सीमा के इधर भी हैं उधर भी हैं बर्बर धर्मरक्षक
सीमा के इधर भी हैं उधर भी हैं बर्बर धर्मरक्षक
उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान के मरदान में 13 अप्रैल, 2017 को एक भीड़ ने मशाल खान नामक एक 23 वर्षीय पत्रकारिता के विद्यार्थी को उसके होस्टल के कमरे से जबरदस्ती उठा लिया। उसे नंगा कर पीटा गया और बाद में उसे गोली मार दी गई। खान पर आरोप था कि उसने इस्लाम का अपमान किया है। मई 2017 में पाकिस्तान में ही एक भीड़ ने एक पुलिस थाने पर हमला कर दिया। भीड़ की मांग थी कि प्रकाश कुमार नामक एक 34 वर्षीय हिन्दू, जिसे पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था, को उसके हवाले कर दिया जाए। इसके लगभग एक सप्ताह बाद, बड़ी संख्या में लोगों ने उत्तर-पश्चिमी शहर चितराल की एक मस्ज़िद में रहने वाले मानसिक रूप से विक्षिप्त एक व्यक्ति पर बर्बर हमला किया। वह स्वयं को पैगम्बर मोहम्मद बताता था।
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ये सारी घटनाएं पाकिस्तान सरकार के ईशनिंदा के विरूद्ध अभियान शुरू करने के बाद हुईं। सन 1990 के बाद से, पाकिस्तान में ‘इस्लाम के अपमान’ के नाम पर दर्जनों हमले और हत्याएं हो चुकी हैं।
भारत भी अब इस मामले में पाकिस्तान से मुकाबला करने की कोशिश कर रहा है।
भारत में मई 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से, लगभग उसी तरह की घटनाएं हो रही हैं, जैसी कि सीमा पार पहले से हो रही थीं। फर्क केवल मामूली हैं। आपको केवल ‘इस्लाम का अपमान’ की जगह ‘गोहत्या’ को रखना है और आप पाएंगे कि सीमा के दोनों ओर एक ही तरह के लोग एक ही तरह की बर्बरताएं कर रहे हैं। इन पाकिस्तानी जिहादियों और हिन्दू श्रेष्ठतावादियों को बढ़ावा दिया है नए कानूनों ने। पाकिस्तान के मामले में ईशनिंदा कानून और भारत के मामले में गोहत्या-निरोधक कानून ने।
दोनों ही देशों में खून की प्यासी भीड़ें, अपने-अपने देशों के अल्पसंख्यकों पर हमले कर रही हैं और दोनों ही देशों में कानून और व्यवस्था की मशीनरी निष्क्रिय बनी हुई है। अल्पसंख्यकों में भी उन लोगों को निशाना बनाया जाता है जो गरीब हैं, राजनीतिक दृष्टि से कमज़ोर हैं या समाज के हाशिए पर हैं। अल्पसंख्यकों का श्रेष्ठि वर्ग, चाहे वह पाकिस्तान में हो या यहां - शायद ही कभी हिंसा का शिकार होता हो।
खून की प्यासी भीड़ें बीफ का निर्यात करने वाली कंपनियों और बड़े कत्लखानों के मालिकों को निशाना नहीं बनातीं। अगर बड़े बीफ निर्यातकों पर इस तरह के हमले होते तो शायद देश में गोहत्या पूरी तरह बंद हो गई होती।
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हिंसा करने वालों के खिलाफ कार्यवाही करने की बजाए, सरकारी तंत्र, हिंसक भीड़ द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच शुरू कर देता है। भीड़ का शिकार बने लोगों के खिलाफ प्रकरण कायम कर भीड़ को शांत करने का प्रयास किया जाता है। पाकिस्तान की पुलिस ने प्रकाश कुमार पर ही मुकदमा कर दिया और मशाल खान के मामले में अब्दुल वली खान विश्वविद्यालय ने इस आशय की जांच शुरू कर दी कि क्या उसने इस्लाम का अपमान किया था। अगर तर्क के लिए यह मान भी लिया जाए कि मशाल खान ने इस्लाम का अपमान किया था, तब भी क्या किसी को उसकी हत्या करने का अधिकार है? इसी तरह, दादरी कांड के बाद, पुलिस ने अखलाक के घर से ज़ब्त किए गए मांस के नमूने को एक प्रयोगशाला में यह जांच करवाने के लिए भेजा कि वह किस जानवर का मांस है। सवाल यह है कि अगर उसके घर गोमांस भी रखा था तब भी केवल और केवल पुलिस को उसके खिलाफ कार्यवाही करने का हक था।
