शैतान धर्मग्रन्थों की बात कर रहा है ! (डेविल कोटिंग स्क्रिपचर्स)
शैतान धर्मग्रन्थों की बात कर रहा है ! (डेविल कोटिंग स्क्रिपचर्स)
दंगों की नैतिक और राजनीतिक जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते मोदी
एल.एस. हरदेनिया
नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि गुजरात के दंगों ने उनकी आत्मा को झकझोर दिया था। उन्होंने यह भी कहा कि उन पर हत्याएं करवाने का जो आरोप लगा था, उससे वे अन्दर से चूर-चूर हो गये थे। यह सब वैसा ही है जिसे अंग्रेजी में ‘‘डेविल कोटिंग स्क्रिपचर्स’’ (शैतान धर्मग्रन्थों की बात कर रहा है) कहा जाता है।
गुजरात दंगों के ग्यारह साल बाद, अपने दुःख की अभिव्यक्ति मोदी ने उस समय की जब गुजरात की एक निचली अदालत ने उन्हें दंगों के सन्दर्भ में दोषमुक्त घोषित कर दिया। अदालत की नजर में व कानूनी बारीकियों के चलते, भले ही वे दोषमुक्त पाये गये हों परन्तु संवैधानिक और नैतिक मापदंडों से उन्हें किसी प्रकार भी निर्दोष नहीं माना जा सकता है।
जिस समय गुजरात में दंगे हुये थे, नरेन्द्र मोदी वहाँ के मुख्यमन्त्री थे। उनके बारे में यह कहा जाता है कि वे एक सख्त राजनैतिक नेता व प्रशासक हैं। उनके मुख्यमन्त्री के पद पर रहते हुये दंगे होना अपने आप में उन्हें दोषी करार देता है। जब दंगे हुये थे, मोदी ने यह कहा था कि यह क्रिया की प्रतिक्रिया है। उस दौरान मोदी समेत अनेक भाजपा नेता यह कहते थे कि यदि गोधरा स्टेशन पर 56 लोगों की आगजनी से मौत नहीं होती तो गुजरात के अन्य स्थानों पर दंगे नहीं होते।
क्या यह बात किसी से छिपी है कि गोधरा की घटना के बाद, गुजरात की सरकार ने एक भी प्रतिबंधात्मक कदम नहीं उठाया। इसके ठीक विपरीत, ऐसे कदम उठाये गये जिनसे साम्प्रदायिक हिंसा ने वीभत्स रूप ले लिया। इस तरह के आपत्तिजनक कदमों में शासन का वह निर्णय भी शामिल था, जिसके अन्तर्गत जली हुयी लाशों को जुलूस के रूप से अहमदाबाद ले जाया गया व उनका सार्वजनिक रूप से पोस्टमार्टम किया गया।
किसी भी मनुष्य की मुत्यु के बाद, जल्दी से जल्दी उसकी अन्तिम क्रिया कर दी जाती है और अन्तिम क्रिया करने का अधिकार मृतक के परिवार का होता है। इस तरह की मान्यता सभी धर्मों में है। लाशों को तुरन्त सम्बंधित रिश्तेदारों को नहीं सौंपना और उनका सार्वजनिक प्रदर्शन क्या अपने आप में अपराध नहीं है? क्या इस अपराध के लिये मुख्यमन्त्री को उत्तरदायी नहीं माना जाना चाहिए? फिर, गोधरा की जघन्य घटना के बाद, क्या ऐसे कदम नहीं उठाये जाने चाहिए थे, जिनसे सम्भावित हिंसा पर नियन्त्रण पाया जा सके? क्या गोधरा के बाद संवेदनशील क्षेत्रों में कर्फ्यू नहीं लगाया जाना चाहिए था? क्या ऐसे आदेश जारी नहीं किये जाने थे कि जो भी कर्फ्यू का उल्लंघन करेगा, उसे देखते ही गोली मार दी जाएगी? ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। अधिकारियों ने ऐसे कदम नहीं उठाये और उल्टे हजारों दंगाईयों को खुले आम सड़कों पर घूमने दिया गया।
क्या सरकार के प्रमुख होने के नाते, इस प्रशासनिक चूक के लिये मोदी को दोषी नहीं माना जाना चाहिए? क्या मोदी ने मुख्यमन्त्री की हैसियत से एक भी ऐसे अधिकारी को दंडित किया, जिसने हिंसा पर नियंत्रण पाने के लिये आवश्यक प्रशासनिक कदम नहीं उठाये? इसके विपरीत, ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब मोदी ने उन अधिकारियों को दंडित किया जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में हिंसा पर नियंत्रण पाने का प्रयास किया था। साधारणतः जिस जिले में साम्प्रदायिक हिंसा भड़कती है और उस पर शीघ्र नियंत्रण नहीं हो पाता है, उस जिले के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को तुरन्त हटा दिया जाता है। याद नहीं पड़ता कि ऐसा कोई भी कदम मोदी ने उठाया था। क्या इस भूल के लिये मोदी को दोषी नहीं माना जाना चाहिए?
