भारतीय संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है, आरएसएस उसे मार देना चाहता है
शाहनवाज़ आलम अपने लेख में संविधान की मूल आत्मा, उसके सेक्युलर और समाजवादी चरित्र, और उस पर मंडराते खतरे की गंभीर पड़ताल करते हैं

भारतीय संविधान: एक जीवंत दस्तावेज बनाम उसे मृत करने की कोशिश
भारतीय संविधान: एक जीवंत दस्तावेज बनाम उसे मृत करने की कोशिश
शाहनवाज़ आलम अपने लेख में संविधान की मूल आत्मा, उसके सेक्युलर और समाजवादी चरित्र, और उस पर मंडराते खतरे की गंभीर पड़ताल करते हैं। यह लेख न केवल इतिहास के पन्नों को खंगालता है, बल्कि वर्तमान राजनीतिक विमर्श की परतों को भी उघाड़ता है. शाहनवाज़ आलम का यह लेख राजनीतिक विमर्श में उस बिंदु को उजागर करता है जहाँ प्रतीक और विचार की लड़ाई होती है। आज डॉ. अंबेडकर के नाम पर हो रही राजनीति को उनके मूल विचारों की कसौटी पर कसना जरूरी है — वरना संविधान एक “मूल प्रति” तक सिमट जाएगा और उसके जीवंत मूल्यों की जगह मनुस्मृति जैसा प्रतिगामी दर्शन ले लेगा। यह चेतावनी केवल राजनीतिक दलों के लिए नहीं, बल्कि नागरिक समाज और मीडिया के लिए भी उतनी ही आवश्यक है.....
इसे राजनीति के एक चक्र का पूरा होना ही कहेंगे कि आरएसएस और भाजपा डॉ अम्बेडकर द्वारा संविधान की मूल प्रस्तावना में सेक्युलर और समाजवादी शब्द न रखे जाने और इंदिरा सरकार द्वारा 1976 में 42 वां संविधान संशोधन कर इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ने को मुद्दा बना रहे हैं. उनके निशाने पर पहले की तरह ही कांग्रेस है और आक्रमण का छुपा लक्ष्य भी वही यानी संविधान की जगह मनुस्मृति लागू करने का तर्क गढ़ना है. जैसा कि आरएसएस ने डॉ अम्बेडकर द्वारा 26 नवंबर 1949 को राष्ट्रपति को संविधान की पहली प्रति सौंपने के चार दिन बाद ही 30 नवंबर को अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र आर्गेनाइजर में संविधान को न मानने और उसकी जगह मनुस्मृति को संविधान बनाने की मांग कर की थी.
इन 75 सालों में बस अंतर यह आया है कि इस बार अम्बेडकर के चेहरे को ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि उस समय अम्बेडकर इसी संविधान के कारण पंडित नेहरू के साथ उनके निशाने पर थे.
संविधान और आरएसएस की ऐतिहासिक दूरी
यानी संविधान की प्रस्तावना से सेक्युलर और समाजवादी शब्दों को हटाकर डॉ अम्बेडकर द्वारा सौंपे गए संविधान की मूल प्रति की प्रस्तावना को दुबारा लागू करने की मांग करने वाले आरएसएस और भाजपा से यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि जब ये दोनों शब्द संविधान में नहीं थे, तब भी वो क्यों संविधान का विरोध करते हुए अम्बेडकर और नेहरू का पुतला फूंक रहे थे. इस सवाल का एक हिस्सा यह भी हो सकता है कि जब कांग्रेस के 60 सालों के कुशासन के कारण वो कांग्रेस के विरोधी हैं तो फिर वो 1915 में हिन्दू महासभा और 1925 में आरएसएस की स्थापना करके कांग्रेस के खिलाफ़ और अंग्रेज़ों के साथ क्यों खड़े थे. उस समय तो कांग्रेस के हाथ में देश की सत्ता नहीं थी, जिसके कुशासन से नाराज़ होने की कोई वजह होती.