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दोनों ही देशों में कट्टरपंथियों की खून की प्यासी भीड़ों को सत्ताधारी दलों के राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त है।
पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन इस तरह के हमलों को औचित्यपूर्ण ठहराते हैं। भारत में यही काम हिन्दू श्रेष्ठतावादी संगठन करते हैं। दोनों ही देशों के सामान्य, शांतिप्रिय नागरिक इस तरह की हिंसा से परेशान और दुखी हैं। भारत में देश भर में जुनैद की हत्या के बाद ‘नॉट इन माई नेम’ प्रदर्शन हुए। इसी तरह, पाकिस्तान में मशाल खान की हत्या के बाद देश भर में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए। प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने इस हत्या की निंदा तो की परंतु उन्हें ऐसा करने में दो दिन लग गए। ठीक इसी तरह, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी तथाकथित गोरक्षकों की निंदा तो की परंतु शायद केवल नाम के लिए। वे भी कदाचित यह नहीं चाहते कि पुलिस ऐसे तत्वों से सख्ती से निपटे।
भारत का संविधान प्रजातांत्रिक है। इसके विपरीत, पाकिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वहां इस्लामिक कट्टरपंथियों और ‘जिहादी’ तत्वों का बोलबाला है।
पाकिस्तान में सन 1990 के बाद से इस्लाम की रक्षा के नाम पर लगभग एक दर्जन हत्याएं हुई हैं। भारत में 2015 से लेकर अब तक हमलों की 33 घटनाएं हो चुकी हैं। कुछ लोग इन घटनाओं, जिनका सिलसिला दादरी से शुरू हुआ था, की संख्या 67 बताते हैं। इन हमलों में 18 लोग मारे गए जिनमें एक हिन्दू था और 71 घायल हुए। घायलों में हिन्दुओं की संख्या 7 और दलितों की 14 थी। गोरक्षकों की भीड़ के हमले की दो घटनाएं कर्नाटक और एक-एक केरल, तमिलनाडु, ओडिसा, असम, पश्चिम बंगाल और बिहार में हुईं जबकि 26 घटनाएं भाजपा-शासित राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में हुईं।
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पाकिस्तान में हत्याएं करने वाली भीड़ दावा करती है कि वह इस्लाम की रक्षा कर रही है। भारत में इसी तरह के हमलावर कहते हैं कि वे गोरक्षक हैं। ये दोनों ही सरासर झूठ बोलते हैं। इस्लाम को खूनी भीड़ों से रक्षा की जरूरत नहीं है और ना ही गोरक्षक, गायों की रक्षा करते हैं। बल्कि इसके उलट, ये लोग गाय और इस्लाम को नुकसान ही पहुंचा रहे हैं। पाकिस्तान में इस्लाम के स्वनियुक्त ठेकेदारों की हिंसा से इस्लाम बदनाम ही हो रहा है और भारत में अगर यही सिलसिला जारी रहा तो किसान गाय पालना ही बंद कर देंगे। जाहिर है कि कोई भी किसान ऐसी गाय का बोझा उठाने में सक्षम नहीं है जिसने दूध देना बंद कर दिया हो। ऐसे में वे भैंस या दूध देने वाले अन्य जानवर पालना शुरू कर देंगे। सच यह है कि न तो पाकिस्तान में इन लोगों का असली लक्ष्य इस्लाम की रक्षा है और ना ही भारत में वे लोग गोभक्त हैं।
बहुसंख्यकों की चुप्पी
