हृदयेश की आत्मकथा बिना जोखिम भरी यात्रा है

कथाकार हृदयेश 1930 में जन्मे और इस समय वे अस्सी पार कर वरिष्ठों और वयोवृद्धों की श्रेणी में शुमार हो चुके हैं। वे हमेशा यह मानते और लिखते रहे कि उनकी पैदाइश एक छोटे शहर शाहजहांपुर में हुई जो कस्बानुमा है। आबादी और भौगालिक नापजोख के हिसाब से शाहजहांपुर को भले ही छोटा शहर कह अथवा मान लिया जाए, पर चेतना और विरासत की दृष्टि से वह कभी छोटा नहीं रहा, न ही उस तरह का है। देश के मुक्ति-युद्ध में इस शहर के अनेक नौजवानों ने शहीद का दर्जा पाया। हिंदी के एब्सर्ड नाटककार भुवनेश्वर इसी शहर की पैदाइश थे और “दिल” शाहजहांपुरी जैसा ख्यातिलब्ध शायर, भारतीय स्काउट के जनक पं0 श्रीराम वाजपेयी, प्रख्यात कथा-लेखिका राजी सेठ तथा आज के फिल्म अभिनेता राजपाल यादव तक सब इसी छोटे शहर को एक बड़ा आकार प्रदान करते हैं।

हृदयेश का बार-बार ऐसा कहने के पीछे नजरिया यह रहा है कि वे हिंदी वालों को यह बताना और उनके गले उतारना चाहते हैं कि देखिए जनाब, “सामाजिक,शैक्षणिक तथा छोटे शहरों के रूद्ध संभावनाहंता परिवेश को अपने में समेटे हुए” छोटे शहर में पैदा हो और वहीं रहते हुए भी वे हिंदी कथा-क्षेत्र में इस मुकाम तक पहुंचे हैं।

हृदयेश ने साहित्य में स्वयं की उपेक्षा के नारे को बार-बार इस्तेमाल किया और ऐसा करने में उन्होंने अपनी शक्ति के बड़े हिस्से का अपव्यय भी किया।

उनकी सामाजिक चिंता साहित्यकार के रूप में हुई उनकी कथित उपेक्षा से शुरू होकर ठीक वहीं पर समाप्त हो जाती है। यद्यपि अपनी ओर से अपने पक्ष में निरन्तर लगाए गए उनके इस नारे का उन्हें लाभ भी मिला। पर सोचने की बात यह है कि यदि एक लेखक की कहानियां, उपन्यास और दूसरी भी पुस्तकें निरन्तर छप रही हैं, पत्र-पत्रिकाओं में उसका रचा-लिखा लगातार प्रकाशित हो रहा है तब फिर उपेक्षा कैसी? हिंदी जगत में जब किसी का भी हृदयेश के मूल्यांकन की ओर ध्यान नहीं था तब मेरे संपादन में 'संदर्श' जैसी लघु पत्रिका ने सबसे पहले उन पर 300 पृष्ठों का एक विशेष अंक भी प्रकाशित किया, और बाद को उन्हें 'पहल सम्मान' भी प्राप्त हुआ जिसका संयोजन शाहजहांपुर में मेरे द्वारा सम्पन्न हुआ था। पर हृदयेश की इन उपलब्धियों के अलावा हिंदी साहित्य में यह कितने लोगों को पता है कि आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवक,बयालिस के आंदोलन के वायदामाफ गवाह और (पूर्व) प्रधानमंत्री माननीय अटलबिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस पर उन्हें भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश के मंत्री महोदय द्वारा भाजपा के ही एक आयोजन में “जनपद रत्न” से अलंकृत किया जा चुका है। अपनी आत्मकथा में हृदयेश “जनपद रत्न की पहली खेप” में ही शाहजहांपुर शहर से अपने होने का तो उल्लेख गर्व के साथ करते हैं पर भाजपा के आयोजन और अटल जी के जन्मदिवस को एक किनारे रखकर, क्योंकि ऊपर से प्रगतिशील भी बने रहना और दिखना बहुत जरूरी है।