गुजरात के दंगे इतने गम्भीर थे कि प्रभावित क्षेत्रों के अधिकारियों के साथ-साथ स्वयं मोदी को भी मुख्यमन्त्री के पद से हटा दिया जाना चाहिए था। 1992 में बंबई में दंगों के समय सुधाकर नाईक महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री थे। काँग्रेस के नेतृत्व ने नाईक को हटाकर शरद पवार को मुख्यमन्त्री बनाया था।
भाजपा के नेतृत्व ने मोदी के मामले में ऐसा नहीं किया। यद्यपि अब यह सामने आया है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की राय थी कि नरेन्द्र मोदी को त्यागपत्र देने के लिये कहा जाना चाहिए। परन्तु आडवाणी इसका विरोध कर रहे थे। वाजपेयी, मोदी का इस्तीफा चाहते थे, यह बात वाजपेयी के काफी नजदीक रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी ने स्वीकार की है। वह भाजपा, जो छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर केन्द्रीय मंत्रियों का इस्तीफा माँगती है, उसे कम से कम मोदी को हटाकर उन्हें प्रतीकात्मक रूप से दंडित करना था। परन्तु इस मामले में वाजपेयी की नहीं चली।
वैसे, जिस अदालत के निर्णय से मोदी गदगद हैं वह सबसे निचली अदालत है। अभी तो मामला और ऊँची अदालतों में जायेगा। अदालत ने भी जो तथ्य उसके सामने थे, उन पर ही विचार किया है। अदालत ने वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचन्द्रन की टिप्पणी पर ध्यान नहीं दिया, जिन्होंने यह राय दी कि ऐसे बहुत से प्रमाण हैं जिनके आधार पर मोदी के विरूद्ध कार्यवाही की जा सकती है। राजू रामचन्द्रन को विशेष जाँच दल के साथ सहयोग करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्त किया था। जाँच टीम ने भी राजू रामचन्द्रन की राय की पूरी तरह उपेक्षा की। इसी आधार पर अदालत ने मोदी को निर्दोष घोषित किया है।
अदालत की राय कुछ भी हो परन्तु जनमानस उस राय को स्वीकार नहीं करेगा। यह बात जगजाहिर है कि मोदी के विरूद्ध एक नहीं सैंकड़ों ऐसे सबूत हैं जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि दंगों को भड़काने और दंगाईयों को संरक्षण देने में मोदी का न सिर्फ हाथ था वरन् वे उन्हें प्रोत्साहित भी कर रहे थे। इस बात का उल्लेख करते हुये ‘‘द हिन्दू’’ समाचार पत्र (दिनांक 28 दिसंबर 2013) ने लिखा है ‘‘कानूनी दृष्टिकोण के अलावा, मोदी नैतिक जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते हैं। राजनीतिक भारत को इस प्रश्न का उत्तर अवश्य खोजना होगा।’’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं)