डॉ. अंबेडकर की विचारधारा को ढाल की तरह इस्तेमाल
यानी जैसे दिक़्क़त उन्हें कांग्रेस के कुशासन से नहीं कांग्रेस की समतावादी नीतियों से है, ठीक वैसे ही इन्हें दिक़्क़त इंदिरा जी द्वारा जोड़े गए इन दो शब्दों से नहीं बल्कि अपनी सम्पूर्णता में संविधान से ही है.
मौन अम्बेडकरवादी दल और सीमित अस्मितावाद
डॉ अम्बेडकर पर हो रही इस बहस पर बसपा और आरपीआई जैसी अम्बेडकरवादी पार्टियों की ख़ामोशी सबसे दुखद है, जो शायद इस वजह से हो कि आरएसएस के निशाने पर कांग्रेस है, जो उनके लिए रणनीतिक तौर पर फायदेमंद है. तो क्या इन पार्टियों के लिए डॉ अम्बेडकर का चेहरा सिर्फ़ सत्ता में हिस्सेदार बनने की एक रणनीतिक ज़रूरत भर थी? जो अम्बेडकर के विचारों पर हमले के समय उन्हें अकेला छोड़ चुकी हैं.
धार्मिक पहचान बनाम समतावादी राजनीति
बसपा विपक्ष में होकर भी चुप है तो आरपीआई सत्ता के साथ. यानी इंदिरा सरकार द्वारा संविधान में सेक्युलर और समाजवादी शब्द जोड़े जाने की आलोचना पर उनकी मौन सहमति है.
इस परिघटना से दो तथ्य स्पष्ट होते हैं. पहला, इतिहास को दोहराते हुए एक बार फिर कांग्रेस डॉ अम्बेडकर के विचारों का बचाव कर रही है, जैसा उसने उनके संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बनने के बाद हिन्दू महासभा और आरएसएस द्वारा आलोचना और हिन्दू कोड बिल पर उनके विरोध के समय किया था.
दूसरा, इससे डॉ अम्बेडकर के नाम पर की गयी अस्मितावादी राजनीति की सीमाएं उजागर हुई हैं. जिसने उनके चेहरे को उनकी वैचारिकी से काट कर सिर्फ़ कुछ व्यक्तियों की बार्गेनिंग पॉवर बढ़ाने के साधन के बतौर इस्तेमाल किया और डॉ अम्बेडकर के सेकुलरिज्म के प्रति अडिग प्रतिबद्धता को नज़र अंदाज़ किया.
संवैधानिक नैतिकता और आरएसएस की चुनौती
हम 24 मार्च 1947 को संविधान सभा द्वारा गठित मौलिक अधिकारों की उप समिति को डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत किए गए ज्ञापन की इन पंक्तियों को कैसे नज़रअंदाज़ कर सकते हैं कि 'दुर्भाग्य से देश के अल्पसंख्यकों के लिए भारतीय राष्ट्रवाद ने एक ऐसा सिद्धांत विकसित कर लिया है जिसे अल्पसंख्यकों पर शासन करने का बहुसंख्यकों का दैवीय अधिकार कहा जा सकता है. जिसमें अल्पसंख्यकों द्वारा सत्ता में भागीदारी मांगने के दावे को साम्प्रदायिकता और बहुसंख्यकों द्वारा सत्ता को पूरी तरह नियंत्रित करने को राष्ट्रवाद कहा जाता है. इस राजनीतिक दर्शन से संचालित बहुसंख्यक किसी भी हाल में अल्पसंख्यकों को सत्ता में हिस्सेदारी देने के लिए तैयार नहीं है. और इन्हीं परिस्थितियों के कारण अनुसूचित जातियों के अधिकारों को संविधान में समाविष्ट करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.'
लेकिन डॉ अम्बेडकर के अल्पसंख्यकों के प्रति चिंता को नज़रअंदाज़ करने वालों पर किसी भटकाव का आरोप लगाने का ठोस आधार नहीं दीखता. यह एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा लगता है. जिसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि कांशीराम जी मुसलमानों को इसलिए अपना वोटर मानने का तर्क दिया करते थे कि वो भी पहले दलित और पिछड़े हिन्दू ही थे जिन्होंने मनुवादी व्यवस्था से नाराज़ होकर इस्लाम स्वीकार कर लिया था. यह तर्क तथ्यों की कसौटी पर बिलकुल दुरुस्त है, क्योंकि भारतीय मुसलमानों का 99 प्रतिशत हिस्सा पहले हिन्दू ही था.