उनके लिए (हर अच्छी कहानी वाम होने को बाध्य है-हृदयेश)। पर बाद को वे मुझे अत्यन्त मासूमियत के साथ पत्र में लिखते हैं कि उन्हें नहीं पता था कि कार्यक्रम अटल जी के जन्मदिन पर था। वहां आयोजन में भाजपा के सैकड़ों झण्डे और अटलबिहारी वाजपेयी की मंच पर पूरे कद से भी बड़ी तसवीर उन्हें यह याद नहीं दिला सकी कि कार्यक्रम भाजपा का है। दरअसल, उस सम्मान को लेकर वे इस कदर मुदित थे जिसे अपनी आत्मरचना में इन शब्दों में उन्होंने दर्ज किया है कि “प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री इस आयोजन को ऊंचाई देने के लिए आए थे।” जानने योग्य है कि सूबे में सरकार तब भाजपा की थी। यही क्यों, वे एक बार भाजपा के ही स्वामी चिन्मयानंद की उपस्थिति में भी उनके हाथों ही “संकल्प” संस्था के मंच पर बैठकर सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। इसके साथ ही शाहजहांपुर के मुमुक्षु आश्रम में राममंदिर आंदोलन में “शहीद” हुए कारसेवकों के अस्थि-कलश के नगर

आगमन के अवसर पर श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित एक बड़े कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करने का भी उन्हें गौरव प्राप्त हुआ है। और यह भी कि हृदयेश अपने जाति संगठन ”खत्री सभा” की ओर से “खत्री गौरव” होने का खिताब भी हासिल कर चुके हैं। इतना सब होते हुए भी हिंदी का यह कथाकार जाने क्यों आज भी यह मानता-समझता है कि उसकी उपेक्षा हुई।

हमें यह स्मरण नहीं आता कि हिंदी में किसी दूसरे रचनाकार ने “उपेक्षा” शब्द का बार-बार, और लगातार अपनी ओर ध्यान केन्द्रित करने के लिए इस तरह शातिराना इस्तेमाल किया हो। यही कथाकार इतनी निर्लज्जता दिखा सकता है कि वह अपनी आत्मकथा “जोखिम” के फ्लैप में अपनी उपलब्धियों में “संदर्श” के स्वयं पर केन्द्रित विेशेषांक का उल्लेख करता हो, और “वागर्थ” के सितम्बर, 2010 में छपे एक आत्मकथ्य में यह मानता हो कि पत्रिका का प्रकाशित उक्त विशेषांक उन्हें मानसिक क्लेश पहुंचाने वाला साबित हुआ।

“संदर्श” का हृदयेश केन्द्रित विशेषांक निकालने के पीछे मेरा नजरिया यह था कि पत्रिकाओं में आ रही एकरूपता से भी निेजात मिलेगी। यही सोचकर मैंने अपने क्षेत्र के भुवनेश्वर,बाल साहित्यकार निरंकारदेव सेवक, पारसी रंगमंच के पं0राधेश्याम कथावाचक,उर्दू शायर दुर्गा सहाय “सुरूर” जहानाबादी तथा हृदयेश पर विशेषांक निकालने तय किए थे। यह अलग की बात है कि इनमें “सुरूर” पर सबसे देर से अंक अब छप कर आ रहा है और पं. राधेश्याम जी कथावाचक पर तो चीजें अभी तैयारी की प्रक्रिया में ही हैं। सब जानते हैं कि शेष लोगों पर मैं अपना काम बहुत पहले पूरा कर चुका हूं जिनका पर्याप्त नोटिस भी लिया गया।

हृदयेश पर जिन दिनों “संदर्श”का अंक निकाला तब पत्रिका का वह तीसरा अंक ही था। पहला 84 पृष्ठों का,दूसरा 80 का,तीसरा यह अंक न चाहते हुए भी पूरे 300 पृष्ठों का तक जा पहुंचा जिसका बोझ उठा पाना मेरे लिए काफी कठिन हो गया। शहर में शिक्षा प्राप्ति के बाद दुबारा नौकरी के लिए आए मुझे छह-सात वर्ष ही हुए थे। हृदयेश से मेरा इतना ही लंबा परिचय था। वे मेरे विभाग में ही थे, मुझसे बहुत वरिष्ठ। जब मैंने उन पर अंक निकालने की बात की तब विचार था कि सौ-सवा सौ पृष्ठों में इसे निबटा देंगे, लेकिन उस कार्य के दौरान हृदयेश लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन अपनी डायरी,पत्र,प्रतिमान की संपादकीय टिप्पणियां तथा अपनी पुस्तकों की पूर्व में प्रकाशित अनेक समीक्षाओं को टंकित कर ला-लाकर मुझे दे जाते रहे।