कहने की आवश्यकता नहीं कि इस तरह के हमले और बर्बरता तभी संभव हो सकती है जब संबंधित अल्पसंख्यकों का दानवीकरण कर दिया जाए। पाकिस्तान और भारत, दोनों में ही यह हुआ है। दोनों ही देशों में अल्पसंख्यकों को देश के प्रति गद्दार बताया जाता है। मीडिया और सोशल मीडिया में ऐसा प्रचार किया जाता है कि अल्पसंख्यक देशद्रोही हैं। जो मुस्लिम महिलाएं बुर्का पहनती हैं या जो मुस्लिम पुरूष दाढ़ी रखते हैं या टोपी पहनते हैं उन्हें कट्टरवादी बताया जाता है। बुर्का पहनने वाली महिलाएं और दाढ़ी रखने और टोपी पहनने वाले पुरूष भारत की मुस्लिम आबादी का एक छोटा सा हिस्सा भर हैं। इसके विपरीत, जो हिन्दू पुरूष अपने माथे पर तिलक लगाते हैं या जो हिन्दू महिलाएं मंगलसूत्र पहनती हैं या जो सिक्ख पुरूष कृपाण लेकर चलते हैं, उन्हें कट्टरवादी नहीं बताया जाता।
इस तरह की धारणाएं हवा में नहीं बनतीं। इन्हें जानबूझकर समाज में फैलाया जाता है। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने कहा था कि गुजरात के दंगा पीड़ितों के लिए बनाए गए राहत शिविर, बच्चे पैदा करने के कारखाने बन गए हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को गुजरात के मुख्यमंत्री को उनके राजधर्म की याद दिलानी पड़ी थी। बिना किसी सुबूत के महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने यह कह डाला कि गोहत्या के मुनाफे का इस्तेमाल देश में आतंकवाद फैलाने के लिए किया जा रहा है।
सच यह है कि देश में जो सबसे बड़े बूचड़खाने हैं उनके मालिक हिन्दू और जैन हैं और वे बीफ के निर्यात से करोड़ों रूपए कमा रहे हैं। क्या वो अपने मुनाफे से आतंकवादियों को पोषित करेंगे? भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने कहा कि मदरसे आतंकवादियों के प्रशिक्षण केन्द्र हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार में विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान कहा था कि अगर भाजपा हारी तो पाकिस्तान इसका जश्न मनाएगा! इसके पहले आम चुनाव के दौरान उन्होंने हिन्दुओं का आह्वान किया था कि वे मुज़फ्फरनगर में हुई सांप्रदायिक हिंसा का बदला लें। ये हिन्दू श्रेष्ठतावादियों द्वारा अल्पसंख्यकों के दानवीकरण के कुछ उदाहरण हैं। वे इस तरह की बातें इतने लंबे समय से करते आए हैं कि आम लोग इन्हें सच मानने लगे हैं।
राज्य तंत्र इस तरह के अपराधों को नज़रअंदाज़ करता है। वह अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारियों को पूरा नहीं करता और अपराधियों को उनके किए की सज़ा नहीं दिलवाता। नतीजे में लोग यह मानने लगते हैं आपराधिक न्याय व्यवस्था, देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी अल्पसंख्यकों से निपटने में सक्षम नहीं है और इसलिए ‘देशभक्तों’ को यह काम स्वयं करना होगा।
Protest against Mob Lynchings and the Role of Civil Society in Breaking the Silence
इस तरह की हत्याओं को बहुसंख्यकों की मौन स्वीकृति मिल जाती है। केवल आरोप लगाने से लोग यह मान लेते हैं कि यदि कोई मुस्लिम ट्रक ड्रायवर मवेशी ले जा रहा है, तो वह उनका वध करने के लिए ही उन्हें ढो रहा है। उसी तरह, पाकिस्तान में केवल यह कह देने मात्र से कि किसी हिन्दू या ईसाई ने इस्लाम या पैगम्बर मोहम्मद का अपमान किया है, लोग उसे सच मान लेते हैं। स्थिति यहां तक पहुंच जाती है कि लोग इस तरह के तत्वों के आरोपों पर आंख मूंदकर विश्वास करने लगते हैं।
जब मशाल को पाकिस्तान में पीट-पीटकर मार डाला गया तब उसके अन्य साथी विद्यार्थी चुपचाप तमाशा देखते रहे। उन्होंने यह तक नहीं पूछा कि आखिर मशाल का अपराध क्या था। सोलह वर्ष के जुनैद खान की चाकू मारकर हत्या करने के बाद उसे ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया और अन्य यात्री चुपचाप देखते रहे।