लेकिन संविधान और लोकतान्त्रिक मूल्यों की कसौटी पर परखें तो क्या इससे यह साफ़ नहीं होता कि बसपा मुसलमानों को उनकी स्वतंत्र धार्मिक पहचान के साथ स्वीकार नहीं कर पाई? क्या उसका यह रवैय्या आरएसएस और भाजपा के उस विचार से किसी भी तरह अलग है जो मुसलमानों को उनके पूर्वजों के हिन्दू होने और उस पर गर्व करने का जबरन दबाव डालते हैं? क्या यह विचार भाजपा की राजनीति की जड़ को शुरुआती दिनों में मजबूत करने वाले अटल, आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के उस विचार से ज़रा सा भी अलग है जिसमें वो कहते थे कि भारतीय मुसलमान अपने को मोहम्मदीया हिन्दू, क्रिस्चियन क्रिस्ती हिन्दू मानें.
अगर हम इस प्रवृत्ति को डॉ अम्बेडकर के इस कथन की रौशनी में देखें जिसमें उन्होंने कहा था कि 'संवैधानिक नैतिकता हमारी स्वाभाविक भावना नहीं है. इसे विकसित करना होगा. हमें यह समझना होगा कि हमारे लोगों को अभी इसे सीखना है. भारत के लिए लोकतंत्र एक ऊपर से पहनाया गया कपड़ा है, जो बुनियादी तौर पर अलोकतान्त्रिक है. (संविधान सभा की बहस, खण्ड 7, पेज 38), तो इन दोनों धाराओं में मुसलमानों के प्रति सामान धारणा दिखती है.
यहां यह नहीं भूला जा सकता कि आरएसएस और भाजपा को जब भी उसके शासन में लोकतंत्र पर बढ़ते खतरे का आरोप लगता है तब वो यही कहते हैं कि भारत के डीएनए में लोकतंत्र है और यह आदि काल से चला आ रहा है. यानी वो सीधे डॉ अम्बेडकर की इस बात को खारिज करते हैं कि हमें अपने लोगों को लोकतान्त्रिक बनाना है, जो वो नहीं हैं.
यह दरअसल संविधान लागू होने के साथ संवैधानिक नैतिकता को विकसित करने के अम्बेडकर के लक्ष्य को ख़ारिज करने की कोशिश और उसकी आड़ में संविधान को अप्रासंगिक बनाने का षड्यंत्र है जिस पर शायद ही ये पार्टियां कभी बोलती हैं.
भारतीय संविधान एक जीवित दस्तावेज है, जिस पर भरोसा करने वाली सरकार उसके मूलभूत सिद्धांतों पर मंडराते खतरे को भांप कर उसकी रक्षा के उपाय कर सकती है. इंदिरा सरकार ने सेक्युलर और समाजवादी शब्द जोड़कर यही किया था. आरएसएस इसे पुराने रूप में ले जाकर उसे मृत दस्तावेज़ में बदलना चाहता है. सामाजिक विकास को हज़ारों साल पीछे ले जाने के लक्ष्य वालों लिए यह ज़रूरी है, और यह यहीं नहीं रुकेगा.
यानी जिसे 90 के शुरुआती दौर में अतिउत्साह में हिस्सेदारी को और नीचे तक ले जाने का श्रेय दिया गया, वो प्रतिनिधित्व के सवाल पर तो खरे उतरे, लेकिन उनकी यात्रा लोकतान्त्रिक सेकुलरिज्म के सिद्धांतों से समझौता करने की रही. उन्होंने डॉ अम्बेडकर को अकेले छोड़ दिया.
आज अकेले पड़ गए अम्बेडकर के साथ फिर से सिर्फ़ कांग्रेस खड़ी है. इसी एकता पर सेक्युलर और समाजवादी भारत का भविष्य टिका है. यही इतिहास की नियति भी है. जिससे हमने आज़ादी की मध्यरात्रि को वादा किया था.
शाहनवाज़ आलम
(लेखक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव हैं)