मैं संकट में कि किस तरह इनका संयोजन करूं। इस सारी सामग्री का चयन भी उनका अपना था। ले-देकर तब मैं साहित्य में नौसिखिया ही था सो उनसे कुछ कहने में मुझे संकोच ही लगता रहा। सामग्री अधिक होती जा रही थी और मेरे पास साधन अत्यन्त सीमित थे। साथी संपादक अमितेश अमित के प्रयासों से जो विज्ञापन जुटे वे बहुत छोटी-छोटी धनराशि के थे। ऐसे में चन्द्रमोहन दिनेश के सहयोग से मेरा बेड़ा पार हुआ और इस अंक की छपाई के लिए हुए कर्जे से मैं किसी तरह मुक्त हो सका।

बाद को एक रोज कथाकार और “पहल” के संपादक ज्ञानरंजन ने कहा कि पत्रिका का यह अंक मूल्यांकनपरक न होकर अभिनन्दन ग्रंथ जैसा हो गया है। कौन जाने कि इसके पीछे सब कुछ समेटने के चक्कर में हृदयेश का अनावश्यक हस्तक्षेप और दबाव था। अस्तु! मैंने स्वयं अंक में हृदयेश पर एक आलेख लिखा था। नया होते हुए मैंने तब भी उसमें कुछ सवाल उठाए थे। हृदयेश की खूबी यह है कि वे कभी सवालों का जवाब नहीं देते। बहुत वर्ष पहले “साप्ताहिक हिन्दुस्तान” में उन्होंने अपने नगर के खडेसरी बाबा पर एक सचित्र लेख लिखा था जिसमें खडेसरी बाबा के इस चमत्कार से वे अभिभूत थे कि उनकी जेब में भक्तों को देने वाली इलायची कभी खत्म नहीं होती थी। मेरे आलेख में उनकी कथा-यात्रा को सार्थक बताने के साथ ही ऐसे ही कुछ प्रश्न भी थे। एक तो यही कि एक प्रगतिशील रचनाकार को खडेसरी बाबा के चमत्कारों पर लिखने की आखिर क्या आवश्यकता थी, परन्तु हृदयेश ने मेरे इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। एक सवाल और भी था।

मुझे याद पड़ता है कि हृदयेश का उपन्यास “दंडनायक” जब छपा तो उसकी प्रति यह लिखकर मेरे सरकारी आवास पर आकर मूुझे भेेंट की थी कि “सुधीर विद्यार्थी को उपन्यास का विषय भी जिनका अपना विषय है।”उस समय उन्होंने मुझसे यह भी कहा था कि इस उपन्यास पर कहीं कुछ लिखना। “दंडनायक” को लिखने से पूर्व इसकी तैयारी के सिलसिले में वे कुछ क्रांतिकारी साहित्य मेरे पास से ले गए थे। काकोरी कांड के शहीद रोशनसिंह की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर वर्तमान को जोड़ता हुआ यह उपन्यास अत्यन्त अपठनीय था। कई बार की कोशिशों के चलते भी वह मुझसे पढ़ा नहीं गया।एक और प्रसंग स्मरण आता है कि “हंस” में आगे चलकर उनके उपन्यास “पगली घंटी” की एक समीक्षा हमारे ही शहर के कवि और “कथा प्रतिमान” के संपादक श्याम किशोर ने लिखी जिसमें कुछ नुक्ते उठाए गए जो हृदयेश को पसंद नहीं आए। शायद इसीलिए अपनी आत्मकथा “जोखिम” (किताबघर, दिल्ली) में श्याम किशोर का नामोल्लेख न करते हुए हृदयेश ने उन्हें “छुटभैये” की संज्ञा दी है। विचित्र किन्तु सत्य यह है कि जिस रचनाकार ने जीवन में कोई जोखिम न उठाया हो, जिस विभाग में अवकाश-प्राप्ति तक कार्यरत रहे, वहां के किसी कर्मचारी-मजदूर आंदोलन से उनका दूर का भी कोई रिश्ता न रहा हो, बल्कि आंदोलनों के समय व्यवस्था के पक्षधर और हितैषी बनकर खड़े हो जाना जिनका चरित्र रहा हो, शहर के सांस्कृतिक आंदोलन से जो लगातार एक निश्चित दूरी और उपेक्षापूर्ण रवैया बनाए रख कर चलता रहा हो, हैरत है कि उस रचनाकार ने अपनी आत्मकथा का नाम ‘जोखिम’ रखा। वैसे ‘जोखिम’ सिर्फ हृदयेश की आत्ममुग्धता और कंुठाओं का पुलिन्दा भर है, इसके सिवा कुछ नहीं। किसी भाषा का कोई पाठक यह जानकर क्या करेगा कि उसके लेखक की रचना कहां से और कितनी बार वापस आई और जब वापस आई तो लेखक यह बयान करता है कि वहां उसकी रचना की अपेक्षा कमजोर रचनाएं प्रकाशित की गईं। कथाकार राजी सेठ से हृदयेश ने अपने एक उपन्यास को नेशनल पब्लिशिंग हाउस से छपवाने की सिफारिश करवाई। वह इसके लिए कई बार प्रकाशक के पास गईं और कहा भी। राजी का उपन्यास या कहानी-संग्रह वहां पहले से ही छपने को पड़ा था। वह छप कर आ गया, हृदयेश का बाद में छपा। अब इतने भर से हृदयेश खिन्न,और इस कदर कि अपनी आत्मकथा में दर्ज कर दिया कि राजी सेठ ने अपनी पुस्तक वहां से पहले छपवा ली, लेकिन राजी सेठ के अनुसार हृदयेश यह लिपिबद्ध करने का साहस नहीं जुटा सके कि नेशनल की ओर से तब उन्हें एक पत्र भी लिखा गया था कि वे उसके सम्मानित लेखकों के जरिए उन पर अपनी पुस्तक छपवाने के लिए दबाव न डलवाएं। हृदयेश ऐसे पत्र की इबारत को जानबूझकर क्यों विस्मृत कर जाते हैं।