मीडिया की रपटों से ऐसा लगता है कि जब जुनैद प्लेटफार्म पर पड़ा हुआ था और खूनाखान था तब भी किसी ने पुलिस से उसकी मदद करने को नहीं कहा। इस तरह की भीड़ में कौन लोग शामिल हैं, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। चाहे वे अपराधी हों, जबरिया वसूली करने वाले गुंडे हों या राजनीतिक कार्यकता - उनकी हरकतों को माफ कर दिया जाता है।
कश्मीर: खाकी, पत्थरबाजी और आशा की खून से सराबोर भूमि
तथाकथित गोरक्षकों के गिरोह गुजरात में पिछले कम से कम एक दशक से सक्रिय हैं। अकेले अहमदाबाद में ऐसे गिरोहों की संख्या 30 से ज्यादा है। इनका जाल पूरे शहर में फैला हुआ है और उन्हें किसी न किसी राजनेता का संरक्षण प्राप्त है। जैसे ही इस तरह के गिरोहों को यह सूचना मिलती है कि किसी वाहन में मवेशियों को ले जाया जा रहा है और उसका ड्रायवर मुसलमान है, वे तुरंत सड़क पर गैरकानूनी नाके लगा देते हैं और वहां गाड़ी को रोक लिया जाता है। सबसे पहले वे ड्रायवर से ऐसे दस्तावेज़ या परमिट छीन लेते हैं जिनसे यह प्रमाणित होता हो कि वह वैध ढंग से जानवरों को ले जा रहा है। कभी-कभी वे ड्रायवर से पैसा वसूल कर उसे आगे जाने देते हैं तो कई बार वे उसकी पिटाई लगा देते हैं और इसकी वीडियो फिल्म बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड कर देते हैं ताकि उनके ‘शौर्य’ से लोग परिचित हों सकें। इसके बाद पुलिस भीड़ की हिंसा के शिकार हुए व्यक्ति के खिलाफ गोवध निषेध कानून के अंतर्गत प्रकरण कायम कर देती है। इस तरह की कई घटनाओं के बाद, गिरोहों के नेता स्थानीय स्तर पर प्रभावशाली बन जाते हैं और न केवल धन कमाते हैं वरन राजनीति में भी घुस जाते हैं।
टोरंटो में भी गूँजा Not in my name
खून की प्यासी भीड़ों का असली लक्ष्य
खून की प्यासी भीड़ें यह अभिनय करती हैं कि वे धार्मिक लक्ष्यों या सिद्धांतों से प्रेरित हैं परंतु असल में उनके उद्देश्य राजनीतिक होते हैं। पाकिस्तान में जो लोग इस्लाम को ‘बचाने’ के लिए हिंसा करते हैं वे अगर सच्चे मुसलमान होते तो वे इबादत करते, उपवास करते, अनाथों और ज़रूरतमंदों की सेवा करते और कुरआन के बताए रास्ते पर चलते। इसी तरह, गोरक्षक यदि सचमुच गोप्रेमी होते तो वे सड़क पर आवारा घूमती गायों और गौशालाओं में भूख से मरती गायों की फिक्र करते। सच यह है कि चाहे इस्लाम के रक्षक हों या गाय के, दोनों के लक्ष्य राजनीतिक हैं।
गौरक्षा : मोदी की शेर की सवारी से उतरने की छटपटाहट
वे दादागिरी से समाज पर अपना वर्चस्व कायम करना चाहते हैं। पाकिस्तान में ऐसे गिरोह हिन्दू और ईसाई अल्पसंख्यकों को तो दबाना चाहते ही हैं वे अहमदियाओं, शियाओं और तार्किकतवादियों को भी कुचलना चाहते हैं। इस तरह की घटनाओं से पाकिस्तान में इस्लाम का वहाबीकरण हो रहा है और भारत में जाति-आधारित ऊँचनीच की व्यवस्था को मज़बूती मिल रही है। इस तरह के लोग पितृसत्तात्मकता के हामी होते हैं और महिलाओं के शरीर और उनके दिमाग पर नियंत्रण करना चाहते हैं। वे एक ऐसे एकाधिकारवादी राज्य का निर्माण करना चाहते हैं जो समाज के उच्च वर्ग के सांस्कृतिक आचरण को पूरे समाज पर थोपे।
इस तरह के लोगों के खिलाफ आवाज़ उठाना न केवल अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए ज़रूरी है वरन इसलिए भी ज़रूरी है कि इससे ही समाज में शांति बनी रहेगी और प्रजातंत्र सुरक्षित रहेगा। बहुसंख्यकों को अपना मौन तोड़ना ही होगा। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)


