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अफ़सोस किताबों के लिखने वाले भी किताबों के सफ़हों में दफ़्न हैं किसी सूखे गुलाब की तरह
खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए। सवाल यह है कि किताबों ने क्या दिया मुझको ? अफ़सोस किताबों के लिखने वाले भी किताबों के सफ़हों में दफ़्न हैं, किसी सूखे गुलाब की तरह, जब बरक खोलो तो महकने लगती है शख़्सियत उनकी। चमकती जिल्द की सूरत कहाँ बताती है कि किन पथरीली राहों से वो शख़्स गुज़रा था, काँटों ने कितना छलनी किया कि जिदंगी नासूर हो गयी। कौन जानता है इन हर्फ़ों की नीली काली स्याही तले कई जस्बात चिने हैं।
ज़रा सी उँगलियों की हरारत पाकर सर्द रूहें भटकने लगती हैं और फिर रूहों के साये वाली रातों में किरदारों को पढ़ने वालों से सोया नहीं जाता।
वही ख़्वाब कई रातों को घेर-घेर ले जाते हैं, उन्हीं अनदेखी अनजानी राह पर.. जहाँ इक बुझा बुझा गाँव मिलता है ...लमही। जहाँ की ढहती दीवार इक नाम प्रेमचंद सहेजे मर रही है।
मैं मिट्टी कुरेदूँ तो भी सिरे हाथ नहीं आते, जहाँ से खींच लूँ हाथ तुमको (प्रेमचंद ) तुम्हारी सूरत बयां कर दूँ। मशक़्क़त कर रहीं हूँ। तभी तुम्हारे घर के सामने वाला इमली का बूढ़ा दरख़्त कंधे से छूता है ..और अब उस उजड़े चबूतरे पर बैठ गयी हूँ मैं ..कि धम्म से आम के पेड़ों से नवाब कूदे ..और धनपत राय गरम-गरम पनुये का रस चस्के से पीने लगे।
मैं लुत्फ़ ले रही थी कि दूर कमरे के इक कोने में.. रोशनी छलकी। बढ़े क़दम तो देखा फटी बनियान पहने मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) क़लम चलाने में लगे हैं ढिबरी के काले काले धुएँ को चीर कर, इक चाँद सा चमकता युग निकलने की जुगत में है। वो क़लम घिसे जा रहा है.. उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि हो रही है।
…और देखते ही देखते उस उपन्यास सम्राट ने 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, तीन नाटक, दस अनुवाद, सात बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय और जाने क्या-क्या.. इक शख़्स ने इक पूरा साहित्यिक संसार रच डाला।
क़लम ने माथे पर बिन्दियाँ सजाईं तो हिन्दी और उर्दू दोनों ही सखियाँ खिलखिलाने लगीं। ..और फिर गांधीजी ने उस शख़्स को आवाज़ दे दी। वो शख़्स देश प्रेम की राह पर बढ़ा ही था कि पहले से ही ग़रीबी के साये में पले बढ़े मुंशी प्रेमचंद जी को ग़रीबी ने और कस कर जकड़ लिया। मगर वो फिर भी बिना रूके लिखता रहा उसके बिना कलफ और बिना इस्तरी किए हुए गाढ़े के कुरते के अन्दर से उसकी फटी बनियान झांकती रही ...उसकी पैर की तकलीफ को देखकर डॉक्टर उसे नर्म चमड़े वाला फ्लेक्स का जूता पहनने को कहता रहा पर उसके पास उन्हें खरीदने के लिए सात रुपये तक नहीं हैं.
वो अपने छापने वालों को एक ख़त लिख-लिख अपनी तकलीफ बताता था और खुद से मुनाफ़ा कमाने वालों से सात रुपये भेजने की गुज़ारिश करता रहा मगर अभावों ने कुछ नहीं सुना। बीमारी हद से बढ़ गई। आख़िर लील ही लिया सदी के युगनायक को।
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....मगर अफ़सोस जब अंतिम सफ़र को जाता है तो उसे कन्धा देने के लिए महज़ दस-बारह प्रशंसक ही जमा हो जाते हैं। शव यात्रा देखकर कोई पूछता है –
‘कौन था?’...
जवाब मिलता है ‘कोई मास्टर था।’
अब आप ही कहें, मैं पूरा कैसे बता दूँ उस अज़ीम शख़्स की दास्ताँ ? तफ्सील में भला दो सफ़हे कैसे कहेंगे इक दर्द के दीवान को ?
फिर भी कुछ बता सकें इस सोये ज़माने को। हमारे महानायक बंद अल्मारी में काँच के पल्लों के पीछे धूल खाने के लिए नहीं है। यह नायक हमारे युगसृष्टा हैं। देशवासियों पर क़र्ज़ है उनका। यह नसीहत है इस देश को कि लो सहेज लो विरासतें उनकी। उन्हें याद करो शिद्दत से, सम्मान करो इतना कि प्रेरणा पाकर हर घर से क़लम लिए धनपत राय निकले और फ़ख़्र से घरवाले झूम-झूम जायें।
- डॉ कविता अरोरा