“जोखिम”में हृदयेश आचार्य भिक्खु मोग्गलायन नामक उस व्यक्ति (हिंदी प्राध्यापक डॉ. नित्यानंद मुद्गल) का नामोल्लेख भी नहीं करते जिसने उनका लघु उपन्यास “गांठ” रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में लगवाया था।

अब देखिए, किताबघर प्रकाशन से छपी आत्मरचना के ही पृष्ठ 197 पर हृदयेश की “स्मृति में सुप्त एक घटना ने आंखें पसारीं।” पर इस तरह भी वे पाठकों के सम्मुख बेशर्मी से एक कथानुमा झूठ परोसते हैं। कभी उड़ीसा के राज्यपाल रहे श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डेय शाहजहांपुर आए थे, किताबघर से ही प्रकाशित मेरी संपादित पुस्तक “कर्मवीर पंडित सुन्दर लाल : कुछ संस्मरण” का विमोचन करने।

पाण्डेय जी पं. सुन्दरलाल जी के प्रमुख शिष्य थे और बाद को उन्होंने व मैंने ही मिलकर पंडित जी की स्मृति-रक्षा का बड़ा काम किया जो पंडित जी की आत्मकथा तथा उन पर संस्मरणों की मेरी पुस्तक के रूप में किताबघर से सामने आया और पंडित जी के अपने निबन्धों और लेखों के संकलन के तौर पर मेरे संपादन में ही एक अन्य पुस्तक ‘कद्दावर की दास्तां’ शीघ्र ही राजकमल प्रकाशन से छपकर आ रही है। पर अपनी आत्मकथा के दो-तीन पृष्ठों में हृदयेश ने उस सम्पूर्ण घटनाक्रम का वर्णन अपनी कुंठाओं की गांठ को सेंकने के लिए किया, जिसमें सुन्दरलाल वाली पुस्तक के विमोचन का प्रसंग ही वे पूरी तरह खा गए। यद्यपि वह विमोचन आयोजन फतेहगढ़ से ठीक समय पर मेरे न आ सकने के चलते मेरी अनुपस्थिति में ही सम्पन्न हुआ था और मेरी पुस्तक पर हुए उस कार्यक्रम में हृदयेश द्वारा मेरी उस पुस्तक पर तैयार की गई टिप्पणी आज भी मेरी फाइलों में सुरक्षित है।

