राफेल, राहुल और विपक्ष : चेहराविहीनता के इस दौर में कांग्रेस की जिम्मेदारी बढ़ जाती है

सत्येन्द्र पीएस

भारत में कई बार ताकतवर औऱ अजेय दिखने वाली दंभी सत्ताएं जमींदोज हुई हैं। मौजूदा आरएसएस-भाजपा सरकार 2014 में केंद्र में सत्तासीन हुई। नरेंद्र मोदी की सरकार बनी। भारत के लोकसभा चुनाव के इतिहास में 1984 के चुनाव के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि लोकसभा में अपने दम पर कोई दल सत्तासीन हुआ, और सहयोगी दलों के साथ मिलाकर देखें तो प्रचंड बहुमत मिला।

देश के आम नागरिक को इस सरकार से अपेक्षाएं थीं। यह इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद उठी सहानुभूति की किस्म वाला बहुमत नहीं, बल्कि जनता की अपेक्षाओं और उनकी उम्मीदों का बहुमत था। लोगों ने सपने देखे कि उनके जीवन स्तर में बदलाव आएगा, उसे रिश्वत नहीं देनी होगी, उसे बेहतर स्वास्थ्य, बेहतर शिक्षा, बेहतर बुनियादी ढांचा, कृषि उत्पादों के बेहतर दाम, बेरोजगार बच्चों बच्चियों को रोजी रोटी मिलेगी।

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सरकार के 4 साल बीतने के साथ लोगों की उम्मीदें धूल धूसरित नजर आ रही हैं। रोजगार के मोर्चे पर सरकार बुरी तरह से विफल हुई है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में घोषणाएं हुई हैं, जमीनी हकीकत यह है कि जिला अस्पताल, मेडिकल कॉलेज, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं खुले। निजी क्षेत्र को पनपने का मौका मिला और वह सेवाएं कम से कम उन लोगों की पहुंच से बाहर है, जिन्होंने अपनी जिंदगी की बेहतरी की उम्मीद से सरकार को वोट दिया था। शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे ऐसे संस्थान आए, जिन्हें जन्म के पहले ही सर्वश्रेष्ठ संस्थान का दर्जा दे दिया गया। पुराने विश्वविद्यालयों में ऐसे लोगों को प्रमुख बनाया गया, जिनका पद हासिल कर लेने और लफ्फाजियां करने के अलावा कोई विजन नहीं रहा, कोई शैक्षणिक उपलब्धि उनके नाम पहले नहीं रही।

और जब सरकार के महज एक साल बचे हैं, राफेल घोटाला सामने आ गया है। यह ऐसा घोटाला, जिसकी कैग जांच कर रहा है, जिस देश के राष्ट्राध्यक्ष ने सौदा किया, उसने बताया कि एक उद्योगपति को इस सौदे में शामिल करने के लिए खुद भारत सरकार ने कहा था और उसके पास कोई विकल्प नहीं था।

इन वजहों से जनता में बेचैनी है। जनता अब 2022 की योजनाएं या 10 साल बाद क्या होगा, यह देखने के बजाय सरकार के 4 साल के कामों और कारनामों की समीक्षा करने लगी है।

अहम सवाल यह है कि सत्ता में बदलाव की कितनी संभावनाएं हैं?

इस समय मुख्य विपक्ष के नाम पर कांग्रेस है। कांग्रेस को इस हिसाब से ही मुख्य विपक्ष नहीं कहा जा सकता कि वह लोकसभा और राज्यसभा में सबसे बड़ा विपक्ष है। उसी को देश के ज्यादातर राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के साथ मुकाबला करना है।

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अगर उत्तर से लेकर दक्षिण तक नजर डालें तो असम, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, उत्तराखंड, कर्नाटक, गुजरात, गोवा, छत्तीसगढ़, झारखंड, तेलंगाना, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा में कांग्रेस पहले या दूसरे स्थान पर है। इन राज्यों में कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है।

दिसंबर में तीन अहम राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा लंबे समय से काबिज है। ऐसे में खासकर कांग्रेस को इन दो राज्यों में अहम कवायद करनी चाहिए थी कि जितने भी वहां की सत्ता के विरोधी दल या छोटे मोटे प्रभाव वाले दल हैं, उन्हें कांग्रेस के साथ लाया जाए। स्वाभाविक है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सभी सीटें नहीं जीतने जा रही है। और अगर इन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में आती है (जैसा कि उसे उम्मीद है) तो अगर अपने दम पर बहुमत में आ जाए तो सहयोगी दलों का कोई महत्त्व नहीं रह जाएगा। लेकिन अगर कांग्रेस अपने दंभ में एकबार फिर सत्ता से बाहर होती है तो भारतीय जनता पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे पटक पटककर धो सकती है क्योंकि लोगों में यह परसेप्शन जाएगा कि कांग्रेस अब मरने वाली है, उसके जीतने के चांस नहीं है।

