कैलाश मनहर की चार गीतिकाएँ :-

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(एक)

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आदमी वो कि मौत में भी ज़िन्दगी देखे

ज़िन्दगी वो कि रंजो ग़म में भी खुशी देखे

बढ़ रहा हो ज़ुल्मतों का ज़ोर चौतरफ़ा

नज़र वही जो अँधेरों में रौशनी देखे

लगे हैं सूखने दरिया-ए-मुहब्बत सारे

कोई तो हो कि जो सूखे में भी नमी देखे

खुला-खुला रहे आकाश उड़ानों के लिये

लहलहाती हुई हरी-भरी ज़मीं देखे

ज़ुल्म के सामने डर कर न टूट जाये वो

रात गहराये तो फिर सहर भी होती देखे

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(दो)

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आप चाहे गये हों भूल हमें

आपका भूलना कबूल हमें

आपको स्वर्ग मुबारक साहब

बहुत प्यारी है पथ की धूल हमें

आप ए सी में बैठे होंगे जब

छाया देगा यहाँ बबूल हमें

आप भगवे में लिपट जाइयेगा

चाहिये पर धवल दुकूल हमें

शूल होते तो गिला भी क्या था

चुभ रहे हैं कमल के फूल हमें

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(तीन)

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रस्म-ए-उल्फ़त भुला गया शायद

ख़ुद से ही मैं छला गया शायद

मुझ पे मौसम असर नहीं करते

ज़िस्म पे कोई छा गया शायद

दर्द रहता है हमेशा दिल में

उसका चेहरा समा गया शायद

महक उठी है खुश्बू-सी घर में

कोई आ कर चला गया शायद

इश्क़ होने लगा है जीवन से

मौत का वक़्त आ गया शायद

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(चार)

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ग़म की ऊन से रूह का स्वेटर कौन बुने

मन पाखी की कुरलाहट को कौन सुने

छू ले जो भी महक जायेगा भीतर तक

खिले फूल की पंखुरियों को कौन चुने

दर्द के मारे रेशा रेशा बिखर जायेगा

विरह तांत से प्रेम़ की रूई कौन धुने

दावानल-सी जलने लगती हैं यादें

रोज़ ख़्यालों में ख़ुद का ख़ुद कौन भुने

मछली का पानी से रिश्ता समझे कौन

इश्क़-मुहब्बत की सच्चाई कौन गुने

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-कैलाश मनहर

स्वामी मुहल्ला,मनोहरपुर

(जयपुर-राज.)