दो ...फुटपाथिया आँखें....

डॉ. कविता अरोरा

..........इन ऊँची-ऊँची रिहायशी बिल्डिंगों को

हसरतों से तकते हैं

तो अक्सर पूछ बैठते हैं तोतली ज़ुबानों में

फुटपाथों पे सिहरते-ठिठुरते यह मुफ़लिस बच्चे अपनी अपनी माँओं से ...

हमारे घर कहाँ है माँ ? हम घर क्यूँ नहीं जाते ? ......

मगर वो कुछ नहीं कहती .....

यह भी नहीं ..

कि इक झूठी सी उम्मीद ही पकड़ा दे ..

बस फिरा कर हाथ उलझे-उलझे चीकट से बालों में...

थमा देती है हथेलियों में दबे, पसीजे, बासी रोटियों के टुकड़े..

और फिर जवाबों के बग़ैर यूँ ही घुटनों पे रेंग-रेंग पनप ही जाती है

इक और ज़िल्लत की ज़िंदगी ता उम्र सवाल पूछती हुई....

दो ...फुटपाथिया आँखें....

Dr. kavita

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