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कांग्रेस को छोड़ दें तो अन्य विपक्षी दलों की क्या भूमिका हो सकती है? जिस तरह से भाजपा और उसके समर्थक लोग समाज में आतंक फैला रहे हैं, उससे जनता की बेचैनी का लाभ क्षेत्रीय दलों को मिलना स्वाभाविक है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव बार-बार कहते हैं कि लोकसभा चुनाव के मामले में कांग्रेस की भूमिका अहम है। स्वाभाविक है कि अगर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी मिलकर लड़ते हैं तो दलितों पिछड़ों में न सिर्फ सामाजिक समरसता का माहौल बनेगा, बल्कि दोनों दल मिलकर आसानी से भाजपा को पटखनी देने में भी सक्षम होंगे। तथ्य भी इसकी गवाही देते हैं। यूपी में विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत पाए भाजपा को 6 महीने भी नहीं बीते थे कि दोनों ने मिलकर गोरखपुर जैसी सीट पर भाजपा को पटखनी दे दी, जहां से पार्टी 1989 से लगातार हर थपेड़ों और पतन के बावजूद भाजपा जीतती रही। इतना ही नहीं, गोरखपुर के सांसद द्वारा छोड़ी सीट भारतीय जनता पार्टी हारी, जिन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया था।

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लेकिन क्या सपा बसपा की मजबूती 2019 में भाजपा को सत्ता से हटाने में कामयाब रहेगी? या ममता बनर्जी के बंगाल में जीत जाने से मामला बन जाएगा और भाजपा सत्ता से बाहर हो जाएगी? ऐसा सोच लेना ही मूर्खता है। यह संभव नहीं है।

तो क्या कोई तीसरा मोर्चा बन सकता है? और तीसरे मोर्चे की रूपरेखा क्या होगी?

बिहार चुनाव के पहले एक बार लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने तीसरे मोर्चे की कवायद की। उस मोर्चे में समाजवादी पार्टी ने पलीता लगा दिया। लालू नीतीश के गठबंधन ने बिहार में भाजपा को धूल चटा दी, लेकिन उसका परिणाम क्या हुआ? दोनों दलों के अहम और आपसी टकराव का लाभ भाजपा ने उठाया और पूरी कवायद ध्वस्त हो गई।

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इस समय जय प्रकाश नारायण या विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसा कोई चेहरा भी नजर नहीं आ रहा है, जो कांग्रेस और भाजपा के अलावा सभी दलों का विलय कराकर एक नया दल बना ले। ऐसा चेहरा किसे माना जा सकता है? मायावती? मुलायम सिंह यादव? नीतीश कुमार? लालू प्रसाद? ममता बनर्जी? चंद्रबाबू नायडू? नवीन पटनायक? ओम प्रकाश चौटाला? शरद यादव? शरद पवार? अरविंद केजरीवाल? कौन सा नाम है, जो गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई सभी दलों को मिलाकर एक दल बनवाए और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर भाजपा और उसके 40 से ऊपर सहयोगी दलों को धूल चटा सके?

चेहराविहीनता के इस दौर में कांग्रेस की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उसे न सिर्फ अपने किले मजबूत करने की जरूरत है, बल्कि बेहतर होगा कि ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे पुराने कांग्रेसियों को फिर से कांग्रेस में शामिल किया जाए। इससे एक बेहतर माहौल बन सकता है।

जहां तक राफेल दलाली का सवाल है, यह चुनाव के लिए माहौल बना सकता है, लेकिन इसके अलावा तमाम समीकरणों की जरूरत होती है। अगर बोफोर्स सौदे को परिवर्तनकारी माना जाए तो यह देखना भी जरूरी है कि किस तरह से विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़े वर्ग के देश भर के नेताओं को एक मंच पर खड़ा करके राष्ट्रीय स्तर पर दल बना दिया था। उस दल के एजेंडे में सिर्फ बोफोर्स नहीं था, बल्कि पिछड़े वर्ग की 40 साल से लंबित मांग को भी जगह दी गई थी कि सरकार के आने पर पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिया जाएगा और मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू की जाएंगी।

भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का अगर विपक्षी दलों को फायदा नहीं मिल पाता है तो इसके लिए साफ तौर पर कांग्रेस दोषी होगी और अगर वह सपने देख रही हो कि इस चुनाव में छोटे दलों को खत्म करने के बाद अगले लोकसभा में वह पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ जाएगी, तो यह भारत जैसे व्यापक वैचारिक, क्षेत्रीय, भाषायी विविधता वाले देश में मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने जैसा ही ख्वाब साबित होने वाला है। ऐसी स्थिति में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का 2019 का चुनाव जीतने के बाद 50 साल सत्ता में रहने का दावा थोड़ी अतिशयोक्ति हो सकती है, लेकिन कांग्रेस की संभावनाएं जरूर घट जाएंगी।

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