुये हों परन्तु उनके ऊपर सम्भावित हमले की आशंका से वे अपने गाँवों को छोड़कर भागे हैं। वास्तविक स्थिति कुछ भी हो परन्तु सरकार की इस नीति का खामियाजा शिविरों में रहने वाले बच्चों को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ रहा है। शिविरों में रहने वाले ये लोग प्लास्टिक शीट के नीचे सोते हैं। चूँकि अब कड़ाके की ठण्ड पड़ने लगी है इसलिये शीट के छेदों में से रात भर ओस की बूँदे टपकती रहती हैं जिससे ठण्ड की रातें काटना और कठिन हो गया है।

अभी हाल में दिल्ली से एक टीम इन कैंपों की स्थिति देखने गयी थी। इस टीम ने शिविरों में व्याप्त स्थितियों का अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में उन्होंने कैंप की भयावह स्थिति का विवरण दिया है।

इन शिविरों में रहने वाले मुसलमान रोजी-रोटी कमाने के लिये आसपास शहरों और गाँवों में मजदूरी करते हैं। सम्पन्न जाटों से उन्हें अभी भी डर लगता है। इसलिये वे अपने गाँवों में मजदूरी करने नहीं जाते हैं। शिविरों में रहने वाले कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनकी कृषि भूमि भी है। सरकारी अधिकारियों का कहना है कि शिविरों में ऐसे लोग रह रहे हैं जिनके साथ गाँवों में किसी भी प्रकार की हिंसक घटनायें नहीं हुयी थीं। इसके बावजूद वे अपने गाँवों से हिंसक हमलों की सम्भावना के कारण भाग गये हैं। इसलिये इन शिविरों को राहत शिविर नहीं कहा सकता। चूँकि ये शिविर राहत शिविर की परिभाषा में नहीं आते हैं, अत: इन शिविरों में रहने वालों को वे सुविधाएं नहीं दी जा सकती हैं जो राहत शिविरों में रहने वाले लोगों को दी जाती हैं। जिला शामली के कलेक्टर बताते हैं कि इन शिविरों में रहने वालों को मेडिकल सहायता दी जाती है। शिविरों में डॉक्टर भेजे जा रहे हैं। इसके बावजूद कुछ घटनाएं हो रही हैं। यह सच है कि ठण्ड से बच्चे प्रभावित हो रहे हैं। परन्तु शिविर में रहने वालों को अपने बच्चों की इतनी चिन्ता है तो उन्हें गाँवों में स्थित उनके घरों में चले जाना चाहिए, कलेक्टर ने कहा।

इस तथ्य के बावजूद मानवीय आधार पर हम इन लोगों को शिविर में रहने दे रहे हैं। उनके लिये अनाज और अन्य आवश्यक चीजों की पूर्ति की जा रही है। सरकार के अलावा अनेक संस्थाएं भी सहायता सामग्री पहुँचा रही हैं। हम जानते हैं कि ज्यों-ज्यों ठण्ड और बढ़ेगी इनकी दिक्कतें भी बढ़ेंगी। इसलिये शिविरार्थियों को अभी कपड़े भी दिये जा रहे हैं परन्तु हम जानते हैं कि वे यथेष्ठ नहीं हैं। इन शिविरों में रहने वाले यह मांग कर रहे हैं कि हमें इसी स्थान पर स्थायी रूप से रहने दिया जाये क्योंकि इस इलाके के आसपास मुस्लिम बहुल गाँव हैं। इससे यहाँ स्थायी रूप से बसने में हम ज्यादा सुरक्षित महसूस करेंगे। शासन इस माँग की पूर्ति करने के लिये तैयार नहीं है। क्योंकि जिस जमीन पर ये शिविर लगाये गये हैं वह वनभूमि है और उस पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण है। हर्षमंदर ने जो जाँच टीम के सदस्य थे राज्य सरकार के रवैये की आलोचना करते हुये कहा है कि राज्य सरकार को इन शिविरों को कदापि बन्द नहीं करना चाहिए। आज भी लगभग 20,000 मुसलमान इन शिविरों में रह रहे हैं। हर्षमंदर कहते हैं कि कोई भी इन शिविरों में रहकर नारकीय जीवन नहीं बिताना चाहेगा। ये लोग अपने गाँवों को वापस जा सकते हैं, परन्तु वहाँ उन्हें सुरक्षा का वातावरण उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है।

जाँच टीम ने महसूस किया कि 1947 के बाद पहली बार इस तरह की हिंसक घटना इस क्षेत्र में हुयी है। इस क्षेत्र में मुसलमान और हिन्दू जाट मिलजुल कर रहते थे। मुसलमान प्राय: हिन्दू जाटों के गन्ने के खेतों में काम कर अपना जीवनयापन करते थे। परन्तु ये ही मुसलमान अब फिर से जाटों के खेतों पर काम करने को तैयार नहीं है। ऐसे लोगों में मुहम्मद शौकीन भी शामिल हैं। शौकीन का एक बच्चा ठण्ड से मर चुका है। भले ही मेरे और बच्चे ठण्ड के शिकार हो जायें उसके बावजूद भी मैं, और मेरा परिवार अपने गाँव वापिस नहीं जायेगा।

दंगों के बाद 200 से ज्यादा गिरफ्तारियाँ हो चुकी हैं। गिरफ्तार किये गये लोगों में भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता शामिल हैं। गिरफ्तार किये गये लोगों में भाजपा के दो विधायक भी शामिल हैं। इन सबके विरुद्ध हिंसा भड़काने का आरोप है। इस तरह की घटनाओं के बाद दोनों सम्प्रदायों के लोगों के बीच कभी न भरने वाली स्थायी दरार बन चुकी है। इस दरार का भर पाना लगभग असम्भव प्रतीत हो रहा है। इसे भरने के लिये हिमालयीन प्रयासों की आवश्यकता है, परन्तु प्रश्न यह है कि ये प्रयास कौन करे।

एल.एस.हरदेनिया। लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं