तुम मनाओ 15अगस्त..../ मैं अफ़सोस मनाऊँगी..../ इस देश में पैदा होने का अफ़सोस.....
तुम मनाओ 15अगस्त..../ मैं अफ़सोस मनाऊँगी..../ इस देश में पैदा होने का अफ़सोस.....
तुम मनाओ 15अगस्त..../ मैं अफ़सोस मनाऊँगी..../ इस देश में पैदा होने का अफ़सोस.....
हाँ हमने मान लिया....
हम रिश्ते नहीं..महज़..जिस्म हैं...
जिस्म....
बग़ैर फ़र्क़ कि उम्र क्या है...
5..7..12...14...सब चलती हैं......,
उफ़ वक़्त के वफ़्फ़े....
चुप्पी साधे कोने ....
हर छ: घंटे में ..
सामने बेबसी से तकते हैं...
सख़्त गिरफ़्त में...
गपचे हुए जिस्म ..
सुनते हैं...
घुटी-घुटी.. चीख़...
मगर...
शोर नहीं करते..... ,
यह हिन्दुस्तान है ?
...सब चलता है....
रेप का हो जाना...
जिस्मों का उघड़ना उधड़ना..
अब...
सब...चलता है....
वेरी कॉमन....
बिज़नेस है....
उघड़े..उधड़े..जिस्मों के...
ज़ख़्मों पर..
कैमरों का...लग जाना...
पैसा पैदा करता है....,
उतरे कपड़े..
ख़ून के धब्बों की नुमाइशें...
एड ब्रेक के साथ...बड़ी तेज़ी से बिकती हैं...
चटपटी...नंगी ख़बरें...
अख़बारों में...
अल्फ़ाज़ भी जिस्म को लिबास नहीं देते......
तुम मनाओ 15अगस्त....
मैं अफ़सोस मनाऊँगी....
इस देश में पैदा होने का अफ़सोस.....
मैं तुम्हारे...
जश्न-ए-आज़ादी के शग़ल में..
शामिल नहीं हो सकती...
मैं उलझी हूँ....
बेतरतीबी से....
सोचों के जाल में.....
सिरे ढूँढती हुयी....
कि कौन तरकीब लगाऊं....
कि सिमट जाएँ..
तमाम तकलीफ़ें..इन उधड़ें जिस्मों की...
कैसे... नन्हीं बच्चियों की....
ज़ख़्मी रूहों पर....
ठंडे फ़ाये रक्खूं...
कि वो रातों को....नींद में उठ उठ कर ना चींखे़.....
मैं क्या करूँ ?..
मुझे इनकी...टीसें..आज़ादी के मीठे नग्में..सुनने नहीं देतीं....
इनकी चीख़ें..
रातों को...सोने नहीं देतीं...
यूँ लगता है...मैं किसी अंधे कुएँ की...मुँडेर पर बैठी हूँ....
और देख रहीं हूँ....
कुएँ में...कच्ची रस्सी पर लटके....
औरतों...बच्चियों के जिस्म....
और फिर...ज़रा सी चूक....
इक चीख़...
और जिदंगी मौत के तमाशे....,
मै चाहतीं हूँ...
इन सबको बचा लूँ....
मगर क्या करूँ....
मेरी आवाज़ पर कोई आवाज़ ही नहीं पलटती.....
बहरे..गूँगे... अंधे लाचार लोग..
आज़ादी के जश्न में डूबे ...
बटोर रहे हैं..
लालक़िले की प्राचीर से फेंके...
गर्व के झूठे आँकड़े....
उड़ा रहे हैं केसरिया, हरा रंग..
मगर हैरत है....
उनके फेंके...
कोई रंग....
यहाँ तक..नहीं पहुँचते...
बड़े ही स्याह मंज़र हैं यहाँ के..
क्या करूँ..कैसे दिखाऊँ....
क्या ले जाऊँ..
इन जिस्मों को घसीट कर..
लाल क़िले की प्राचीर तक..
या
फिर
लाल किले को उठा कर लें आऊँ..
इस अंधे कुएँ की मुँडेर तलक..
जहाँ कालिख के सिवा....
कुछ भी तो नहीं.....
मेरा दिल कर रहा है...
इस 15 अगस्त..
तमाम ज़ख़्मी जिस्मों की चीख़ समेट....
पूरी ताक़त से...
मैं...चीख़ूँ....
ऐलान करूँ...
बंद कर...बूढ़े इकहत्तर साला हिन्दुस्तान...
बंद कर ...जश्न-ए-आज़ादी....
मुझसे तेरे यह झूठ के ढोल..
अब और पीटे नहीं जाते....
मैं पूछूँ...चिल्ला कर....
सच बोल सच.....
कहाँ आज़ाद हूँ मैं....??
तेरी सरपरस्ती के सायों में....हूँ भी महफ़ूज़....???


