परिभाषाओं के बदलते अर्थों में अब महिलाओं को चरित्रहीन ही होना चाहिये !
परिभाषाओं के बदलते अर्थों में अब महिलाओं को चरित्रहीन ही होना चाहिये !

कल कल्लन के लिये गेट पर मजमा लगा..
पुलिस आई
ज़ाहिल औरतों की इक टोली चिल्लाई
इसने कल्लन का हाथ पकड़ा...
थी तो बेहयाई पर मुझे ज़ोर से हँसी आई..
शक्ल से कबूतर उम्र पचपन से ऊपर..
कल्लन क्या खो चुका है दिमाग़ी आपा...
अधेड़ उम्र पर जे सुतियापा...
हट्टे कट्टे मुस्टंडे कल्लन ने हाथ क्यूँ नहीं छुड़ाया..
मजमई भेड़ों की अक़्ल में यह प्रश्न ही नहीं आया...
कल्लन को पूरी उम्मीद थी अपने लगाये इल्ज़ाम से मेरे रोने धोने की..
सामाजिक चरपईया से उतरते इज़्ज़ती बिछौने की...
मगर फ़िक्रों से परे मुझ बेशर्म को लाज ही नहीं आई..
औरतों की ओट में छुपे कल्लन पर मैं ज़ोर से चिल्लाई...
हाँ हाथ पकड़ा मगर क्यूँ यह तो कल्लन से पूछो...
कल्लन कंपकंपाया मूँछों ही मूँछों...
ख़ुद पर से कल्लन का कान्फिडेंस डगमगा गया...
लगाये इल्ज़ाम का गणित जो गड़बड़ा गया...
कल्लन चुपके से भीड़ से कटा..
उसका शराफ़ती नक़ाब भी हटा...
कल्लन पुराना शातिर और कमीन था
उसे इस पौराणिक हथकंडे पे बेहद यक़ीन था...
युगो से यूँ ही कल्लनों की टोली
औरतों के पैरों की ज़मीन खींच रहीं है
और अपने पुरूषत्व की सूखी जड़ों को
इस तरीक़े से सींच रहीं है ..
यह टोली समाज में लीक से हटकर चलती औरतों की शक्ल छाँटती है ..
और इल्ज़ामों की कैंचियो से उनके पर काटती है..
फिर इशतिहारी शक्लों का पान की दुकान पर जुट्टा...
फब्तियाँ सीटियाँ कसते, लगाते हुए सुट्टा ...
अपनी मर्दानगी पर ग़ुरूर करते हैं
कुछ इस तरह से अपने-अपने डरों को दूर करते हैं..
इतिहास गवाह है..
द्रौपदी और दुर्योधन की लॉबी..
सीता पे इल्ज़ाम में इक धोबी....
मीरा से डरे तो ज़हर का प्याला...
अहिल्या को तो देवता इन्द्र ने छल डाला
युगों-युगों से बजा रहे हैं यहीं बीन...
जो लीक से हट के चले वो चरित्रहीन...
मगर परिभाषाओं के बदलते अर्थों में
अब खोना चाहिये ...
महिलाओं को चरित्रहीन ही होना चाहिये .....
डॉ. कविता अरोरा