मैं हृदयेश की आत्मकथा के पृष्ठों में बहुत घुसना नहीं चाहता। वह मुझे बेमतलब का काम और अपने समय का अपव्यय लगता है। एक पाठक की दृष्टि से भी वहां दर्ज झूठ और लफ्फाजी को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता।

सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि जिन दिनों उनकी इस आत्मरचना के अंश पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे थे, तब “वागर्थ” के फरवरी,2006 के अंक में उसका एक अंश छपा था। इस पर एक प्रतिक्रिया “वागर्थ” के जुलाई,2006 के अंक में “जिम्मेदार कौन?” शीर्षक से प्रकाशित हुई जिसे लिखा था शाहजहांपुर की बबिता मेहरोत्रा ने। पढ़कर मैं चकित हुआ। बबिता मेहरोत्रा तो उनकी मंझली बहू का नाम है। जो भी हो, अब उस पत्र को देखिए-“वागर्थ” के फरवरी अंक में छपा हृदयेश का संस्मरण “मेरी ये” हृदयहीन, संवेदनशील तथा अनौचित्यपूर्ण लगा। यद्यपि काफी कुछ कहानी के अंदाज में लिखा गया है। शीर्षक पढ़कर लगता है “मेरी ये“ बहुत ही मेरी हैं, अंतरंग हैं, लेकिन निराशा हाथ लगती है। जैसे-जैसे संस्मरण आगे बढ़ता जाता है, पति-हृदय की संवेदनहीनता, क्रूरता और स्वकेन्द्रिकता सामने आती गई। पोतियों के माध्यम से कथाकार ने अपनी खूब भड़ास निकाली है। नौ वर्ष का बच्चा झुर्रियां, झड़े दांत, झुकी कमर नहीं देखता (जिस विद्रूपता की बात कथाकार कहना चाहता है) झुर्रियों में उसे अनुभव, बड़प्पन दिखाई देता है। झूली हुई मांस-पेशियों में कोमलता और स्निग्धता दिखाई देती है तथा झड़े हुए दांत वाले पोपले मुँह में उसे स्नेह तथा रोमांच दिखाई देता है। वह अपना खिंचा और दादी का झोल खाया हुआ मुलायम मुंह देखकर आश्चर्य मिश्रित गुदगुदी का अनुभव करता है। कथाकार ने अपनी पत्नी की जो एक अरसे से साथ हैं, धज्जियाँ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मखौल खूब उड़ाया है। कथाकार के अनुसार वह परिवार के केन्द्र में न रहकर हाशिए पर ठेली जा रही हैं। कथाकार को स्वयं का विश्लेषण करना चाहिए कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन? मालूम होना चाहिए कि जिस स्त्री का पति उसकी इज्जत नहीं करता उसे सब दुत्कारते हैं। मैं संपादक से पूर्ण सहमत हूँ कि हिंदी जगत में बहुत-से लेखक हैं जिन्होंने अशिक्षित पत्नियों को ऊपर उठाया है, उसे सर माथे पर रखा है, न कि पलायनवादी बनकर उसे हाशिए पर धकेलकर उसमें (कथाकार के शब्दों में) अवांछित गांठें डाल दी हैं।’’

हृदयेश ने इस पत्र@प्रतिक्रिया का भी कोई उत्तर नहीं दिया। कहना यह है कि हृदयेश कहीं भी उठने वाले सवालों से पूर्णतया निरपेक्ष बने रहते हैं और उनका सामना करने का ‘जोखिम’ नहीं उठाते। उनकी आत्मकथा ऐसी ही बिना जोखिम भरी यात्रा है।

हृदयेश भूले नहीं होंगे कि मैंने न सिर्फ उन पर अपनी पत्रिका का तीन सौ पृष्ठों का विशेषांक निकाला था, बल्कि कमलेश्वर को शाहजहाँपुर बुलाकर उसका विमोचन कार्यक्रम भी आयोजित किया था। कमलेश्वर को मैं और अमितेश दिल्ली ‘गंगा’ कार्यालय पहुँचकर आमंत्रित करने गए थे। हमारे बहुत अनुरोध पर ही वे शाहजहाँपुर आने को तैयार हुए। कमलेश्वर के आने की स्वीकृति की सूचना जब मैंने हृदयेश को दी तब उनकी टिप्पणी थी कि कमलेश्वर को आजकल कोई नहीं पूछता।

सुधीर विद्यार्थी